न चोरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारी । व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥
विद्या रुपी धन को चोर चुरा नहीं सकता, राजा छीन नहीं सकता, भाई आपस में उसका बंटवारा नहीं कर सके, न तो वह भारी प्रतीत होता है ओर खर्च करने से अधिक बढता है। सत्य है, विद्यारुप धन सर्वश्रेष्ठ है।
Knowledge cannot be stolen by thiefs, snatched by kings, partitioned by brothers. It is not heavy to carry either. The more you expend, the more it grows; indeed the wealth of knowledge is the supreme of all wealths.
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सभी सनातन धर्म शास्त्रों का मूल वेद है। ज्ञान नित्य है, इस कारण प्रलय के समय भी ज्ञानरूपी वेद ओंकार रूप से नित्य स्थित रहते हैं। श्री वेदव्यासजी कहा है :
श्री भगवान के वाक्यरूपी वेद अनादि नाशविहीन तथा नित्य हैं। वेद ही सृष्टि की प्रथम अवस्था में प्रकाशित आदिविद्या है। इनसे ही सकल संसार का विस्तार होता है। प्रलय के समय में भी परमात्मा में सूक्ष्म रूप से वेद की स्थिति रहती है। महाप्रलय में भी वेदों का नाश नहीं होता।
वेद चार हैं : ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग-स्थिति, यजु-रूपांतरण, साम-गतिशील और अथर्व-जड़। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्ही के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।
– ऋग्वेद में पद्य में प्रकाशित मन्त्र हैं
– यजुर्वेद में गद्य में प्रकाशित मन्त्र हैं
– सामवेद में गेय मन्त्र हैं
– अथर्ववेद में इन सभी, पद्य गद्य और गेय के मिश्रित मन्त्र हैं।
उपनिषद् शब्द का साधारण अर्थ है – ‘समीप उपवेशन’ या ‘समीप बैठना अर्थात ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना। यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से निष्पन्न हुआ है। सद् धातु के तीन अर्थ हैं : विवरण-नाश होना; गति-पाना या जानना तथा अवसादन-शिथिल होना।
उपनिषदों में ऋषियों और शिष्यों के मध्य, वेदों के विषय में पूछे गए गूढ प्रश्न तथा सरल उत्तरों का विवरण है जो वेदों के मर्म तक पहुंचाने में सहायता करता है।
उपनिषदों में मुख्य रूप से ‘आत्मविद्या’ का प्रतिपादन है, जिसके अन्तर्गत ब्रह्म और आत्मा के स्वरूप, उसकी प्राप्ति के साधन और आवश्यकता की समीक्षा की गयी है। आत्मज्ञानी के स्वरूप, मोक्ष के स्वरूप आदि अवान्तर विषयों के साथ ही विद्या, अविद्या, श्रेयस, प्रेयस, आचार्य आदि तत्सम्बद्ध विषयों पर भी भरपूर चिन्तन उपनिषदों में उपलब्ध होता है। वैदिक ग्रन्थों में जो दार्शनिक और आध्यात्मिक चिन्तन यत्र-तत्र दिखाई देता है, वही परिपक्व रूप में उपनिषदों में निबद्ध हुआ है।
उपनिषदों में सर्वत्र समन्वय की भावना है। दोनों पक्षों में जो ग्राह्य है, उसे ले लेना चाहिए। इसी दृष्टि से ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग, विद्या और अविद्या, संभूति और असंभूति के समन्वय का उपदेश है। कुछ उपनिषदों में ब्रह्मविद्या की तुलना में कर्मकाण्ड को अत्यंत हीन बताया गया है। ईश आदि अनेकों उपनिषद एकात्मवाद का प्रबल समर्थन करती हैं।
उपनिषद् ब्रह्मविद्या का द्योतक है। इस विद्या के अभ्यास से मुमुक्षुजन की अविद्या नष्ट हो जाती है और वह ब्रह्म को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर हो जाता है और उपनिषदों के निरंतर अभ्यास से मनुष्य को ब्रह्म अथवा परमात्मा का साक्षात्कार होता है।
किस उपनिषद का सम्बन्ध किस वेद से है, इस आधार पर उपनिषदों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जाता है-
(१) ऋग्वेदीय – १० उपनिषद्
(२) शुक्ल यजुर्वेदीय – १९ उपनिषद्
(३) कृष्ण यजुर्वेदीय – ३२ उपनिषद्
(४) सामवेदीय – १६ उपनिषद्
(५) अथर्ववेदीय- ३१ उपनिषद्
कुल — १०८ उपनिषद्
इनके अतिरिक्त नारायण, नृसिंह, रामतापनी तथा गोपाल चार उपनिषद् और हैं।
वैदिक तत्वों को स्मरण करके पूज्य महर्षियों ने मानव कल्याण के लिए जिन ग्रन्थों की रचना की उन्हें स्मृतिशास्त्र कहते हैं। विभिन्न कल्पों में जिस प्रकार वेदों की संख्या विभिन्न हुआ करती है उसी प्रकार अनुशासन शास्त्रों में प्रधान स्मृति शास्त्रों की संख्या भी नियमित हुआ करती है। वर्त्तमान कल्प के स्मृतिग्रन्थों की निम्न संख्या हैं:-
मनु, अत्रि, विष्णु, हारीत, याज्ञवल्कय, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्भ, संवर्त, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शंख, लिखित, दक्ष, गौतम, शातातप और वसिष्ठ ये धर्मशास्त्र (स्मृति शास्त्र) के प्रायोजक हैं। इन्ही स्मृतियों को प्रधान स्मृतियाँ माना जाता है। इनके अतिरिक्त गोभिल, जमदग्नि, विश्वामित्र, प्रजापति, वृद्ध शातातप, पैठीनसि, आश्वलायन, पितामह, बौद्धायन, भरद्वाज, छागलेय, जाबालि, च्यवन, मरीचि, कश्यप आदि ऋषियों द्वारा रचित उपस्मृतियाँ भी हैं ।
कहीं कहीं यह मतभेद भी है की प्रधान स्मृतियाँ केवल दो हैं – याज्ञवल्कय और मनु , उपस्मृति अट्ठारह हैं और, औप स्मृतियाँ भी अट्ठारह हैं। प्राचीन काल में तीन प्रकार की स्मृतियाँ कल्पसूत्रों के सामान सूत्रकार में प्रचलित थीं। ऐसा कहा जाता है की मूल स्मृतिकारों ने स्मृति शास्त्र को सूत्रबद्ध ही बनाया था परन्तु बाद में सर्व साधारण के कल्याण के लिए उनकी शिष्य परम्परा ने स्मृतियों को श्लोकबद्ध कर दिया। अन्य उपदेशों के अतिरिक्त स्मृतियों में मानव आचार, कार्यकलाप तथा सामाजिक रिति का वर्णन किया गया है। कैसा व्यव्हार तथा आचरण व्यक्ति को लौकिक और पारलौकिक उन्नति की और अग्रसर कर सकता है और कैसे निषिद्ध कर्मों के त्याग से मनुष्य अधोगति से बच सकता है, यह सभी कर्म स्मृतियों में स्पष्ट रूप से वर्णित हैं।
इस बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता की समृतियों में वर्णित कुछ विषय वर्त्तमान समय में ना तो प्रासंगिक है न ही वांछित और यही हिन्दू सनातन धर्म की विशेषता है की यह समय के साथ सरल-साधारण से उच्चतर-जटिल रूपों में क्रमशः विकसित होता रहता है और सहस्त्रों वर्षों की परतंत्रता के बाद भी प्रासंगिक बना हुआ है।
गीता का सरल अर्थ है भगवान् के द्वारा गाया हुआ गीत। प्रमुख रूप से गीता शब्द आते ही श्रीमद भागवत गीता का स्मरण होता है जो पूर्णावतार भगवान श्री कृष्ण ने अपने श्री मुख से महाभारत के युद्ध क्षेत्र में अर्जुन, पांडवों और सम्पूर्ण प्राणियों के कल्याण के लिए गाई थी। परन्तु सनातन धर्म शास्त्रों में विविध गीता उपलब्ध हैं:
हंस गीता – इसे उद्धव गीता भी कहा जाता है। भागवत पुराण में जब श्रीकृष्ण अपनी लीला समाप्त कर वैकुंठ जा रहे थे तो अपने जीवन का ज्ञान मित्र उद्धव से कहा था। अवधूत गीता– भगवान् दत्तात्रेय द्वारा परम सत्य का दर्शन कराती है। अष्टावक्र गीता– जिसमे अष्टावक्र राजा जनक से आत्म तत्व बताते है। राम गीता– सीता को वन में छोड़ कर आने के बाद जब लक्ष्मण दुखी होते है तो उनके दुःख को हरने के लिए भगवान् राम जो उपदेश देते है वह राम गीता है। गणेश गीता– गणेश पुराण में गजानन राजा वरेण्य को सत्य से अवगत कराते है। गुरु गीता– स्कन्द पुराण में वर्णित भगवान् शिव द्वारा दिए गए उत्तर जो माँ शक्ति की जिज्ञासा को शांत करने के लिए दिए गए थे।
इनके अतिरिक्त अन्य गीता भी प्रचलित हैं है जैसे विष्णु गीता, श्री शक्ति गीता, पाराशर गीता, पांडव गीता, ब्रम्हगीता, यमगीता, सूर्यगीता इत्यादि ।
वास्तव में देखा जाए तो गीता पूर्ण ज्ञान की गङ्गा है, गीता अमृतरस की ओजस धारा है। गीता इस दुष्कर संसार सागर से पार उतरनेके लिये अमोघ तरणी है। गीता भावुक भक्तों के लिये गम्भीर तरङ्गमय भावसमुद्र है। गीता, कर्मयोग परायण मनुष्य को सत्यलोकमें ले जाने के लिये दिव्य विमान रूप है । गीता ज्ञानयोगनिष्ठ मनुष्य को जीवन्मुक्त बनानेके लिये अमृत समुद्र रूपहै, गीतासंसार मरुभूमिमें जले हुए दु:खित जीवनके लिये मधुर जलसे पूर्ण मरू उद्यान है। जितना भी कहा जाये, शब्दों में गीता की अपूर्व गाथा का वर्णन हो ही नहीं सकता है।
भगवान् राम की ही भांति रामायण भी अत्यंत प्रचलित ग्रन्थ है। परन्तु सभी प्रचलित रामायणों में भगवान राम के विषय में आधिकारिक रूप से जानने का मूल स्रोत महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण ही है। इस गौरव ग्रंथ के कारण वाल्मीकि दुनिया के आदि कवि माने जाते हैं।
श्री राम का विश्व पर प्रभाव तथा राम कथा की व्यापकता का असर इसी प्रकार से लगाया जा सकता है, रामायण न केवल अनेक भारतीय भाषाओं में लिखी गयीं अपितु विदेशी भाषायों में भी रामायण प्रचुर मात्राओं में उपलब्ध है।
हिन्दी में कम से कम 11, मराठी में 8, बाङ्ला में 25, तमिल में 12, तेलुगु में 12 तथा उड़िया में 6 रामायणें मिलती हैं। हिंदी में लिखित गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस ने उत्तर भारत में विशेष स्थान पाया। इसके अतिरिक्त भी संस्कृत,गुजराती, मलयालम, कन्नड, असमिया, उर्दू, अरबी, फारसी आदि भाषाओं में राम कथा लिखी गयी।
विदेशों में तिब्बती रामायण, पूर्वी तुर्किस्तानकी खोतानीरामायण, इंडोनेशिया की ककबिनरामायण, जावा का सेरतराम, सैरीराम, रामकेलिंग, पातानीरामकथा, इण्डोचायनाकी रामकेर्ति (रामकीर्ति), खमैररामायण, बर्मा (म्यांम्मार) की यूतोकी रामयागन, थाईलैंड की रामकियेनआदि रामचरित्र का सुन्दर वर्णन करती है। इसके अलावा विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि ग्रीस के कवि होमर का प्राचीन काव्य इलियड, रोम के कवि नोनस की कृति डायोनीशिया तथा रामायण की कथा में अद्भुत समानता है।
साहित्य के क्षेत्र में महाकवि कालिदास, भास, भट्ट, प्रवरसेन, क्षेमेन्द्र, भवभूति, राजशेखर, कुमारदास, विश्वनाथ, सोमदेव, गुणादत्त, नारद, लोमेश, मैथिलीशरण गुप्त, केशवदास, समर्थ रामदास, संत तुकडोजी महाराज आदि चार सौ से अधिक कवियों तथा संतों ने अलग-अलग भाषाओं में राम तथा रामायण के दूसरे पात्रों के बारे में काव्यों/कविताओं की रचना की है। वर्तमान में प्रचलित बहुत से राम-कथानकों में आर्ष रामायण, अद्भुत रामायण, कृत्तिवास रामायण, बिलंका रामायण, मैथिल रामायण, सर्वार्थ रामायण, तत्वार्थ रामायण, प्रेम रामायण, संजीवनी रामायण, उत्तर रामचरितम्, रघुवंशम्, प्रतिमानाटकम्, कम्ब रामायण, भुशुण्डि रामायण, अध्यात्म रामायण, राधेश्याम रामायण, श्रीराघवेंद्रचरितम्, मन्त्र रामायण, योगवाशिष्ठ रामायण, हनुमन्नाटकम्, आनंद रामायण, अभिषेकनाटकम्, जानकीहरणम् आदि मुख्य हैं।
विश्व साहित्य केवल श्री राम और रामायण के रूप में राम कथा ही है जिसका इतने विशाल एवं विस्तृत रूप से विभिन्न देशों में विभिन्न कवियों/लेखकों द्वारा राम चरित्र का इतनी श्रद्धा से वर्णन किया गया है।
वेदों के संहिता भाग में मंत्रों का शुद्ध रूप रहता है जो देवस्तुति एवं विभिन्न यज्ञों के समय पढ़ा जाता है। अभिलाषा प्रकट करने वाले मंत्रों तथा गीतों का संग्रह होने से संहिताओं को संग्रह कहा जाता है। इन संहिताओं में अनेक देवताओं से सम्बद्ध सूक्त प्राप्त होते हैं। सूक्त की परिभाषा करते हुए वृहद्देवताकार कहते हैं-
सम्पूर्णमृषिवाक्यं तु सूक्तमित्यsभिधीयते
अर्थात् मन्त्रद्रष्टा ऋषि के सम्पूर्ण वाक्य को सूक्त कहते हैँ, जिसमेँ एक अथवा अनेक मन्त्रों में देवताओं के नाम दिखलाई पड़ते है।
सहस्रनाम का सरल अर्थ है “एक हजार नाम” । यह स्तोत्र साहित्य की एक शैली भी है, जिसे इष्ट देवता के नाम के पाठ के शीर्षक के रूप में पाया जाता है, जिसमें देवताओं को 1,000 नामों, विशेषताओं या विशेषणों द्वारा पुकारा जाता है । नाम ही है जो भक्त को भगवान से जोड़ता है। नाम भक्त का पालन-पोषण ही नही करता बल्कि उसकी प्रत्येक क्षण रक्षा भी करता है। नाम में अनेक रिद्धियां-सिद्धियां, विभूतियां तथा स्वर्ग के सुख छिपे हैं। तुलसीदास जी के कहा है:
कलयुग केवल नाम अधारा,
सुमिर सुमिर नर उतरहि पारा।
सतयुग, त्रेतायुग और द्वापरयुग में प्रभु की प्राप्ति और मोक्ष के लिए जहाँ सघन आधार था। वहीं कलयुग में मात्र नाम की महिमा जपने से ही अपने जीवन के उद्देश्य को साकार किया जा सकता है। जो सच्चे मन से प्रभु का नाम जप लेता है उसके जीवन की नैया हर मझदार से निकल शांतिपूर्वक आगे बढ़ने लगती है। नाम की महिमा हर युग में महान रही है। चाहे नाम प्रह्लाद ने लिया हो, चाहे शबरी ने, द्रौपदी, सुदामा और तुलसीदास जैसे कितने ही भक्तों ने नाम का सहारा लेकर अपना जीवन सफल कर लिया।
कहा जाता है कि लौकिक एवं परलौकिक लाभ प्राप्ति तथा सुख, शांति तथा समृद्धि प्राप्त करने के लिए सहस्त्रनाम का नित्य मनन / श्रवण करना चाहिए।
देवर्षि नारद द्वारा रचित ‘नारद भक्ति सूत्र’ के ८४ सूत्रों में भक्ति विषयक विचार दिए गये हैं। भक्ति की व्याख्या, महत्ता, लक्षण, साधन, भगवान का स्वरूप, भक्ति के नियम, फल आदि की इसमें विशद चर्चा की गयी है।
भक्ति की व्याख्या करते हुए देवर्षि कहते हैं की भक्ति भगवान के प्रति परम प्रेमरूपा है, अमृत स्वरूपा है। अन्याश्रय का त्याग करना, भगवान को अपने सभी आचरण अर्पित कर देना, कामना का त्याग करना, ये भक्ति के लक्षण हैं। ज्ञानयुक्त भक्ति उत्तम है। भगवान के विरह से व्याकुल हो जाना भक्ति का चिह्न है। नारद भक्ति सूत्र में आदर्श भक्ति के दृष्टांत के रूप में ब्रज की गोपियों का उल्लेख किया गया है।
गोस्वामी तुलसीदास (1511 – 1623) हिंदी साहित्य के महान कवि और सनातन धर्म के रत्न थे। इन्हें आदि काव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। सनातन धर्म के मर्म को जन जन तक पहुँचाने में गोस्वामी तुलसीदास का योगदान अतुलनीय है। जिस प्रकार सनातन धर्म की जाग्रति और पुनर्स्थापना श्री आदि शंकराचार्य ने ५०० ईसा पूर्व संस्कृत भाषा में की थी, उसी प्रकार की जागृति और पुनर्स्थापना गोस्वामी तुलसीदास ने सोलहवीं शताब्दी में जन साधारण की भाषा में की।
संवत् १६२८ में वह हनुमान जी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था। वे वहाँ कुछ दिन के लिये ठहर गये। पर्व के छः दिन बाद एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए। वहाँ उस समय वही कथा हो रही थी, जो उन्होने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी। माघ मेला समाप्त होते ही तुलसीदास जी प्रयाग से पुन: वापस काशी आ गये और वहाँ के प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया। वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व-शक्ति का प्रस्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। परन्तु दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते। यह घटना रोज घटती। आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ। भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास जी की नींद उचट गयी। वे उठकर बैठ गये। उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए। तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। इस पर प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा- “तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिन्दी में काव्य-रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी।” इतना कहकर गौरीशंकर अन्तर्धान हो गये। तुलसीदास जी उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर काशी से सीधे अयोध्या चले गये।
अपने १२६ वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास ने कालक्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों की रचनाएँ कीं –
आद्य शंकर आचार्य भारत के एक महान दार्शनिक एवं धर्मप्रवर्तक थे। सनातन धर्म के विकास एवं संरक्षण में आद्य शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है। आचार्य शंकर का जन्म पश्चिम सुधन्वा चौहान, जो कि शंकर के समकालीन थे, उनके ताम्रपत्र अभिलेख में शंकर का जन्म युधिष्ठिराब्द २६३१ शक् (५०७ ई०पू०) तथा शिवलोक गमन युधिष्ठिराब्द २६६३ शक् (४७५ ई०पू०) सर्वमान्य है। इसके प्रमाण सभी शांकर मठों में मिलते हैं। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। भगवान शिव द्वारा द्वारा कलियुग के प्रथम चरण में अपने चार शिष्यों के साथ जगदगुरु आचार्य शंकर के रूप में अवतार लेने का वर्णन पुराणशास्त्र में भी वर्णित हैं जो इस प्रकार हैं :-
कलि के दो सहस्त्र वर्ष व्यतीत होने के पश्चात लोक अनुग्रह की कामना से श्री सर्वेश्वर शिव अपने चार शिष्यों के साथ अवतार धारण कर अवतरित होते हैं। “
उन्होने अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान किया तथा सनातन धर्म की विविध विचारधाराओं का एकीकरण किया। धर्म के मर्म को जन जन तक पहुँचाने के लिए उपनिषदों और वेदांतसूत्रों की अनेकों टीकाओं की रचना की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर चार मठों की स्थापना की जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिन पर आसीन संन्यासी ‘शंकराचार्य’ कहे जाते हैं। वे चारों स्थान ये हैं- (१) ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, (२) श्रृंगेरी पीठ, (३) द्वारिका शारदा पीठ और (४) पुरी गोवर्धन पीठ। इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दीक्षित किया था।
उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। शंकराचार्य के विषय में कहा गया है-
अर्थात् आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्यतथा बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया। ब्रह्मसूत्र के ऊपर शांकरभाष्यकी रचना कर विश्व को एक सूत्र में बांधने का प्रयास भी शंकराचार्य के द्वारा किया गया है, जो कि सामान्य मानव से सम्भव नहीं है।
भर्तृहरि विक्रमसंवत् के प्रवर्तक के अग्रज माने जाते हैं। विक्रमसंवत् ईसवी सन् से ५६ वर्ष पूर्व प्रारम्भ होता है जो विक्रमादित्य के प्रौढ़ावस्था का समय रहा होगा। भर्तृहरि विक्रमादित्य के अग्रज थे, अत: अनुमानत: इनका काल ५५० ई० मन जाता है। भर्तृहरि उज्जयिनी के राजा थे। यह ‘विक्रमादित्य’ उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़े भाई थे।
इन्होनें सुन्दर और रसपूर्ण भाषा में नीति, वैराग्य तथा श्रृंगार जैसे गूढ़ विषयों पर शतक-काव्य लिखे हैं। इस शतकत्रय के अतिरिक्त, वाक्यपदीय नामक एक उच्च श्रेणी का व्याकरण ग्रन्थ भी इनके नाम पर प्रसिद्ध है। भर्तृहरि ने वैराग्य क्यों ग्रहण किया यह बतलाने वाली कुछ किंवदन्तियां हैं परन्तु सा कहा जाता है कि उन्होंने प्रेम में धोखा खाने पर वैराग्य जीवन ग्रहण कर लिया था, नीतिशतक के प्रथम श्लोक में इन्होने स्वयं कहा है:
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता
साप्यन्यम् इच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः ।
अस्मत्कृते च परिशुष्यति काचिद् अन्या
धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॥
मैं जिसका सतत चिन्तन करता हूँ वह मेरे प्रति उदासीन है। वह भी जिसको चाहती है वह तो कोई दूसरी ही स्त्री में आसक्त है। वह मेरे प्रति स्नेहभाव रखती है। उस को धिक्कार है ! उस अश्वपाल को धिक्कार है ! उस को धिक्कार है ! उस कामदेव को धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है !)
इस अनुश्रुति के अनुसार एक बार राजा भर्तृहरि के दरबार में एक साधु आया तथा राजा के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए उन्हें एक अमर फल प्रदान किया। इस फल को खाकर राजा या कोई भी व्यक्ति अमर को सकता था। राजा ने इस फल को अपनी प्रिय रानी पिंगला को खाने के लिए दे दिया, किन्तु रानी ने उसे स्वयं न खाकर अपने एक प्रिय अश्वपालक को दे दिया जिसका सम्बन्ध राजनर्तकी से था। उसने भी फल को स्वयं न खाकर उसे उस राजनर्तकी को दे दिया। उस अमर फल को पाकर उस राजनर्तिकी ने इसे राजा को देने का विचार किया। वह राजदरबार में पहुँची तथा राजा को फल अर्पित कर दिया। रानी पिंगला को दिया हुआ फल राजनर्तिकी से पाकर राजा आश्चर्यचकित रह गये तथा इसे उसके पास पहुँचने का वृत्तान्त पूछा। राजनर्तिकी ने संक्षेप में राजा को सब कुछ बता दिया। इस घटना का राजा के ऊपर अत्यन्त गहरा प्रभाव पड़ा तथा उन्होंने संसार की नश्वरता को जानकर संन्यास लेने का निश्चय कर लिया और अपने छोटे भाई विक्रम को राज्य का उत्तराधिकारी बनाकर वन में तपस्या करने चले गये।
शतक त्रय में इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर,रसपूर्ण तथा प्रवाहमयी है। शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियाँ जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही हैं।
आचार्य चाणक्य का समय ई.स. पूर्व ३२६ वर्ष का माना जाता है। अपने निवासस्थान पाटलीपुत्र (पट़ना) से तक्षशीला प्रस्थान कर उन्होंने वहाँ विद्या प्राप्त की। अपने प्रौढ़ज्ञान से विद्वानों को प्रसन्न कर वे वहीं पर राजनीति के प्राध्यापक बने। लेकिन उनका जीवन, सदा आत्मनिरिक्षण में मग्न रहता था। देश की दुर्व्यवस्था देखकर उनका हृदय अस्वस्थ हो उठता; कलुषित राजनीति और सांप्रदायिक मनोवृत्ति से त्रस्त भारत का पतन उनसे सहन नहीं हो पाता था। अतः अपनी दूरदर्शी सोच से, एक विस्तृत योजना बनाकर, देश को एकसूत्र में बाँधने का असामान्य प्रयास उन्होंने किया।
नीतिवर्णन परत्व संस्कृत ग्रंथो में, चाणक्य-नीतिदर्पण का महत्वपूर्ण स्थान है। जीवन को सुखमय एवं ध्येयपूर्ण बनाने के लिए, नाना विषयों का वर्णन इसमें सूत्रात्मक शैली से सुबोध रूप में प्राप्त होता है। व्यवहार संबंधी सूत्रों के साथ-साथ, राजनीति संबंधी श्लोकों का भी इनमें समावेश होता है। चाणक्य का मानना था कि `बुद्धिर्यस्य बलं तस्य`। वह पुरुषार्थवादी थे; `दैवाधीनं जगत्सर्वम्` इस सिद्धांत को मानने के लिए कदापि तैयार नहीं थे। सार्वजनिन हित और महान ध्येय की पूर्ति में प्रजातंत्र या लोकशिक्षण अनिवार्य है, पर पर्याप्त नहीं ऐसा उनका स्पष्ट मत था। देश के शिक्षक, विद्वान और रक्षक – निःस्पृही, चतुर और साहसी होने चाहिए। स्वजीवन और समाजव्यवहार में उन्नत नीतिमूल्य का आचरण ही श्रेष्ठ है; किंतु, स्वार्थपरायण सत्तावान या वित्तवानों से, आवश्यकता पडने पर वज्रकुटिल बनना चाहिए – ऐसा उनका मत था। इसी कारण वे “कौटिल्य” कहलाये।
चाणक्य-नीतिदर्पण ग्रंथ में, आचार्य ने अपने पूर्वजों द्वारा संभाली धरोहर का और अन्य वैदिक ग्रंथो का अध्ययन कर, सूत्रों एवं श्लोकों का संकलन किया है। उन्हें, आने वाले समय में सुसंस्कृत पर क्रमशः प्रस्तुत करने का हमें हर्ष है। स्मृतिरुप होने के कारण, कुछ एक रचनाओं को काल एवं परिस्थिति अनुसार यथोचित न्याय और सन्दर्भ देने का प्रयास अनिवार्य होगा; अन्यथा आचार्य के कथन का अपप्रयोग हो पाना अत्यंत संभव है।
सनातन धर्म से सम्बंधित अनेकों विषयों का समावेश इन पुस्तकों में किया गया है। कृपया समाज से भ्रांतियों को दूर कर सनातन धर्म को सुदृढ़ करने का प्रयास करें।