प्रभु नाम जप का क्या फल है ? क्या किसी विशेष भगवान या सहस्त्र नाम के जप से ही उचित फल मिलता है? क्या संकीर्तन केवल मंडली में या ऊँची आवाज़ में ही सफल होता है ? क्या प्रभु नाम का जप केवल १०८ मनके की माला के साथ ही किया जाना चाहिए?
जो मनुष्य अपने पापों का क्षय करके इस संसार सागर से पार जाना चाहते हैं उन्हें तमोगुणीऔर रजोगुणी भूपतियों की उपासना ना करके सत्वगुणी श्री भगवान और उनके उनके अंश कला स्वरूपों का ही भजन करना चाहिए। अपने दूत को हाथ में मृत्यु पाश लिए देख कर यमराज उसके कान में कहते है – “देखो जो भगवान की कथा वार्ता में मत्त हो रहे हों, उनसे दूर रहना; मैं औरों से ही दंड देने की शक्ति रखता हूँ, श्री भगवान के भक्तों को नहीं”
जिस समय किसी मनुष्य ने “नारायण” इन चार अक्षरों या ‘शिव” इन दो अक्षरों का उच्चारण कर लिया उसी समय उस मनुष्य के समस्त पापों का प्रायश्चित हो गया। चोर, शराबी, मित्र द्रोही, ब्रह्मघाती, स्त्री, राजा, पिता और गाय को मारने वाला या ऐसे लोगों के संसर्गी, चाहे जैसा और जितना भी बड़ा पापी हो, सभी के लिए इतना ही सबसे बड़ा प्रायश्चित है कि भगवान के नामों उच्चारण किया जाय। क्योंकि भगवान नाम के उच्चारण से ही मनुष्य की बुद्धि भगवान के गुण, लीला और स्वरूप में रम जाती है और स्वयं भगवान की उसके प्रति आत्मीय बुद्धि हो जाती है।
बड़े बड़े ब्रह्मवादियों ने पापों के बहुत से प्रायश्चित और व्रत आदि बताए है परंतु उन प्राय्श्चित्तों से पापी की वैसी जड़ से शुद्धि नहीं होती, जैसे भगवान के नामों का उच्चारण करने से होती है क्योंकि वे नाम पवित्र कीर्ति भगवान के गुणों का ज्ञान कराने वाले हैं।
यदि प्रायश्चित के बाद भी मन कुमार्ग की और आकर्षित हो तो वह प्रायश्चित पूर्ण नहीं है इसलिए जो मनुष्य पापकर्म और वासनाओं को जड़ से ही उखड़ना चाहतें हैं , उन्हें भगवान के गुणों का ही गान करना चाहिए। यदि मनुष्य प्रभु नाम का श्रवण और कीर्तन और उच्चारण किसी भी प्रकार से, संकेत से, तान अलापने में, परिहास में अथवा किसी की अवहेलना करने में भी करता है तो भी उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।
जो मनुष्य गिरते समय, पैर फिसलते समय, अंग भंग होते समय, सांप के डसते समय, आग में जलते या चोट लगते समय विवशता से भी भगवान के नाम का उच्चारण कर लेता है, वह यमयातना का पात्र नहीं रह जाता। जैसे जानते हुए या अनजाने में भी ईंधन से अग्नि का स्पर्श हो जाए तो वह भस्म हो ही जाता है , वैसे ही अनजाने में भी भगवान के नामों का संकीर्तन करने से मनुष्य के सारे पाप भस्म हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
पाप की निवृत्ति के लिए भगवान नाम का एक अंश ही पर्याप्त है , भगवान का नाम ‘राम राम’, कृष्ण-कृष्ण, हरि-हरि ही पर्याप्त है उसके साथ नमः नममि इत्यादि लगाने की भी कोई आवश्यकता नहीं है । जिसकी जिह्वा के नोक पर ‘हरि’ ये दो अक्षर बसते हैं, उसे गंगा, गया, सेतुबँध, काशी और पुष्कर की यात्रा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेवेद का अध्ययन कर लिया, उसने दक्षिणा के साथ अश्वमेध आदि यज्ञों का भी यजन कर लिया । भगवान के नाम के दो अक्षर परलोक की आकांक्षा करने वालों के लिए पथेय हैं, संसार रूप रोग के लिए सिद्ध औषध है और जीवन दुःख कलेशों के लिए परित्राण हैं।
भगवान का नाम अर्थ, धर्म और काम इन तीनों वर्गों का साधक है। नाम संकीर्तन में ना तो वर्ण आश्रम का भेद है, ना देश काल का, शौच अशौच का निर्णय करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है, चलते फिरते , खड़े रहते, सोते, खाते पीते और जप करते हुए भी भगवान नाम का संकीर्तन किया जा सकता है।
सतयुग में ध्यान से, त्रेता युग में यज्ञ से और द्वापर युग में पूजा अर्चना से जो फल मिलता है, कलियुग में केवल भगवान नाम के संकीर्तन से मिलता है ।
उपरोक्त के स्पष्ट है की भगवान नाम की लीला अनंत है और हरि नाम जप का कोई विधान नहीं है, किसी भी स्तिथि में, किसी भी परिस्थिति में, कहीं भी, उच्च वाणी से अथवा केवल मन में भगवान नाम का जप किया जा सकता है। 108 मनके की माला, जप की विधि, ध्यान, या अन्य किसी भी युक्ति की कोई आवश्यकता नहीं है । कहा गया है “हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता” ।
राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम कहिए,
सीता राम सीता राम सीता राम कहिए,
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए ।
।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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