बलिवैश्वदेव और पञ्चमहायज्ञ की क्या व्याख्या है? क्या हिन्दू यज्ञों में पशुओं की बलि देने का विधान है ? क्या यज्ञ और हवन केवल वायुशुद्धि के लिए किये जाते हैं?
हिन्दू धर्म में यज्ञ एवं नित्य कर्म में पशुओं “को” बलिभाग देने का विधान है, पशुओं “की” बलि देने का विधान नहीं है।
“बलि‘ शब्द का अंग्रेजी अर्थ निकलता है – sacrifies या sacrificial. sacrifies शब्द के दो अर्थ निकलते हैं – to kill an animal or a person and offer them to a god or gods, पशुओं या मनुष्य की बलि दे कर उन्हें देवताओं को अर्पित करना तथा to give up something that is valuable to you in order to help another person, अपनी किसी प्रिय वस्तु की बलि देकर किसी अन्य को प्रसन्न करना।
दुर्भाग्य से अंग्रेजी तथा अन्य धर्मों के अवांछनीय पुरुषों विद्वानों द्वारा हिंदू धर्म में व्याप्त बलि शब्द के सही अर्थ – अपनी किसी प्रिय वस्तु की बलि देकर किसी अन्य को प्रसन्न करना की जगह पशुओं या मनुष्य की बलि दे कर उन्हें देवताओं को अर्पित करना माना गया तथा समस्त विश्व में प्रचारित भी किया गया। यही कारण है की इस विषय में इतनी भ्रामकता विद्यमान है।
हिन्दू शास्त्रों में स्नान, संध्या, जप, देवपूजा, वैश्वदेव और अतिथिपूजा-ये छ: नित्यकर्म माने गये हैं। देवपूजाके बाद बलिवैश्वदेव का विधान है। संध्या न करनेसे जैसे प्रत्यवाय (पाप) लगता है, वैसे ही बलिवैश्चदेव न करने से भी प्रत्यवाय लगता है ।
बलिवैश्चदेव कर्म में पञ्चबलि देने का विचार है – गौबलि, श्वानबलि, काकबलि, देवादिबलि और पीपलिकादिबलि
प्रमुखतः उपरोक्त बालियों तथा वेदों और अन्य धर्म शास्त्रों में वर्णित ‘बलि‘ शब्द के अर्थ का अनर्थ कर यह प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है की हिन्दू धर्म पशुओं की बलि का अनुमोदन करता है तथा हिन्दुओं में गौ को बलि देकर यज्ञ में आहुतियां दी जातीं हैं।
प्राणों का आधार अन्न है क्योकि अन्न के द्वारा ही जीव पुष्ट हो कर जीवन में सब प्रकार की उन्नति का अधिकारी बनता है। हिन्दू शास्त्रों में भोजन करने यज्ञ की उपमा दी गयी है। अन्न की क्षुधा से पीड़ित मनुष्य को आंखों से कुछ नहीं दिखाई पड़ता, उसके सारे अंग जलने और सूखने लगते है और मनुष्य भयंकर तथा मर्यादा हीन हो जाता है। इसलिए अन्न को संसार का मूल माना गया है तथा अन्न दान करने वाले को अक्षय तृप्ति और सनातन स्थिति प्राप्त होती है
भोजन किये गए अन्न से शरीर तथा आत्मा दोनों की पुष्टि हो तथा भोजन से आत्म बल की वृद्धि के लिए ही भोजन को भी कर्म मन गया है और यह निश्चित किया गया है की प्राण वायु की वृद्धि के लिए सर्वप्रथम छोटे-छोटे ५ ग्रास बनाकर निम्न मंत्रों के साथ मौन धारण करने के पश्चात भोजन करके का विधान है –
ॐ प्राणाय स्वाहा
ॐ अपानाय स्वाहा
ॐ व्यानाय स्वाहा
ॐ उदानाय स्वाहा
ॐ समानाय स्वाहा
अत: जो अन्न प्राण, बल और तेज है, पराक्रम है और जिस अन्न से ही तेज की उत्पत्ति और वृद्धि होती है, उस प्राण बल स्वरुप अन्न के बलिदान का विधान बलिवैश्वदेव विधि द्वारा किया गया है:
गौबलि – यज्ञ मंडल के बाहर पश्चिम दिशा में गौओं को अन्न ग्रास पत्ते पर इस मन्त्र को पद कर देने का विधान है ॐ सौरभेय्यः सर्वहिताः पवित्राः पुण्यराशयः । प्रतिगृह्णन्तु मे ग्रासं गावस्त्रैलोक्यमातरः । इदं गोभ्यो न मम मन्त्र पढ़ कर दी जाती है। इसका अर्थ है गौ के लिए अन्न की आहुति अथवा गौ को ग्रास देना न की यज्ञ में गौ की बलि देना जैसा प्रचारित किया जाता है ।
श्वानबलि – गौबलि के उपरांत कुत्तों को अन्न दान भूमि पर द्वी श्वानों श्यामशबली वैवस्वतकुल्नो द्रवौ । ताभ्यामन्र्न प्रयच्छामि स्यातामेतावहिंसको । इर्द शवषयां न मम मन्त्र पढ़ कर दी जाती है।
काकबलि —अपसव्य होकर इस मन्त्र पढ़कर कौओं को भूमि पर अन्न अर्पित किया जाता है ॐ ऐन्द्रवारुणवायव्या याम्या वै नैत्रईतास्तथा। वायसाः प्रतिगृह्णन्तु भूमौ पिण्डं मयोज्झितम् । इदमन्नं वायसेभ्यो न मम ।
देवादिबलि – सव्य होकर देवता, यक्ष, प्रेत, पिशाच आदि योनियोँ के लिये पत्ते अन्न देने का विधान निम्न मन्त्र के उच्चारण के पश्चायत है – ॐ देवा मनुष्याः पशवो वयांसि सिद्धाः सयक्षोरगदैत्यसङ्घाः । प्रेताः पिशाचास्तरवः समस्ता ये चान्नमिच्छन्ति मया प्रदत्तम । इदमन्न देवादिभ्यो न मम।
पिपीलिकादिबलि : इसी प्रकार चींटियों, कीट, पतंगे आदि योनियों को पत्तेपर अन्न दान का विधान निम्न मन्त्र पढ़ कर देने का विधान है – पिपीलिका कीटपतङ्गाकाद्या बुभिक्षिता: कर्मनिबन्धबद्धा: तृप्तथर्रमिदं मायान्न तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु। इदमन्नं पिपीलिकादि न मम।
अत: उपरोक्त से स्पष्ट है की हिन्दू धर्म में पशुओं की बलि का नहीं पशुओं को अन्न दान देने का विधान है।
इसी प्रकार अन्न दान की महत्ता को समझते हुए हिन्दू धर्मशास्त्रों ने भी हर गृहस्थ को प्रतिदिन पञ्चमहायज्ञ करने का आदेश दिया है। नियमित रूप से इन पंच यज्ञों को करने से सुख-समृद्धि व जीवन में प्रसन्नता बनी रहती है। इन महायज्ञों के करने से ही मनुष्य का जीवन, परिवार, समाज शुद्ध, सदाचारी और सुखी रहता है।
अविद्या ग्रसित जीव भाव का त्याग करके ब्रह्मभाव की उपलब्धि करना जब मनुष्य जन्म का लक्ष्य है तो जिस कार्य के द्वारा यह लक्ष्य सिद्ध होगा उसी की महिमा सर्वोपरि होगी इसमें सन्देह नही है। जीवभावके साथ ईश्वर भाव का यही भेद है कि जीव अल्पज्ञ है और ईश्वर सर्वज्ञ है, जीव देश, काल और वस्तु से परिच्छिन है और ईश्वर इनसे अपरिच्छिन्न होनेके कारण विभु नित्य एव पूर्ण है, जीव अविद्याके अधीन है और ईश्वर मायाके अधीश्वर है, जीवभाव स्वार्थ पर एवं साहङ्कार है और ईश्वरभाव परार्थपर एवं निरहङ्कार है, जीव की सत्सत्ता शूद्र है, परन्तु ब्रह्म की सत्सत्ता अनन्तकोटि ब्रह्माण्डमें परिव्याप्त है, उनकी चित्सत्ता अनन्त ज्ञानमय है और उनकी आनन्दसत्ता मायासे परे, सुख दु:खसे बाहर नित्यानन्दमय है। इसलिये जिस अनुष्ठानके द्वारा जीवभावकी ऊपर लिखी हुई समस्त मुद्रता नष्ट होकर विराद उदार, पूर्ण, ज्ञानमय, आनन्दमय, निःस्वार्थ, निरअहंकार, सर्वव्याप्त ब्रह्मभावके साथ एकता प्राप्ति हो, वह अनुष्ठान सवसे महान, महत्तर और महत्तम होगा, इसमें सन्देह ही क्या है, पांच महायज्ञ इसी परम महिमासे पूर्ण है, इसलिये ही महायश महान है। यशके द्वारा सकाम साधककी बहुधा ऐहिक और पारंत्रिक सुख्रलाभ होनेपर भी महायज्ञके द्वारा श्रात्माकी शुद्धि और मुक्ति होती है।
यह पांच महायज्ञ हैं:
‘अध्यापनं ब्रह्म यज्ञः पित्र यज्ञस्तु तर्पणं |
होमोदैवो बलिर्भौतो न्रयज्ञो अतिथि पूजनं।।
ब्रह्मयज्ञ – अध्यन, अध्यापन का नाम ब्रह्मयज्ञ।
पितृयज्ञ – अन्न अथवा जलके द्वारा नित्य नैमितिक पितरों के तर्पण करने का नाम पितृयज्ञ।
देवयज्ञ – देवताओं को लक्ष्य करके होम करनेका नाम देवयज्ञ।
भूतयज्ञ – पशु पक्षी आदि को अन्न आदि दान करने का नाम भूतयज्ञ
नरयज्ञ – अतिथि सेवा का नाम नरयज्ञ है।
जो गृहस्थ यथाशक्तितं इस पञ्चमहायशका अनुष्ठान करते है उनको गृहस्थ में रहने पर भी पञ्चसूना अर्थात् चूल्हा, चक्की , सिल-बट्टा, पानी का धड़ा और अन्य गृहस्थ साधनो में होने वाली जीवहत्याका दोष स्पर्श नही करता। इन यज्ञों द्वारा अपना तथा विश्व का कल्याण कैसे होता है यह किसी अन्य लेख में बताया जायेगा परन्तु उपरोक्त से यह स्पष्ट है पितृयज्ञ का मतलब पिता की बलि तथा नरयज्ञ का मतलब नरबलि नहीं है
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मध्यकाल तक अधर्म रूपी पशु बलि विकार हिंदू धर्म के धार्मिक कृत्यों में सम्मिलित हो गया था और इसी कारण हिंदू धर्म के सामाजिक और धार्मिक उत्थान के लिए भगवान ने बुद्धावतार ले कर धर्म की रक्षा की । परंतु यह कहना की हिंदू धर्म शास्त्र पशु हिंसा का अनुमोदन करते है सर्वथा अज्ञान से भरा असत्य है । बुद्धावतार में भगवान बुध ने धर्म में व्याप्त कुरितीयों का विरोध किया था धर्म शास्त्रों का या भगवान का विरोध कभी नहीं किया। विशेषकर उन सम्प्रदायों को जिनमे हर त्योहार पर पशु का घृणित प्रकार से वध कर उसको पका कर खाने की धार्मिक प्रथा प्रचलित है।
कुछ महापुरुष अग्नियुक्त हवन, यज्ञ का उद्देश्य केवल वायुशुद्ध करना बताते है । यह भी उनकी सम्पूर्ण भूल है। वायुशुद्धि और भी सस्ती चीजों से और भी अधिक हो सकती है इसके लिये कीमती घी, अन्य हव्य योग्य पदार्थ खर्च करने की भी कोई आवश्यकता नही है । वायुशुद्धि में ‘मन्त्र‘ पढ़ने की और ‘स्वाहा स्वाहा‘ कहने की कुछ भी आवश्यकता नही है। हवन से दैवजगत् के साथ कैसा सम्वन्ध होता है इस विषयमें यजु० अ० ११ मं० ३५ में वर्णन है
सीद॑ होत॒: स्व उ॑ लो॒के चि॑कि॒त्वान्सा॒दया॑ य॒ज्ञ सु॑कृ॒तस्य॒ योनौ॑ ।
दे॒वा॒वीर्दे॒वान्ह॒विषा॑ यजा॒स्यग्ने॑ बृ॒हद्यज॑माने॒ वयो॑ धा:
अर्थात हे देवताओं के आह्वान करनेवाले अग्निदेवता, सर्वश तुम अपने लोकमें ठहरो और श्रेष्ठकर्म यज्ञके स्थान कृष्णाजिनपर ही यक्षको स्थापन करो। हे अग्ने ! जिस कारण देवताओं की तृप्ति करनेवाले तुम हव्य से देवताओं को पूजते हो, इसी कारण यजमान में बड़ी आयु और अन्न को धारण करो।
मनु० अ० ३, श्लोक ७६ में भी कहा गया है – अग्नौ मास्ताहुति सम्यूगादित्यमुपतिठते। आदित्याज्जायते दृष्टिदृष्टेरमि‘ ततः प्रजाः ॥
अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्यदेवता को प्राप्त होती है । सूर्य से वृष्टि, वृष्टि से अन्न और उससे प्रजा का पालन होता है । ‘इष्टान भोगान्हि वो देवादास्यन्ते यज्ञभाविताः‘ देवतागण हवन सेतृप्त होकर उत्तम भोग जीव को देते है – इत्यादि सहस्र सहस्र प्रमाण केवल वायुशुद्धि के विरुद्ध तथा हवन द्वारा दैवजगत से समबन्ध के विषय में सनातन धर्म में पाए जाते है।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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