महाभारत को पांचवां वेद क्यों कहा जाता है ?
महाभारत को महाकाव्य या इतिहास ग्रन्थ भी कहा जाता है परन्तु वस्तुतः यह एक धर्मकोश है; जिनमे तत्कालीन सामाजिक राष्ट्रीय और अन्य पहलुओं पर प्रकाश डालनेवाले सभी विचारों का समावेश किया किया गया है। महाभारत से पूर्व विद्यमान ग्रंथों में जिन विषयों का विवेचन किया है; उन सब का सूक्ष्म दर्शन इस ग्रन्थ में मिलता है। महाभारत के आदिपर्व महाभारत की महत्ता स्थापित करते हुए कहा गया है :
इदं हि वैदे: समिताम पवित्रमापी चोत्तमम।
श्रावणामुत्तमं चेदं पुराण मृषि संस्तुतम।।
(आदिपर्व ६२।१६)
यह ऋषियों द्वारा प्रशंसित पुरातन इतिहास श्रवण करने योग्य तथा सब ग्रंथो में श्रेष्ठ है। यह वेदों के सामान ही उत्तम है।
धर्मशास्त्रमिदं पुण्यमर्थशास्त्रमिदं परम।
मोक्षशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनमितबुद्धिना ।।
अमित तेजस्वी एवं मेधावी व्यासजी में इसे पुण्यमय धर्मशास्त्र, उत्तम अर्थशास्त्र तथा सर्वोत्तम मोक्षशास्त्र भी कहा है।
महाभारत में किन विषयों का समावेश किया गया है, इसके विषय में स्वयं महर्षि वेदव्यास जी ने आदिपर्व में कहा है।
भूतस्थानानि सर्वाणि रहस्यं त्रिविधं च यत्।
वेदा योगः सविज्ञानो धर्मार्थः काम एव च।।४६।।
धर्मार्थाकामयुक्तानि शास्त्राणि विविधानि च।
लोकयात्राविधानं च सर्वे तद् दृष्टवानृषिः।।४७।।
इतिहासा सवैयाख्या विविधाः श्रुतयोऽपि च।
इह सर्वमनुक्रान्तमुक्तं ग्रंथस्य लक्षणम्।।४८।।
अर्थात् सभी प्राणियों के स्थान, सभी रहस्य, वेद, योगशास्त्र, विज्ञान, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, धर्म, अर्थ, तथा काम के वर्णन करने वाले ग्रंथों के सार, इस संसार में सुखपूर्वक रहकर जीने आदि सभी बातों का वर्णन इस महाग्रंथ में किया गया है। व्याख्या सहित इतिहास इसमें शामिल है। अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों मार्गां का अपूर्व वर्णन भी इसमें समाहित है।
महर्षि व्यास जी के इस कथन से यह स्पष्ट है की महाभारत को रचने में व्यास जी का उद्देश्य मात्र कौरवों और पांडवों के इतिहास का वर्णन करना ही नहीं था, परन्तु मनोरंजक कथा के माध्यम से लोगो को धर्म समझाना ही था। क्योंकि केवल धर्म के आचरण से मनुष्यों को अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
यही कारण है की महाभारत में वेदों के रहस्य, उपनिषदों का तत्वज्ञान, अंग-उपांगों की व्याख्या, इतिहास और पुराण का विकास, त्रिकाल का निरुपण, जरा, मृत्यु, भय, व्याधि, भाव, अभाव का विचार, त्रिविध धर्म और आश्रम का विवेचन, वर्णधर्म, तप, ब्रह्मचर्य, पृथ्वी, चंद्र, सूर्य, युग सहित ग्रह नक्षत्रों के प्रमाण, न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, तीर्थ, नदी, पर्वत, वन, सागर, दिव्य कल्पनाएं, युद्ध कौशल आदि सभी विषयों पर प्रकाश डाला गया है:
इतिहास पुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत।
बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यतीति।।
इतिहास और पुराणों के सहायता से ही वेदों के अर्थ का विस्तार एवं समर्थन करना चाहिए। जो इतिहास एवं पुराणों से अनभिज्ञ हैं, उनसे वेद डरते हैं की कहीं यह मुझ पर प्रहार न करदे।
प्राचीन काल में जब सब देवताओं ने मिलकर तराजू के एक पलड़े पर चारों वेदों को और दूसरे पलड़े पर महाभारत को रखा और जब यह ग्रन्थ रहस्यसहित चारो वेदों की अपेक्षा अधिक भारी निकला, तभी से संसार में महाभारत के नाम से जाना जाने लगा। सत्य के तराजू में तौलने से यह ग्रन्थ, महत्त्व, गौरव एवं गंभीरता में वेदों से भी अधिक सिद्ध हुआ। अतः महत्ता , भार अथवा गंभीरता की विशेषता से ही इसको महाभारत कहते हैं। इसका तात्पर्य यही है की वैदिक तत्वज्ञान को ही महाभारत में इस रूप में प्रस्तुत किया गया है, की सर्व साधारण के लिए उस तत्वज्ञान को समझना सरल हो गया है।
उपनिषदों का भी मुख्य विषय आध्यात्म होने से मनुष्य उनके अध्यन्न से अध्यात्म शास्त्र में तो परिपूर्ण हो जाता है, पर सांसारिक व्यवहार शास्त्र में पूर्ण नहीं होता। परन्तु महाभारत एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमे आध्यात्म और व्यव्हार दोनों का ही समावेश हो जाता है, अतः महाभारत का अध्यन्न करने वाला व्यक्ति दोनों दृष्टियों से योग्य बन जाता है। स्वयं महर्षि व्यास का कथन है :
यो विद्याच्चतुरो वेदान सांगोपनिष्दों द्विज:।
न चाख्यानमिदं विद्यान्नैष स स्याद्विचक्षण:।।
जो विद्वान अंगों सहित चारों वेद और सम्पूर्ण उपनिषद जानता हो, परन्तु उसने महाभारत का अध्यन्न न किया हो तो वह विचक्षण या बुद्धिमान नहीं हो सकता।
ऐसा कोई भी विद्या का पक्ष नहीं जिसे महर्षि वेदव्यास ने इस महाग्रंथ में स्पर्श नहीं किया हो। महाभारत में सभी शास्त्रों के सार का समावेश है और इसीलिए महाभारत को पांचवां वेद भी कहा जाता है।
।।इति।।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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