स्मृति शास्त्र
वैदिक तत्वों को स्मरण करके पूज्य महर्षियों ने मानव कल्याण के लिए जिन ग्रन्थों की रचना की उन्हें स्मृतिशास्त्र कहते हैं। विभिन्न कल्पों में जिस प्रकार वेदों की संख्या विभिन्न हुआ करती है उसी प्रकार अनुशासन शास्त्रों में प्रधान स्मृति शास्त्रों की संख्या भी नियमित हुआ करती है। वर्त्तमान कल्प के स्मृतिग्रन्थोंकी संख्या ये हैं:-
मन्वत्रिविष्णुहारीतयाज्ञवल्क्योशनोऽङ्गिराः ।
यमापस्तम्बसंवर्त: कात्यायनबृहस्पती ।।
पराशर व्यासशङ्खलिखिता दक्षगौतमौ ।
शातातपो वशिष्टचश्य धर्मशास्त्र प्रयोजका: ।।
मनु, अत्रि, विष्णु, हारीत, याज्ञवल्कय, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्भ, संवर्त, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शंख, लिखित, दक्ष, गौतम, शातातप और वसिष्ठ ये धर्मशास्त्र (स्मृति शास्त्र) के प्रायोजक हैं। इन्ही स्मृतियों को प्रधान स्मृतियाँ माना जाता है। इनके अतिरिक्त गोभिल, जमदग्नि, विश्वामित्र, प्रजापति, वृद्ध शातातप, पैठीनसि, आश्वलायन, पितामह, बौद्धायन, भरद्वाज, छागलेय, जाबालि, च्यवन, मरीचि, कश्यप आदि ऋषियों द्वारा रचित उपस्मृतियाँ भी हैं ।
कहीं कहीं यह मतभेद भी है की प्रधान स्मृतियाँ केवल दो हैं – याज्ञवल्कय और मनु , उपस्मृति अट्ठारह हैं और, औप स्मृतियाँ भी अट्ठारह हैं। प्राचीन काल में तीन प्रकार की स्मृतियाँ कल्पसूत्रों के सामान सूत्रकार में प्रचलित थीं। ऐसा कहा जाता है की मूल स्मृतिकारों ने स्मृति शास्त्र को सूत्रबद्ध ही बनाया था परन्तु बाद में सर्व साधारण के कल्याण के लिए उनकी शिष्य परम्परा ने स्मृतियों को श्लोकबद्ध कर दिया। अन्य उपदेशों के अतिरिक्त स्मृतियों में मानव आचार, कार्यकलाप तथा सामाजिक रिति का वर्णन किया गया है। कैसा व्यव्हार तथा आचरण व्यक्ति को लौकिक और पारलौकिक उन्नति की और अग्रसर कर सकता है और कैसे निषिद्ध कर्मों के त्याग से मनुष्य अधोगति से बच सकता है, यह सभी कर्म स्मृतियों में स्पष्ट रूप से वर्णित हैं।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता की समृतियों में वर्णित कुछ विषय वर्त्तमान समय में ना तो प्रासंगिक है न ही वांछित और यही हिन्दू सनातन धर्म की विशेषता है की यह समय के साथ अपना विकास करता रहता है।
इति स्मृतिशास्त्र।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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