हिन्दू धर्म में यज्ञ, हवन आदि कर्मों में दक्षिणा का प्रावधान क्यों है? कर्म सिद्धि के बाद दक्षिणा क्यों दी जाती है?
दक्षिणा यज्ञ की भार्या हैं। जैसे अग्नि की भार्या स्वाहा हैं (इसीलिए मंत्रौच्चार के बाद अग्नि को आहुति देते समय ‘स्वाहा’ का उच्चारण उनका आह्वान करने के लिए किया जाता है)
देवी दक्षिणा की उत्पत्ति भगवती लक्ष्मी के दाएँ कंधे से होने के कारण इनका नाम ‘दक्षिणा’ पड़ गया।
दक्षिणा यग्यशाली पुरुषों को कर्म का फल प्रधान करने वाली आदरणीय देवी है। दक्षिणा के बिना सम्पूर्ण प्राणियों के सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं। दक्षिणा के अभाव में ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा दिक्पाल प्रभृति सभी देवता दक्षिणा के ना रहने से कर्मों का फल देने में असमर्थ रहते हैं।
दक्षिणाहीन कर्म का फल नहीं लगता और दक्षिणा हीन कर्म बलि का आहार बन जाता है । वामन अवतार में स्वम श्री भगवान बलि के लिए आहार रूप में इसे अर्पण कर चुके हैं। आश्रोत्रिय और श्रद्धा विहीन व्यक्ति के श्राद्ध में दी हुई वस्तु को भी बलि भोजन के रूप में प्राप्त करते हैं।
विद्वान पुरुष को चाहिए कि शालिग्राम की मूर्ति या कलश पर आह्वान करके भगवती दक्षिणा का आह्वान करे और भगवती का ध्यान इस प्रकार करे –
” भगवती लक्ष्मी के दाहिने कंधे से प्रकट होने के कारण दक्षिणा नाम से विख्यात ये देवी साक्षात कमला की कला हैं । सम्पूर्ण यज्ञ – यागआदि में अखिल कर्मों का फल प्रदान करना इनका सहज गुण हैं । यह भगवान विष्णु की शक्तिस्वरूपा हैं। मैं इनकी आराधना करता हूँ ।”
अर्पण करते समय “ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं दक्षिणयाये स्वाहा” का जाप करना चाहिए।
।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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