Home 2019 February 27 श्राद्ध कर्म – भाग २ 

श्राद्ध कर्म – भाग २ 

श्राद्ध कर्म – भाग २ 

श्राद्ध कर्म – भाग २

  • श्राद्ध में काल का विचार क्यों किया जाता है तथा श्राद्ध केवल कृष्ण पक्ष अमावस्या में ही क्यों होते हैं
  • श्राद्ध कर्म में ब्राह्मण द्वारा किया गया भोजन पितरों तक कैसे पहुँचता है ?
  • अब यह प्रश्न हो सकता है कि, इस प्रकार श्राद्ध दान का उपयोग तभी तक होना चाहिये, जब तक परलोकगत आत्मा की मृत्युलोकमें पुनर्जन्म न हो गया हो। किन्तु जन्म हो जानेपर इन अन्न का क्या उपयोग है और ये सब अन्न उनको प्राप्त भी कैसे हो सकते है ?

श्राद्ध में काल का विचार क्यों किया जाता है तथा श्राद्ध केवल कृष्ण पक्ष अमावस्या में ही क्यों होते हैं

शास्त्रों में श्राद्धकाल के विचार के विषय में पितरो का निवासस्थान तथा पितृलोक का काल निर्धारण ही मुख्य कारण है । चन्द्रमण्डलमें रहने के कारण हमारा एक महीना पितृलोक का एक दिन है। इसी विचारके अनुसार हम लोगोंकी अमावस्या पितृलोक का मध्याह्न है और इसी कारण अमावस्या तिथि, उसके आस पास की तिथियाँ तथा अपराह्नकाल ही पितृभोजन देनेका अर्थात् श्राद्ध करने का मुख्य काल रूपसे निर्दिष्ट हुआ। है। मनुसंहिता में कहा गया है:-

कृष्णपक्षे दशम्यादौ वर्जयित्वा चतुर्दशीम् ।
श्रद्धे प्रशस्तास्तिथयो यथैता न तथेतराः ॥
युक्षु कुर्वन् दिनक्षेरक्षु सर्वान कामान समश्नुते।
अयुक्षु तु पितॄन् सर्वां प्रजां प्राप्नोति पुष्कलम् ॥
यथा चैवापरः पक्षः पूर्वोपक्षाद् विशिष्यते।
तथा श्राद्धस्य पूर्वाह्णदपराह्णो विशिष्यते ॥

चतुर्दशी को छोड़कर कृष्णपक्ष की दशमी से अमावस्यापर्यन्त तिथियाँ श्राद्धकार्य में जितनी प्रशस्त है, इतनी प्रतिपदादि तिथियाँ नही हैं। द्वितीया चतुर्थी आदि युग्मतिथि तथा भरणी रोहिणी आदि युग्मनक्षत्र में श्राद्ध करने से सर्व कामना सिद्ध होती है और तृतीया पञ्चमी श्रादि अयुग्मतिथि तथा अश्विनी कृतिकादि अयुग्म नक्षत्रमें श्राद्ध करनेसे उत्तम सन्तति प्रास होती है। श्राद्धके लिये शुक्लपक्षसे कृष्णपक्ष जिस-प्रकार विशेष फलदायक है, उसी प्रकार पूर्वाह्नसे अपराह्न भी विशेष फलदायक है। शतपथ २४२८ में :-

पूर्वाह्रो वैदेवानां मध्यंदिनो मनुष्याणाम्।
अपराह्वः पितॄणां तस्मादपराह्न ददति ॥

देवताओं का पूर्वाह्न, मनुष्यों का मध्याह्न और पितरोंका अपराह्न है, इसलिये अपराह्न में ही श्राद्ध करना चाहिये।

गरुड़ पुराणमें भी लिखा है:-

अमावास्यादिने मासे गृहद्वारे समाश्रिताः ।
वायुभूता प्रवाञ्छन्ति श्राद्धं पिपृगिणा तृणाम्॥
यावदस्तगतं भानोः क्षुत्पिपासासमाकुलाः।
ततश्चास्तं गते सूर्ये निराशा दुःखसंयुताः ॥
निःश्वसंतश्चिरं यान्ति गर्हयन्तः स्ववंशजम् ।
तस्माच्छ्राद्धं प्रयत्नेन अमायां कर्तुमर्हति ॥

अमावस्याके प्राप्त होनेपर पितर वायुरूप होकर श्राद्ध की अभिलाषासे घर के द्वार पर रहते हैं। जब तक सूर्य अस्त नही होता, तब तक भूख प्यास से व्याकुल हो कर ठहरते हैं । परन्तु सूर्यास्त हो जानेपर निराशा से दु:खी होकर और अपने वशजों को शाप देते हुए पीछे चले जाते है। इसीलिये अमावस्या में अवश्य श्राद्ध करना चाहिए है।

 

श्राद्ध कर्म में ब्राह्मण द्वारा किया गया भोजन पितरों तक कैसे पहुँचता है ?

श्राद्धकर्म मे कुटुंब भोजन तथा निकटस्थ “सद ब्राह्मण” भोजन का भी विधान है यथा:

सम्बन्धिनस्तथा सर्वान् दौहित्र विद्पतिन्तथा।
भागिनेर्य विशेषेण तथा बन्धून गृहाधिपान्॥
यस्त्वासन्नमतिक्रम्य ब्राह्मणी पतिताष्टते ।
दूरस्थं भोजयेन्यूढो गुणाढ्यं नरकं ब्रजेतू॥

सब कुटुम्बी विशेषकर दौहित्र, भगिनीपति, भागिनेय और गृहस्वामी के बन्धुवर्ग – ये ही सव श्राद्ध भोजन मे निमन्त्रण देनेके लिये प्रशस्त है क्योंकि इन्ही कुटुम्बियों का पितरों के साथ मानसिक निकटस्थता होती है। ब्राह्मणों में भी भी निकटस्थ सद ब्राह्मण को ही भोजन करवाना चाहिए, जो श्राद्धतर्पण में निकटस्थ उत्तम ब्राह्मण को छोड़कर दूरस्थ ब्राह्मण को भोजन कराता है, वह नरकगामी होता है ।

श्राद्धकर्म में मित्रों को भी भोजन कराया जा सकता है परन्तु शत्रुओं को कभी नहीं क्योंकि शत्रुके साथ मानसिक मेल न होने के कारण उससे परलोकगत आत्माका कोई कल्याण नही होता है। इसी कारण मनुसंहिता के तृतीयाध्याय में लिखा है:

कामं श्राद्धेऽर्चयेन्मित्रं नाभिरूपमपि त्वरिम् ।
द्विषता हि हृविर्भुक्तं भवति प्रेत्य निष्फलम् ॥

कुटुम्वभोजन की तरह ब्राह्मण-भोजनकी जो महिमा श्राद्ध कर्म के रूप से शास्त्रों मे बताई गई है, उसके भी मूल मे मन:शांति का ही रहस्य है:

निमन्त्रितान्तु पितर उपतिष्ठन्तितान् द्विजान्।
वायुवचानुगच्छन्ति तथाऽऽसीनानुपासते ॥

परलोकगत पितर या आत्मा निमन्वित ब्राह्मणोके शरीरोंमे वायुशरीर धारण करके समाविष्ट होते हैं, इनका अनुगमन करते है तथा इनके बैठनेपर बैठते है । इस प्रकार ब्राह्मणी के साथ ब्राह्मणों के द्वारा परलोकगत आत्मा का श्राद्धकाल में भोजन भी मनु ने बताया है।

पद्मपुराण सृष्टि खंड के अध्याय ३३ मे स्पष्ट ही लिखा है कि, भगवान् रामचन्द्र जब पिता दशरथजी का श्राद्ध करके ब्राह्मण भोजन करा रहे थे, तो सीता माता ब्राह्मणो के साथ श्वसुर दशरथ जी को बैठा देखकर लज्जित हो कर छिप गई थी ।

‘पिता तव मया दृष्टी ब्राह्मणाङ्गषु राघव।’

इसलिये यह बात निश्चय है कि, श्राद्ध भोजी ब्राह्मण यदि तपस्वी और संयमी होंगे तभी प्रेतसमाविष्ट श्रद्धांन को पचा सकेंगे और भोजन परितृप्त होकर आशीर्वाद तथा मन्त्रशक्ति ओर तपःशक्ति प्रदान द्वारा परलोकगत आत्माका कल्याण कर सकेंगे । अन्यथा असयमी ब्राह्मण को श्राद्धमें भोजन देनेसे पितर या प्रेत का तो कोई कल्याण होता ही नहीं, अधिकन्तु प्रेतसमावेश द्वारा श्राद्धभोजी अधम ब्राह्मण की और भी अधोगति होती है।

अत: श्राद्धतर्पण में उत्तम ब्राह्मण को ही भोजन करवाना चाहिए। इसीलिए यह भी कहा गया है:

श्रोत्रियायैव देयानि हव्यकव्यानि दातृभिः ॥
अर्हत्तमाय विप्राय तस्मै दत्तं महाफलम् ॥
एकैकमपि विद्बांसं दैवे पिघ्ये च भोजयेत्।
पुष्कलं फलमाप्नोति नामन्त्रज्ञान् बहूनपि !
सहस्रं हि सहस्राणामृच्छृचां यत्र भुञ्जते ।
एकस्तान् मन्त्रवित् प्रीतः सर्वानर्हति धर्मतः।

पूज्यतम श्रोत्रिय ब्राह्मणोंको ही हव्य कव्य प्रदान करना चाहिये । क्योंकि इनको देने से ही महा फल लाभ होता है। दैव या पितृकर्म में इस प्रकार एक विद्वान को भोजन कराने पर भी यथेष्ट फल लाभ होता है, किन्तु वेदज्ञान हीन अनेक ब्राह्मणोंको भोजन करानेपर भी कुछ फल नही मिलता है। वेदज्ञान हीन दश लक्ष ब्राह्मण जिस श्राद्ध में भोजन करें वहाँ यदि वेदज्ञ एक ब्राह्मण भी भोजन द्वारा तृप्त किया जाय तो धर्मतः एक से दश लक्ष का काम हो जाता है।

अतः श्राद्धकृत्य में मनःशक्ति प्रयोग सिद्ध है । गृहस्थोंकी तरह संसारत्यागी सन्यासी भी मनोबल तथा आत्मबल द्वारा अपने वंशज पितरों का कल्याण करते हैं और उनकी आध्यात्मिक उन्नति में विशेष सहायता करते है। किन्तु उनके मन तथा आत्मा में विशेष शक्ति होनेके कारण उन्हें गृहस्थोंकी तरह स्थूल श्राद्ध विधियों का आश्रय लेना नही पड़ता है। वे मृत पितरो को स्मरण करके मनोबल तथा आत्मबल द्वारा सूक्ष्म रूप से ही सब कुछ कर देते है।

 

अब यह प्रश्न हो सकता है कि, इस प्रकार श्राद्ध दान का उपयोग तभी तक होना चाहिये, जब तक परलोकगत आत्मा की मृत्युलोकमें पुनर्जन्म न हो गया हो। किन्तु जन्म हो जानेपर इन अन्न का क्या उपयोग है और ये सब अन्न उनको प्राप्त भी कैसे हो सकते है ?

इस प्रश्न का उत्तर यह है कि, श्राद्ध संकल्प प्रधान तथा मनःशक्ति प्रधान होने से सूक्ष्म जगत में संकल्प शक्ति द्वारा पितरों की तृप्ति और जन्म हो जाने पर भी उसी जन्म में आध्यात्मिकादि उन्नति का कारण बनता है । इस विषयमें हेमाद्रिमें उत्तम प्रमाण मिलता है:

देवो यदि पिता जातः शुभकर्मानुयोगतः ।
तस्यान्नममृतं भूत्वा देवत्वेऽप्यनुगच्छति ॥
गान्धर्वे भोगरूपेण पशुत्वे च तुर्ण भवेत् ।
श्राद्धान’ वायुरूपेण नागत्वेऽप्यनुगच्छति ॥
पानं भवति यक्षत्वे राक्षसत्वे तथामिषम् ।
दानचत्वे तथा मांस प्रेतत्वे रुधिरोदकम्।
मानुषत्वेऽन्नपानादिनानाभोगरसो भवेत् ॥

पिताने यदि शुभकर्म के द्वारा देवयोनिको प्राप्त किया है, तो उनके निमित दिया हुआ श्रद्धांश अमृतरूप होकर उन्हें मिलेगा। इसी प्रकार गन्धर्वयोनि में भोगरूप से, पशुयोनि में तृणरूप से, नागयोनि में वायु रूपसे, यक्षयोनि में मद्य रूप से, राक्षसयोनिमें आमिष रूप से, दानवयोनि में मांस रूप से, प्रेतयोनि में रुधिर रूप से और मनुष्ययोनि में अन्नादि विविध भोज्यरूप से श्राद्धान्न प्राप्त होता है ।

इन प्रमाणोसे स्पष्ट होता है कि, संकल्पित पदार्थ तथा संकल्प शक्ति के द्वारा सभी योनियों में जीवों को शांति तथा उन्नति मिल सकती है। अतः श्राद्ध कर्म एक सर्वांग मंगलमय, तथा महान कर्म है इसमें कोई सन्देह नही है । इस कर्म के द्वारा नियमित रूप से सम्वर्द्धित होनेपर पितृगण प्रसन्न होकर गृहस्थोको क्या क्या देते हैं, इस विषय में मार्कण्डेयपुराण में लिखा है:

आयु: प्रजा धनं विद्यां स्वर्ग मोक्ष सुखानी च।
प्रच्छयन्ति तथा राज्यं पितरं श्राद्ध तर्पित: ।। (३२। ३५)

श्राद्ध तृप्त पितृगण श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, संतति, धन, विद्या, सुख, राज्य, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करते हैं।

।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।

Author: मनीष

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