श्राद्ध तर्पण क्यों किया जाता है? क्या श्राद्ध तर्पण वेद सम्मत नहीं है? पिंड दान या ब्रह्मभोज के द्वारा अर्पित किया हुआ अन्न और जल पितरों तक कैसे पहुँचता है ?
श्राद्ध तर्पण के विषय में भी अनेकों भ्रांतियां विद्यमान है। इस विषय में निम्न प्रश्नो के द्वारा यह प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है की श्राद्ध अत्यंत निंदनीय कृत्य है :
- श्राद्ध तर्पण वेद सम्मत कर्म नहीं है ?
- ब्राह्मणो द्वारा खाया गया अन्न पितरों तक कैसे पहुँच सकता है ?
- पुनर्जन्म के उपरांत श्राद्ध कर्म में अर्पित हुए अन्न का क्या औचित्य है और पुनर्जन्म पश्च्यात वह अन्न पितरों को कैसे प्राप्त हो सकता है?
विषय की व्यापकता के कारण हम इस विषय को दो भागों में विभक्त कर रहे हैं। आज के इस लेख में हम श्राद्ध कहते किसको हैं? तथा क्या श्राद्ध वेद सम्मत है? का उत्तर दे रहे हैं। अगले लेख में हम अन्य प्रश्नो का समाधान करने का प्रयास करेंगे।
श्राद्ध कहते किसको हैं ?
नित्यकर्म के का एक अंग श्राद्धतर्पण भी है । श्राद्ध किसको कहते है इस विषयमें महर्षि पराशर ने कहा है:
देशे काले च पात्रे च विधिना हविषा च यत ।
तिलैर्दर्भैश्च मन्त्रैश्च श्राद्धं स्याच्छ्रद्धया युतम् ॥
देश काल पात्र विचार से हविष्यादि विधिके साथ श्रद्धायुक्त होकर तिल, दर्भ, मन्त्रोकी सहायतासे जो कृत्य किया जाता है, उसका नाम श्राद्ध है।
मरीचि ऋषिने भी कहा है-
प्रेतान् पितॄंश्च निर्दिश्य भोज्यं यत् प्रियमात्मनः।
श्रद्धया दीयते यत्र तच्छ्राद्धं परिकीर्त्तितम् ॥
भूत तथा पितरों के लिए अपना प्रिय भोजन श्रद्धा के साथ जिस कर्म में दिया जाता है उसे श्राद्ध कहते है ।
इस प्रकार कृत्यका फल क्या होता है इस विषयमें मनुसंहिताके तृतीयाध्यायमे लिखा हैं
यद् यद् ददाति विधिवत्सम्यक श्रद्धासमन्वितः।
तत्तत् पितॄणां भवति परत्रानन्तमक्षयृम्॥
विशेष श्रद्धासे युक्त होकर विधिके साथ पितरों को जो कुछ भी अर्पित दिया जाता है उससे परलोकमें उनकी अक्षय तृप्ति होती है।
श्राद्ध कर्म के मूल मे श्रद्धा और कृतज्ञता का ही मधुर भाव प्रधान है । जिन पितरोंकी कृपा से दुर्लभ मुक्तिप्रद मनुष्य देह मिला, जिनके हृदय के अमृत से हमारा पालन पोषण हुआ, संसार का सुन्दर मुख देखने की मिला, जिन्होंने स्वयं कष्ट सहकर हमे इस मृत्युलोक में उन्नत किया, उनके प्रति कृतज्ञ न होना, परलोकमें उनकी प्रसन्नता, तृप्सि, शान्ति तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिये यथाशक्ति अनुष्ठान न करना और उनकी आत्मा को स्मरण न करना केवल मनुष्य भाव से ही अधम नही, बल्कि पशुभावसे भी अधमाधम महापराध है, इसमें कोई संशय नही है। इसीलिये समस्त शास्त्रों में सभी पापों से कृतघ्नता को अति अधम पाप कहा गया है। यथा:
नास्तिकस्य कृतघ्नस्य धर्मोपेक्षारतस्य च ।
विश्वासघातकस्यापि निष्कृतिनैंव सुत्रते ॥
नास्तिक, कृतघ्न, धर्मके प्रति सदा उपेक्षापरायण और विश्वास घात करने के पाप की निष्कृति नही है ।
यही कारण है कि अपनी अपनी धार्मिक स्थिति तथा अधिकार के अनुसार अन्य धर्मों के अंदर भी किसी ना किसी रूप में श्राद्धकृत्य की तरह अनेक कृत्य किये जाते हैं । Christianity को मानने वाले विशेष कर कैथलिक सम्प्रदाय के लोग अपने पिता, माता, भ्राता, पत्नी, पति और पुत्र, कन्या आदि सम्बन्धियों के समाधिस्थान में जाते हैं और कब्र या समाधि के ऊपर फूल बरसाते हैं, शोक करते हैं तथा ईश्वरके निकट मृत -व्यक्तियों के लिये अक्षय स्वर्गकी प्रार्थना करते हैं ।
मुस्लिम संप्रदाय में भी मृत-व्यक्ति की समाधि के समीप ईश्वरसे प्रार्थना करना तथा कुरान पढ़ना विशेष सत्कार्य कहकर प्रशंसित है और ऐसा करना मृत- व्यक्ति की भी सद्गति के लिये सहायक समझा जाता है, इसी भाव के आधार पर कब्र पर बड़े बड़े चबूतरे या भवन इत्यादि बनवाये हैं । बौद्ध अनुयायियों में भी अधिकता के साथ श्राद्धकृत्य किया जाता है। उनमें आद्य श्राद्ध, नवमासिक श्राद्ध, वार्षिक श्राद्ध आदि अनेक प्रकार के श्राद्ध प्रचलित हैं। बौद्ध अनुयायिओं में यह मत प्रचलित है जो कुछ भोजन वस्त्र आदि दिया जाता है वह साक्षांत पितृपुरुष की जीवात्मा को ही दिया जाता है।
अतः मृत पितरों को विशेष श्रद्धा से युक्त होकर, विधि के साथ, परलोक में उनकी अक्षय तृप्ति के भाव से, उनके प्रति अपनी कृतघ्नता प्रकट करने जो कुछ भी अर्पित दिया जाता है उसे श्राद्ध कर्म कहा जाता है। हिन्दू धर्म के अतिरिक्त अन्य सभी सम्प्रदायों में भी यह कर्म किसी ना किसी रूप में उपस्थित है।
क्या श्राद्ध कर्म वेद अनुमोदित कर्म है ? या वेदों में श्राद्ध कर्म की निंदा की गयी है ?
वेदों में परलोक में स्थित पितर तथा नित्य पितरोंका आवाहन, श्राद्धादि द्वारा उनकी उन्नति आदि के विषयमें अनेक प्रमाण मिलते हैं । कठोपनिषद के नाचिकेत उपाख्यान वर्णन में कहा गया है:-
य इमं परमं गुह्य’ श्रावयेद् ब्रह्मसंसदि ।
प्रयतः श्राद्धकाले वा तदानन्त्याय कल्पते।
अति गूढ़ नचिकेत उपाख्यान को ब्रह्मनिरत पुरुर्षों की सभा में तथा श्राद्ध समय में संयत होकर सुनने से अनन्त फल की प्राप्ति होती है। पिण्डोपनिषद्में लिखा है:-
देवता ऋषयः सर्वे ब्रह्माणमिदमब्रुवन् ।
मृतस्य दीयते पिण्ड: कार्थं गृह्णन्त्यचेतसः ॥
भिन्ने पञ्चात्मके देहे गते पञ्चसु पञ्चधा ।
हंसस्त्यक्तवा गतो देहं कस्मिन् स्थाने व्यवस्थितः ॥
देवता तथा ऋषियों ने भगवान ब्रह्मा से पूछा कि,मृत पितरों को जो श्राद्धमें पिण्ड दिया जाता है, वे कैसे उसको ले सकते हैं और पश्चभूतात्मक देह जब भूतपञ्चक में मिल जाता है, तो जीवात्मा और सूक्ष्मशरीर का निवास कहाँ होता है।
अथर्ववेदमें लिखा है:-
ये निखाता ये परोसा ये दग्धा ये चोद्धिता:।
सर्वस्तानग्न आवह पितृहनविषे अतवे। (१-२४)
हे अग्ने ! जो पितर गाड़े गये, जो पड़े रह गये, जो अग्नि में जला दिये गये और जो फेंके गये, उन सबको हविर्भक्षणके लिये बुला लाओ।
श्राद्धके लक्षण के विषय में महर्षि पराशर तथा मरीचि के जो वचन उद्धृत किये गये हैं, उनसे भी श्राद्धकर्म के साथ पितरो का ही स्पष्ट सम्बन्ध प्रमाणित होता है। । यर्जुर्वेद के १६- ३७ और १६-४५ में लिखा है
ये चेह पितरो ये च नेहयांश्च विद्मयां।
उ च न प्रविद्म त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः
स्वधाभिर्यज्ञं सुकृतं जुषस्व ॥
जो पितर इस लोकमें है, जो इस लोक में नही हैं, जिनको हम जानते है ओर जिनको नहीं जानते, हे सर्वज्ञ अग्ने ! उनको तुम जानते हो, सो आप पितरों के अन्न से शुभ यज्ञ का सेवन करो।
आयन्तु नः पितरस्सोम्यासोऽग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः ।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधिब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्॥
हमारे पितर देवताओंके गमनयोग्य मार्ग से आकर, इस यज्ञ में अन्न से प्रसन्न होकर बोलें और हमारी रक्षा करें।
इसी प्रकार अथर्ववेद के १८।४। ८० और ७६ में लिखा है:-
स्वधा पितृभ्यः पृथिवीषद्भ्यः स्वधा पितृभ्यः ।
अन्तरिक्षषद्भ्यः स्वधा पितृभ्यो दिविषद्भ्यः ॥
जो-पितर पृथिवीमें है उनके लिये, जो अन्तरिक्ष में हैं उनके लिये और जो स्वर्गमें है उनके लिये स्वधा काव्य देता हूं।
ये अग्निदग्धा ये अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
त्वं तान् वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधया यज्ञं स्वधिर्तिं जुषन्ताम् ॥
जो अग्नि में दग्ध हुए और अग्नि में दग्ध नही हुए द्द्लोक के मध्य में अमृत रूप अन्न से प्रसन्न है, हे अग्ने ! तुम उनको जानते हो, वे तुम्हारे द्वारा अन्न सेवन करें। इस प्रकार से वेद में पितरों के बुलाने के प्रमाण मिलते है।
इन सब प्रमाण के द्वारा यह सिद्ध होता है कि श्राद्धकृत्य वेदानुमोदित वैदिक कृत्य है और मृत पितरो के ही श्राद्ध तर्पण होते हैं,से जीवित पितरों के नही, जैसा कि, कहीं कहीं भ्रान्ति से कल्पना की जाती है। अतः महाभारत के एक श्लोक का आश्रय लेकर यह प्रमाणित करने का प्रयास करना की श्राद्ध कर्म शास्त्र सम्मत नहीं है उचित नहीं है।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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