मृत्यु पश्चात पापी और पुण्य आत्माओं की यमलोक की यात्रा किस प्रकार होती है?
यह क्षण भंगुर संसार चक्र जीवन मरण के प्रवाह रूप से अजर है, निरंतर चलते रहने वाला है । कभी स्थिर नहीं रहता। जन्म के उपरांत मनुष्य बाल्यकाल, कौमार्यवस्था, यौवनावस्था और वृद्धावस्था में प्रवेश करता है। इसके पश्चात मृत्यु को प्राप्त होता है और मृत्यु के बाद फिर जन्म लेता है और इस प्रकार संसार चक्र में घूमता रहता है। पाप और पुण्यों के प्रभाव से जीव कभी स्वर्ग में जाता है कभी नर्क में। कभी इस संसार में पुनःजन्म ले कर अपने कर्मों को भोगता है।
जीवन में किए गए सदकर्मों से यदि स्वर्ग में पहुँच भी जाता है तो भी उसे इस बात की ही चिंता लगी रहती है की पुण्यों के अंत हो जाने पर तो स्वर्ग से नीचे गिरना ही पड़ेगा, क्योंकि स्वर्ग की प्राप्ति अनंत काल तक नहीं रहती, वह जीव के पुण्य कर्म समाप्त होने पर स्वतः ही समाप्त हो जाती है और व्यक्ति को पुनः जन्म- मृत्यु के चक्र में फँसना पड़ता है। गर्भअवस्था में तो भारी दुःख होता ही है, बाल्यकाल और वृद्धावस्था में भी दुःख ही दुःख भोगने पड़ते हैं। यौवनावस्था में भी काम, क्रोध और ईर्ष्या में बँधे रहने के कारण अत्यंत दारुण कष्ट उठाने पड़ते हैं।
मृत्यु के समय शरीर में जो गरमी या पित्त है वह तीव्र वायु से प्रेरित हो कर अत्यंत कुपित हो जाती है और शरीर के मर्म स्थानों को विदीर्ण कर देती है। उसके पश्चात उदान नामक प्राण वायु ऊपर की और उठती है और खाए पिए हुए अन्न और जल को नीचे की और जाने से रोक देती है।
जो मनुष्य आस्तिक तथा श्रद्धालु है, जिन्होंने कामना से, क्रोध से अथवा द्वेष के कारण धर्म का त्याग नहीं किया और जो उदार, दानी और लज्जा शील होते हैं उन्हें उस मृत्यु रूपी प्राणघातिनि अवस्था में भी प्रसन्नता रहती है तथा उनकी मृत्यु सुख से होती है।
इसके विपरीत, द्रोही, अत्याचारी, लोभी, भोगी और अज्ञानी मनुष्यों को भारी दुःख भोगना पड़ता है और वे मूर्छाग्रस्त हो कर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। ऐसे पापी जीवों की मृत्यु के समय यमराज के दुष्ट दूत हाथों में खड़ग और मुदगर किए आते हैं। वे बड़े भयंकर होते हैं और उनकी देह से दुर्गन्ध निकलती रहती है।
उन यमदूतों पर दृष्टि पड़ते ही मनुष्य काँप उठता है और पिता, माता, भ्राता और पुत्रों का नाम ले कर बार बार चिल्लाने लगता है। उस समय उसकी वाणी स्पष्ट समझ नहीं आती, भय के मारे उसकी आँखें झूमने लगती हैं और उसका मुख सूख जाता है। उसकी साँस ऊपर को उठने लगती है, दृष्टि की शक्ति नष्ट हो जाती है और वह अत्यंत वेदना से पीड़ित हो कर शरीर को छोड़ देता है और वायु के सहारे चलता हुआ वैसे ही दूसरे शरीर को धारण कर लेता है जो रूप रंग और अवस्था में पहले शरीर के समान ही होता है। वह शरीर कर्मजनित होता है और केवल यातना भोगने के लिए ही प्राप्त होता है। उस यातनामय शरीर के जलाए जाने पर उसे भी अत्यंत दाह का अनुभव होता है तथा मारे और काटे जाने पर भी अत्यंत भयंकर वेदना होती है। इस प्रकार दूसरे शरीर को प्राप्त पर भी पाप पीड़ित आत्मा को कर्मों के फलस्वरूप कष्ट भोगने पड़ते हैं।
तदांतर यमदूत उसे शीघ्र ही भयंकर पाशों से बाँध लेते हैं और डंडों की मार से व्याकुल करते हुए दक्षिण दिशा की और खींच कर ले जाते हैं। उस मार्ग पर कहीं काँटे फैले होते हैं, कहीं कीलें गाड़ी होती हैं और कहीं पथरीली भूमि होने के कारण वह पथ अत्यंत कठोर जान पड़ता हैं। कहीं जलती हुई आग की लपटें मिलती हैं और कहीं सैकड़ों गड्ढे। कहीं सूर्य इतने तपते हैं कि उस राह से जाने वाला जीव किरणो से तप कर जलने लगता है। ऐसे दुर्गम पथ से यमदूतों उसे घसीटते हुए ले जातें हैं और घोर शब्द करने के कारण अत्यंत भयंकर जान पड़ते हैं। उनकी घुड़कियों से उसका हृदय फटने लगता है और शरीर काँपने लगता है, वह जहाँ तहाँ मूर्च्छित होकर गिर जाता है और यमदूत उस पर कोड़े बरसाकर पुनः चलने के लिए विवश कर दते हैं।
इस प्रकार अनेक के दुःख भोगता हुआ पाप पीड़ित जीव बारह दिनो में धर्मराज के नगर तक पहुँचाया जाता है। उन बारह दिनो में जीव निरंतर अपने अपने घर की तरफ़ देखता रहता है। उस समय पृथ्वी पर उसके निमित्त जो जल और पिंड दिए जाते हैं, वह उन्ही का उपभोग करता है। बारह दिनो के पश्चात यमपुरी की और खींच कर ले जाने वाला जीव अपने सामने यमराज के नगर को देखता है, जो बड़ा ही भयानक है। वहाँ पहुँचने पर उसे यमराज से समक्ष उपस्थित किया जाता जो कज्जलराशि के समान काले हैं और अत्यंत क्रोध के कारण उनकी आँखें रक्त से समान लाल है । टेढ़ी भवों और दाढ़ों के कारण वे अत्यंत ही कुरूप और भयंकर जान पड़ते हैं। उनके एक हाथ में यमदंड और दूसरे हाथ में पाश है। पापी जीव उन्ही बताई हुई शुभ अशुभ गति को प्राप्त होता है और पापों के क्षय के लिए रौरव, महा रौरव, तमिस्त्र, अंध तमिस्त्, तम, निकरंतन, अप्रतिष्ठ, असिपत्रवन, तप्तकुम्भ इत्यादि अत्यंत भयंकर नर्कों में एक पाप से दूसरे पापों की निर्वर्ति के लिए भेजा जाता है। इस प्रकार सब नर्कों में यातना भोगने और पापों के क्षय के बाद पापी तिर्यगयोनि में जन्म लेता है और पुण्य कर्मों के आधार पर क्रमशः मनुष्य, इंद्र तथा देवता आदि रूपों में जन्म लेता है।
इसके विपरीत पुण्यात्मा मनुष्य धर्मराज की बतायी हुई पुण्यमय गति को प्राप्त होते हैं। उनके साथ गंधर्व गीत गाते चलते है, अप्सराएँ नृत्य करती हैं और वे विभिन्न प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित हो कर दिव्य विमानों पर यात्रा करते हैं तथा स्वर्गलोक में आनंद भोगते है। पुण्यों के क्षीण होने पर वो वापस पृथ्वी पर आते है और राजा और महात्माओं के कुल में जन्म लेते है। ऊपर के लोकों की और होने वाली गति को आरोहिणी कहते हैं और वहाँ से पुण्य भोग के पश्चात पुनः पृथ्वी लोक में उतरने को अवरोहिणी गति कहते हैं।
।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
(संदर्भ – मार्कण्डेय पुराण तथा श्रीमद् भागवतमहापुराण)
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