Home 2019 February 27 सनातन धर्म में काल विभागों तथा चतुर्युगों का विभाजन

सनातन धर्म में काल विभागों तथा चतुर्युगों का विभाजन

सनातन धर्म में काल विभागों तथा चतुर्युगों का विभाजन

पृथ्वी आदि कार्यवर्ग का जो सूक्षतम अंश है जिसका और विभाग नहीं हो सकता तथा जो कार्यरूप को प्राप्त नहीं हुआ है उसे ‘परमाणु’ कहते हैं। दो परमाणु मिलने से एक ‘अणु’ होता है और तीन अणुओं के मिलने से एक ‘त्रिसेणु’ होता है, जिसको झरोखे में से आयी हुई सूर्य की किरनो के प्रकाश में आकाश में उड़ते हुए देखा जा सकता है । ऐसी तीन त्रिसेणुओं को पार करने में सूर्य की किरणो को जितना समय लगता है, उसे ‘त्रुटि’ कहते हैं।

त्रुटि का सौ गुना काल ‘वेध’ कहलाता है और तीन वेध का एक ‘लव’ होता है। तीन लवों के एक ‘निमेष’ और तीन निमेष को एक ‘क्षण’ कहते हैं। पाँच क्षण की एक ‘काष्ठ’ होती है और पंद्रह काष्ठ का एक ‘लघु’। पंद्रह लघु की एक ‘नाडिका’ और दो नाडिका का एक ‘मुहूर्त’ होता है । दिन के घटने बढ़ने के साथ छः या सात नाडिका का एक ‘प्रहर’ होता है। यह याम भी कहलाता है , जो मनुष्य के दिन या रात का चौथा भाग होता है।

चार चार प्रहर के मनुष्य के दिन और रात हैं और पंद्रह दिन-रात का एक पक्ष होता है, जो शुक्ल और कृष्ण भेद से दो प्रकार का माना गया है । इन दोनो पक्षों को मिला के एक मास होता है जो पितरों का एक दिन रात होता है।

दो मास का एक ‘ऋतु’ और छः मास का एक ‘अयन’ होता है। अयन ‘दक्षिणायन’ और ‘उत्तरयाण’ भेद से दो प्रकार का होता है । ये दोनो अयन मिल कर देवताओं के एक दिन रात होते हैं तथा मनुष्य लोक में ये ‘ वर्ष’ या बारह मास हैं। मनुष्य की परम आयु सौ वर्षों की बतायी गयी है।

सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलि – ये चार युग अपनी संध्या और संध्यांशो के सहित देवताओं के बारह सहस्त्र वर्ष तक रहते हैं। इन चारों युगों में क्रमश: चार, तीन दो और एक सहस्त्र वर्ष होते हैं उससे दुगने संध्या और सध्यांशो में होते हैं ।

सतयुग में 4000 दिव्य वर्ष युग के और 800 संध्या और संध्यांश के इस प्रकार 4800 वर्ष होते हैं। इसी प्रकार त्रेता में 3600, द्वापर में 2400 और कलियुग में 1200 दिव्य वर्ष होते हैं। मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन होता है, अत: देवताओं का एक वर्ष मनुष्यों के 360 वर्ष के बराबर हुआ। इस प्रकार मनुष्य वर्ष की गणना से कलियुग में 432000 वर्ष हुए।

प्रत्येक युग में एक एक विशेष धर्म का विधान पाया जाता है। सतयुग में मनुष्य में धर्म अपने चारों चरणों ( तप, पवित्रता, दया और सत्य) से रहता है ; अन्य युगों में अधर्म की वृद्धि होने से उसका एक एक चरण क्षीण होता जाता है। अर्थात अधर्म के अंश गर्व, आसक्ति और मद से तीन चरण तप, पवित्रता और दया नष्ट हो चुके हैं और कलियुग में अधर्म सत्य को भी नष्ट करना चाहता है। कलियुग की प्रार्थना स्वीकार करके राजा परीक्षित ने उसे रहने के लिए धूत, मद्यपान, स्त्रीसंग, हिंसा और सुवर्ण (धन) स्थान दिए थे जहाँ क्रमशः झूठ, मद, काम, वैर रजोगुण निवास करते हैं।

ब्रह्मा जी का मृत्यु लोक के एक सहस्त्र चतुर्युगि का एक दिन होता है और इतनी ही बड़ी एक रात्रि होती है। उस रात्रि का अंत होने पर इस लोक काल कल्प आरम्भ होता है जिसका क्रम जब तक ब्रह्मा जी का दिन होता है तब तक चलता रहता है । उस कल्प में चौदह मनु हो जाते हैं। प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगि से कुछ अधिक काल तक अपना अधिकार भोगता है।

ब्रह्मा जी के प्रतिदिन की सृष्टि में तीनों लोकों की रचना होती है । उसने अपने कर्मानुसार पशु-पक्षी, मनुष्य, पितर और देवताओं की उत्पत्ति होती है ।काल क्रम से जब ब्रह्मा जी का दिन बीत जाता है, तब वे अपने तमोगुण के सम्पर्क को स्वीकार कर निशचेष्ट भाव से स्थिर हो जाते हैं। उस समय सारा विश्व उन्ही में लीन हो जाता है। जस सूर्य और चंद्रमा से रहित प्रलय रात्रि आती है तब भू:, भुव: और सवः – तीनों लोक ब्रह्मा जी के शरीर में विलीन हो जाते हैं। इस प्रकार काल के गति से एक एक सहस्त्र चतुर्यग के रूप में प्रतीत होने वाले दिन रात के फेर से ब्रह्मा जी कि परम आयु सौ वर्ष की है । ब्रह्मा जी की आयु के आधे पराध्र कहते हैं। अभी तक पहला पराध्र बीत चुका है। यह दो पराध्र का काल अव्यक्त, अनन्त, अनादि, विश्वात्मा श्रीहरी का एक निमेष माना जाता है ।

।।ॐ नमो भगवते वसुदेवाय:।।

 

Author: मनीष

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *