अक्षर ब्रह्म – पर ब्रह्म – परमात्मा
अक्षर ब्रह्म – पर ब्रह्म – परमात्मा
सनातन धर्म में ‘ब्रह्म’ की अवधारणा उस परमसत्ता के रूप में है, जो सर्वातिशायी, सर्वसमर्थ, सर्वत्र विद्यमान रहने वाली सर्वोच्च शक्ति है।
ब्रह्म इस सारे विश्व का परम सत्य है और जगत का सार है। वह दुनिया की आत्मा है। वह विश्व का कारण है, जिससे विश्व की उत्पत्ति होती है, जिस पर विश्व आधारित होता है और अन्त में जिसमें विलीन हो जाता है। वह एक और अद्वितीय है। वो स्वयं ही परमज्ञान है और प्रकाश-स्रोत की तरह रोशन है। वह निराकार, अनन्त, नित्य और शाश्वत है। ब्रह्म सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है।
परब्रह्म या परम-ब्रह्म ब्रह्म का वह रूप है, जो निर्गुण और अनन्त गुणों वाला भी है। “नेति-नेति” करके इसके गुणों का खण्डन किया गया है, परंतु असल में अनन्त सत्य, अनन्त चित और अनन्त आनन्द है। अद्वैत वेदान्त में उसे ही परमात्मा कहा गया है, ब्रह्म ही सत्य है, बाकि सब मिथ्या है। वह ब्रह्म ही जगत का नियन्ता है। परन्तु अद्वैत वेदांत का एक मत है इसी प्रकार वेदांत के अनेक मत है जिनमें आपसी विरोधाभास है परंतु अन्य पांच दर्शन शास्त्रों में कोई विरोधाभास नहीं है। वहीं अद्वैत मत कहता है –
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रम्हैव नापरः अर्थात ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है।
उस ‘परब्रह्म’को ही अनेक नामों से अभिहित किया गया है- परमात्मा, परमेश्वर, ब्रह्म, भूमा, परमचैतन्य, अक्षरब्रह्म (ओंकार) इत्यादि ।
परब्रह्म का अक्षरात्मक स्वरूप ‘ओंकार”प्रणव’ के रूप में उपनिषद आदि ग्रन्थों में सर्वत्र प्राप्त होता है। तात्त्विक दृष्टि से देखा जाय, तो ‘ब्रह्म’अक्षर है, ‘न क्षरति इति अक्षर: ‘ जिसका क्षरण- विनाश नहीं होता है, वह ‘ अक्षर’ है।
इस दृष्टि से ‘अक्षर’ शब्द ब्रह्म की विशिष्टता का बोधक हुआ। वैसे अक्षरात्मक वर्णात्मक ब्रह्म के रूप में ‘ॐ’ प्रणव को स्वीकार किया जाता है, उदाहरण के लिए –
अक्षरं परमं पदम् ,
अक्षरं परमं ब्रह्म निर्विशेषं निरंजनम् ,
अक्षरं ब्रह्मपरमं,
अक्षरोऽहमोङ्कारोऽमरोऽभयोऽअमृतो ब्रह्माभयं हि वै।
इन प्रकार अक्षर ब्रह्म-ओंकार-प्रणव-आत्मा आदि सभी एक ही तत्त्व के प्रतिपादक हैं।
अक्षर ब्रह्म का विस्तार से विवेचन माण्डूक्य उपनिषद् में इस प्रकार उपलब्ध है:
ॐ इत्येतदक्षरमिदꣳ सर्वं तस्योपव्याख्यानं
भूतं भवद् भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव
यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥ १॥
‘ॐ’ – यह अक्षर ही सर्व है । सब उसकी ही व्याख्या है । भूत, भविष्य, वर्तमान सब ओंकार ही हैं । तथा अन्य जो त्रिकालतीत है, वह भी ओंकार ही है ॥१॥
सर्वं ह्येतद् ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात् ॥ २॥
यह सब कुछ ब्रह्म ही है । यह आत्मा भी ब्रह्म ही है । ऐसा यह आत्मा चार पादों वाला है ॥२॥
जागरितस्थानो बहिष्प्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः
स्थूलभुग्वैश्वानरः प्रथमः पादः ॥ ३॥
जाग्रत् जिसका स्थान है, बाहर की ओर जिसकी प्रज्ञा है, सात अंगों वाला, उन्नीस मुखों वाला, स्थूल विषय का भोक्ता, वैश्वानर ही प्रथम पाद है ॥३॥
स्वप्नस्थानोऽन्तःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः
प्रविविक्तभुक्तैजसो द्वितीयः पादः ॥ ४॥
स्वप्न जिसका स्थान है, अन्दर की ओर जिसकी प्रज्ञा है, सात अंगों वाला, उन्नीस मुखों वाला, सूक्ष्म विषय का भोक्ता, तैजस ही दूसरा पाद है ॥४॥
यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं
पश्यति तत् सुषुप्तम् । सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन
एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक् चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः ॥ ५॥
सोया हुआ, जब किसी काम की कामना नहीं करता, न कोई स्वप्न देखता है, वह सुषुप्ति की अवस्था है । सुषुप्ति जिसका स्थान है, एकीभूत और प्रज्ञा से घनीभूत, आनन्दमय, चेतनारूपी मुख वाला, आनन्द का भोक्ता, प्राज्ञ ही तीसरा पाद है ॥५॥
एष सर्वेश्वरः एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य
प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् ॥ ६॥
यह सबका ईश्वर है, यह सर्वज्ञ है, यह अन्तः आयामी है, यही योनि है, समस्त भूतों की उत्पत्ति-प्रलय का स्थान है ॥६॥
नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं
न प्रज्ञं नाप्रज्ञम् । अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणं
अचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं
शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥ ७॥
जो न अन्दर की ओर प्रज्ञा वाला है, न बाहर की ओर प्रज्ञा वाला है, न दोनों ओर प्रज्ञा वाला है, न प्रज्ञा से घनीभूत ही है, न जानने वाला है, न नहीं जानने वाला है, न देखा जा सकता है, न व्यवहार में आ सकता है, न ग्रहण किया जा सकता है, लक्षणों से रहित है, न चिन्तन में आ सकता है, न उपदेश किया जा सकता है, एकमात्र आत्म की प्रतीति ही जिसका सार है, प्रपञ्च से रहित, शान्त, शिव, अद्वैत ही चौथा पाद कहा जाता है । वही आत्मा है, वही जाननेयोग्य है ॥७॥
सोऽयमात्माध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पादा
अकार उकारो मकार इति ॥ ८॥
ऐसा वह आत्मा अक्षरदृष्टि से, मात्राओं का आश्रयरूप, ओंकार ही है । पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है, जो कि अकार, उकार और मकार हैं ॥८॥
जागरितस्थानो वैश्वानरोऽकारः प्रथमा मात्राऽऽप्तेरादिमत्त्वाद्
वाऽऽप्नोति ह वै सर्वान् कामानादिश्च भवति य एवं वेद ॥ ९॥
जाग्रत स्थान वाला वैश्वानर ही अकार है । सबमे व्याप्त और आदि होने के कारण ही प्रथम मात्रा है । जो इस प्रकार जानता है वह समस्त कामनाओं को प्राप्त करता है और सबमें प्रधान होता है ॥९॥
स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीया मात्रोत्कर्षात्
उभयत्वाद्वोत्कर्षति ह वै ज्ञानसन्ततिं समानश्च भवति
नास्याब्रह्मवित्कुले भवति य एवं वेद ॥ १०॥
स्वप्न स्थान वाला तैजस ही उकार है । उत्कर्ष और उभयत्व के कारण ही द्वितीय मात्रा है । जो इस प्रकार जानता है वह ज्ञान की परम्परा को उन्नत करता है और समान भाव को प्राप्त होता है । उसके कुल में कोई ब्रह्मज्ञानहीन नहीं होता ॥१०॥
सुषुप्तस्थानः प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा मितेरपीतेर्वा
मिनोति ह वा इदं सर्वमपीतिश्च भवति य एवं वेद ॥ ११॥
सुषुप्ति स्थान वाला प्राज्ञ ही मकार है । जाननेवाला और विलीन करने वाला होने के कारण ही तृतीय मात्रा है । जो इस प्रकार जानता है वह सबको जाननेवाला और सबको स्वयं में विलीन करने वाला होता है ॥११॥
अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैत
एवमोङ्कार आत्मैव संविशत्यात्मनाऽऽत्मानं य एवं वेद ॥ १२॥
मात्रारहित ही वह चतुर्थ है । अव्यवहार्य, प्रपञ्चरहित, शिव, अद्वैत, ओंकाररूप वह आत्मा आत्मा के द्वारा आत्मा में ही प्रविष्ट होता है, जो इस प्रकार जानता है, जो इस प्रकार जानता है ॥१२॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
Leave a Reply