माँ सरस्वती कवच
माँ सरस्वती कवच
(महर्षि भृगु – ब्रह्मा जी संवाद, ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्रकृतिखण्ड: अध्याय 4)
श्रणु वत्स प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम्।
श्रुतिसारं श्रुतिसुखं श्रुत्युक्तं श्रुतिपूजितम्॥
ब्रह्मा जी बोले– वत्स! मैं सम्पूर्ण कामना पूर्ण करने वाला कवच कहता हूँ, सुनो। यह श्रुतियों का सार, कान के लिये सुखप्रद, वेदों में प्रतिपादित एवं उनसे अनुमोदित है।
उक्तं कृष्णेन गोलोके मह्यं वृन्दावने वने।
रासेश्वरेण विभुना रासे वै रासमण्डलै॥
रासेश्वर भगवान श्रीकृष्ण गोलोक में विराजमान थे। वहीं वृन्दावन में रासमण्डल था। रास के अवसर पर उन प्रभु ने मुझे यह कवच सुनाया था।
अतीव गोपनीयं च कल्पवृक्षसमं परम्।
अश्रुताद्भुतमन्त्राणां समूहैश्च समन्वितम्॥
कल्पवृक्ष की तुलना करने वाला यह कवच परम गोपनीय है। जिन्हें किसी ने नहीं सुना है, वह द्भुत मन्त्र इसमें सम्मिलित हैं।
यद् धृत्वा पठनाद् ब्रह्मन् बुद्धिमांश्च बृहस्पति:।
यद् धृत्वा भगवाञ्छुक्र: सर्वदैत्येषु पूजितः॥
इसे धारण करने के प्रभाव से ही भगवान शुक्राचार्य सम्पूर्ण दैत्यों के पूज्य बन सके।ब्रह्मन! बृहस्पति में इतनी बुद्धि का समावेश इस कवच की महिमा से ही हुआ है।
पठनाद्धारणाद्वाग्मी कवीन्द्रो वाल्मिको मुनिः।
स्वायम्भुवो मनुश्चैव यद् धृत्वा सर्वपूजितः॥
वाल्मीकि मुनि सदा इसका पाठ और सरस्वती का ध्यान करते थे। अतः उन्हें कवीन्द्र कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। वे भाषण करने में परम चतुर हो गये। इसे धारण करके स्वायम्भुव मनु ने सबसे पूजा प्राप्त की।
कणादो गौतमः कण्वः पाणिनिः शाकटायनः।
ग्रन्थं चकार यद् धृत्वा दक्षः कात्यायनः स्वयम्॥
कणाद, गौतम, कण्व, पाणिनि, शाकटायन, दक्ष और कात्यायन– इस कवच को धारण करके ही ग्रन्थों रचना में सफल हुए।
धृत्वा वेदविभागं च पुराणान्यखिलानि च।
चकार लीलामात्रेण कृष्णद्वैपायनः स्वयम्॥
इसे धारण करके स्वयं कृष्ण द्वैपायन व्यासदेव ने वेदों का विभाग कर खेल-ही-खेल में अखिल पुराणों का प्रणयन किया।
शातातपश्च संवर्तो वसिष्ठश्च पराशरः।
यद् धृत्वा पठनाद् ग्रन्थं याज्ञवल्क्यश्चकार सः॥
ऋष्यश्रृङ्गो भरद्वाजश्चास्तीको देवलस्तथा।
जैगीषव्योऽथ जाबालिर्यद् धृत्वा सर्वपूजिताः॥
शतातप, संवर्त, वसिष्ठ, पराशर, याज्ञवल्क्य, ऋष्यश्रृंग, भारद्वाज, आस्तीक, देवल, जैगीषव्य और जाबालि ने इस कवच को धारण करके सब में पूजित हो ग्रन्थों की रचना की थी।
कवचस्यास्य विप्रेन्द्र ऋषिरेव प्रजापतिः।
स्वयं छन्दश्च बृहती देवता शारदाम्बिका॥
विपेन्द्र! इस कवच के ऋषि प्रजापति हैं। स्वयं बृहती छन्द है। माता शारदा अधिष्ठात्री देवी हैं।
सर्वतत्त्वपरिज्ञाने सर्वार्थसाधनेषु च।
कवितासु च सर्वासु विनियोगः प्रकीर्तितः॥
अखिल तत्त्व परिज्ञानपूर्वक सम्पूर्ण अर्थ के साधन तथा समस्त कविताओं के प्रणयन एवं विवेचन में इसका प्रयोग किया जाता है।
श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वतः।
श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदावतु।
श्रीं-ह्रीं-स्वरूपिणी भगवती सरस्वती के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सब ओर से मेरे सिर की रक्षा करें। ऊँ श्रीं वाग्देवता के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वह सदा मेरे ललाट की रक्षा करें।
ऊँ सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रे पातु निरन्तरम्।
ऊँ श्रीं ह्रीं भारत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदावतु॥
ऊँ ह्रीं भगवती सरस्वती के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे निरन्तर कानों की रक्षा करें। ऊँ श्रीं-ह्रीं भारती के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा दोनों नेत्रों की रक्षा करें।
ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वतोऽवतु।
ऊँ ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा ओष्ठं सदावतु॥
ऐं-ह्रीं-स्वरूपिणी वाग्वादिनी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सब ओर से मेरी नासिका की रक्षा करें। ऊँ ह्रीं विद्या की अधिष्ठात्री देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती हैे वह होंठ की रक्षा करें।
ऊँ श्रीं ह्रीं ब्राह्मयै स्वाहेति दन्तपङ्क्तिं सदावतु।
ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदावतु॥
ऊँ श्रीं-ह्रीं भगवती ब्राह्मी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे दन्त-पंक्ति की निरन्तर रक्षा करें।‘ऐं’ यह देवी सरस्वती का एकाक्षर-मन्त्र मेरे कण्ठ की सदा रक्षा करे।
ऊँ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धौ मे श्रीं सदावतु।
ऊँ श्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्षः सदावतु॥
ऊँ श्रीं ह्रीं मेरे गले की तथा श्रीं मेरे कंधों की सदा रक्षा करे। ऊँ श्रीं विद्या की अधिष्ठात्री देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा वक्ष:स्थल की रक्षा करे।
ऊँ ह्रीं विद्यास्वरूपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम्।
ऊँ ह्रीं क्लीं वाण्यै स्वाहेति मम हस्तौ सदावतु॥
ऊँ ह्रीं विद्यास्वरूपा देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे मेरी नाभि की रक्षा करें। ऊँ ह्रीं-क्लीं-स्वरूपिणी देवी वाणी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा मेरे हाथों की रक्षा करें।
ऊँ सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदावतु।
ऊँ वागधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा सर्वं सदावतु॥
ऊँ-स्वरूपिणी भगवती सर्ववर्णात्मिका के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे दोनों पैरों को सुरक्षित रखें। ऊँ वाग की अधिष्ठात्री देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है वे मेरे सर्वस्व की रक्षा करें।
ऊँ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदावतु।
ऊँ ह्रीं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाग्निदिशि रक्षतु॥
सबके कण्ठ में निवास करने वाली ऊँ स्वरूपा देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे पूर्व दिशा में सदा मेरी रक्षा करें। जीभ के अग्रभाग पर विराजने वाली ऊँ ह्रीं-स्वरूपिणी देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे अग्निकोण में रक्षा करें।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा।
सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदावतु॥
‘ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा।’ इसको मन्त्रराज कहते हैं। यह इसी रूप में सदा विराजमान रहता है। यह निरन्तर मेरे दक्षिण भाग की रक्षा करे।
ऐं ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैर्ऋत्यां मे सदावतु।
कविजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु॥
ऐं ह्रीं श्रीं– यह त्र्यक्षर मन्त्र नैर्ऋत्यकोण में सदा मेरी रक्षा करे। कवि की जिह्वा के अग्रभाग पर रहने वाली ऊँ-स्वरूपिणी देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे पश्चिम दिशा में मेरी रक्षा करें।
ऊँ सर्वाम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदावतु।
ऊँ ऐं श्रीं गद्यपद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेऽवतु॥
ऊँ-स्वरूपिणी भगवती सर्वाम्बिका के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे वायव्यकोण में सदा मेरी रक्षा करें। गद्य-पद्य में निवास करने वाली ऊँ ऐं श्रींमयी देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे उत्तर दिशा में मेरी रक्षा करें।
ऐं सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदावतु।
ऊँ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोर्ध्वं सदावतु॥
सम्पूर्ण शास्त्रों में विराजने वाली ऐं-स्वरूपिणी देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे ईशानकोण में सदा मेरी रक्षा करें। ऊँ ह्रीं-स्वरूपिणी सर्वपूजिता देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे ऊपर से मेरी रक्षा करें।
ऐं ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाधो मां सदावतु।
ऊँ ग्रन्थबीजरूपायै स्वाहा मां सर्वतोऽवतु॥
पुस्तक में निवास करने वाली ऐं-ह्रीं-स्वरूपिणी देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे मेरे निम्नभाग की रक्षा करें। ऊँ-स्वरूपिणी ग्रन्थ बीजस्वरूपा देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सब ओर से मेरी रक्षा करें।
इति ते कथितं विप्र ब्रह्ममन्त्रौघविग्रहम्।
इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मरूपकम्॥
विप्र! यह सरस्वती-कवच तुम्हें सुना दिया। असंख्य ब्रह्म मन्त्रों का यह मूर्तिमान विग्रह है। ब्रह्मस्वरूप इस कवच को ‘विश्वजय’ कहते हैं।
पुरा श्रुतं धर्मवक्त्रात् पर्वते गन्धमादने।
तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित्॥
प्राचीन समय की बात है– गन्धमादन पर्वत पर पिता धर्मदेव के मुख से मुझे इसे सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। तुम मेरे परम प्रिय हो। अतएव तुमसे मैंने कहा है। तुम्हें अन्य किसी के सामने इसकी चर्चा नहीं करनी चाहिये।
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालंकारचन्दनैः।
प्रणम्य दण्डवद्भूमौ कवचं धारयेत् सुधीः॥
विद्वान पुरुष को चाहिये कि वस्त्र, चन्दन और अलंकार आदि सामानों से विधिपूर्वक गुरु की पूजा करके दण्ड की भाँति जमीन पर पड़कर प्रणाम करे। तत्पश्चात् उनसे इस कवच का अध्ययन करके इस हृदय में धारण करे।
पञ्चलक्षजपेनैव सिद्धं तु कवचं भवेत्।
यदि स्यात् सिद्धकवचो बृहस्पतिसमो भवेत्॥
पाँच लाख जप करने के पश्चात् यह कवच सिद्ध हो जाता है। इस कवच के सिद्ध हो जाने पर पुरुष को बृहस्पति के समान पूर्ण योग्यता प्राप्त हो सकती है।
महावाग्मी कवीन्द्रश्च त्रैलोक्यविजयी भवेत्।
शक्नोति सर्वं जेतुं च कवचस्य प्रसादतः॥
इस कवच के प्रसाद से पुरुष भाषण करने में परम चतुर, कवियों का सम्राट और त्रैलोक्यविजयी हो सकता है। वह सबको जीतने में समर्थ होता है।
श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा
जय श्री राम
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:
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