श्री राम यदि स्वयं श्री विष्णु भगवान के अवतार थे और आदि अनन्त सबके ज्ञाता थे तो उन्होंने लंका विजय के पश्चात सीता जी की अग्नि परीक्षा क्यों करवाई? प्रभु श्री राम को रावण का वध करने के लिए सीता का हरण करवाने की क्या आवश्यकता थी ?
यह विवादित प्रश्न सदैव अधर्मियों, विधर्मियों तथा कुधर्मियों द्वारा श्री राम की निंदा करने तथा हिन्दू धर्म पर आघात पहुँचने के लिए किया जाता है। ज्ञान के अभाव में उनको पर्याप्त उत्तर नहीं दिया जाता और इससे उनकी सनातन धर्म विरोधी मानसिकता को बल मिलता है।
इन प्रश्नो का उत्तर हमें श्री ब्रह्मवैवृत पुराण में इस प्रकार मिलता है:
पूर्वकाल में कुश्ध्वज नाम के एक नरेश थे। कुश्ध्वज ने माता लक्ष्मी की घोर उपासना की जिसके फलस्वरूप उनको महालक्ष्मी के अंश रूपी एक कन्या उत्पन्न हुई। उस कन्या ने जन्म लेते ही सूतिकागृह में स्पष्ट स्वर से वेद के मंत्रों का उच्चारण किया इसलिए उस कन्या का नाम ‘वेदवती’ पड़ गया। भगवान नारायण के चिन्तन में तत्पर रहने वाली वेदवती ने भगवान नारायण की प्राप्ति के लिए पुष्कर क्षेत्र में अत्यंत कठिन तपस्या प्रारम्भ की। तपस्या के फलस्वरूप एक दिन स्पष्ट आकाशवाणी सुनाई दी ” सुंदरी! दूसरे जन्म में साक्षात श्री हरि भगवान नारायण तुम्हारे पति होंगे। ब्रह्माप्रभूति देवता भी बड़ी कठिनता से जिनकी उपासना कर पाते हैं, उन्ही परम प्रभु को स्वामी बनाने का सौभाग्य तुम्हें प्राप्त होगा।”
तपस्या के प्रभाव से श्री भगवान के दर्शन ना होने के कारण, आकाशवाणी सुन कर वेदवती रूष्ट हो कर गन्धमादन पर्वत पर चली गयी और पहले से भी अधिक कठोर तपस्या करने लगी। एक दिन वेदवती को अपने सामने दुर्विनार रावण दिखाई दिया, वेदवती ने आथित्य धर्म के अनुसार पाद्य, परम स्वादिष्ट फल तथा शीतल जल दे कर उसका सत्कार किया। परंतु रावण बड़ा पापिष्ट था। वेदवती को देख कर उसके हृदय में विकार उत्पन्न हो गया और उसने वेदवती को स्पर्श करने का प्रयास किया। रावण की इस कुचेष्टा को देख कर उस साध्वी का मन क्रोध से भर गया तथा उस देवी ने रावण को शाप दिया “दुरात्मान! तू मेरे कारण ही अपने बंधु बाँधवों के साथ काल का ग्रास बनेगा, क्योंकि तूने काम भावना से मुझे स्पर्श किया है। अतः मैं इस शरीर का त्याग करती हूँ ।” यह कहकर वेदवती ने योग़माया से अपना वह शरीर त्याग दिया।
पूर्वजन्म की तपस्या के प्रभाव से वेदवती त्रेतायुग में सीता माता के रूप में जनक महाराज को प्राप्त हुईं और स्वयं भगवान श्री राम उनके पति हुए। पूर्वजन्म में दिए हुए शाप के प्रभाव से ही रावण को मृत्यु का मुख सीता माता के कारण देखना पड़ा।
विवाह के कुछ काल के पश्चात रघुकुल, सत्यसंध भगवान श्री राम सत्य की रक्षा करने के लिए वन में पधारे । सीता हरण का समय आने पर वन में ब्राह्मण रूप धारी अग्नि देवता से उनकी भेंट हुई। विप्ररूपी अग्निदेव ने श्री राम से कहा भगवान सीता हरण का समय आने के कारण मेरा हृदय अत्यंत संतप्त हो रहा है। सीता माता समस्त जगत की माता हैं, आप इन्हें मेरे संरक्षण में रखकर छायामयी सीता को अपने साथ रखिए। लंका विजय के पश्चात अग्नि परीक्षा लीला के समय मैं इनको आपको लौटा दूँगा। भगवान श्री राम ने अग्निदेव की बात सुन कर व्यथित हृदय से अग्निदेव के प्रस्ताव को मान लिया तथा अग्निदेव ने अपने योगबल से मायामयी सीता, जो रूप व गुण में सीता माता के समान थी, को प्रकट करके श्रीराम को सौंप दिया। इस गुप्त रहस्य को प्रकट करने के लिय प्रभु श्रीराम ने अग्निदेव को मना कर दिया। यहाँ तक की लक्ष्मण भी इस रहस्य नहीं जान सके।
तत्पश्चात समस्त लीलाओं के स्वामी प्रभु श्री राम अनेक लीलाएँ करते हुए लंका पहुँचे और रावण वध के पश्चात उन्होंने सीता जी की अग्निपरीक्षा करवाई। अग्नि देव ने उसी क्षण वास्तविक सीता माता को उपस्थित कर दिया।
उस समय छायारूपी सीता ने अत्यंत विनम्रतापूर्वक प्रभु श्री राम और अग्निदेव से कहा की प्रभु अब मेरे लिए क्या आज्ञा है। तब भगवान श्री राम ने उस छाया सीता को पुष्कर क्षेत्र में जा कर तप करने का विचार दिया। प्रभु श्री राम की आज्ञा पाकर छाया सीता ने कठिन तपस्या की और तपस्या के फलस्वरूप, समयानुसर, छाया सीता राजा द्रुपद के यहाँ यज्ञ की वेदी से उत्पन्न हुईं जिसके कारण उनका नाम ‘द्रौपदी’ पड़ा और पाँच पाण्डव उनके पति हुए।
इस प्रकार सतयुग में वही कल्याणी देवी कुश्ध्वज की कन्या वेदवती, त्रेता युग में छाया रूप से सीता बन कर भगवान श्री राम की सहचरी तथा द्वापर में द्रुपदकुमारी द्रौपदी हुई । अतः इन्हें ‘त्रिहायनी” भी कहा जाता है।
लंका से प्रवास के बाद प्रभु श्री राम ने ग्यारह हज़ार वर्षों तक अयोध्या में राज्य किया और तत्पश्चात समस्त पुरवासियों सहित वैकुण्ठ धाम को पधारे।
।।ॐ नमो भगवते वसुदेवाय:।।
( संदर्भ : श्री ब्रह्मवैवृत पुराण । प्रकृति खंड । अध्याय १४)
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