श्रीमदवाल्मीकि रामायण में शम्बूक वध प्रसंग तथा सनातन धर्म और प्रभु श्री राम की निंदा के लिए इसका राजनीतिकरण
श्रीमदवाल्मीकि रामायण के उत्तर कांड में वर्णित शम्बूक वध प्रसंग का सर्वाधिक राजनीतिकरण किया गया है। विभिन्न राजनेताओं और सम्प्रदायों ने समय समय पर हिन्दू धर्म को विभाजित करने तथा अपने निहित स्वार्थों का पोषण करने के लिए इस प्रसंग का उपयोग किया है। विभिन्न सम्प्रदायों द्वारा इस प्रकरण के अत्यधिक दुष्प्रचार के कारण विभिन्न वर्गों में इस प्रकरण के प्रति अत्यंत संवेदनशीलता है और प्राय: इसका उपयोग प्रभु श्री राम, श्रीमदवाल्मीकि रामायण तथा सम्पूर्ण हिन्दू धर्म की निंदा करने के लिए किया जाता है I
यद्यपी राजनीती से प्रेरित विषयों पर टिप्पणी करना हमारा उद्देश्य नहीं है परन्तु हमारे बंधू श्री आशीष कुमार और श्री अभिनव मणि त्रिपाठी जी के प्रश्न का उत्तर तथा इस विषय में फैली भ्रामकताओं की निवृति के लिए हम शम्बूक वध प्रसंगकी व्याख्या दे रहे हैंI
आप सब से निवेदन है की इन संवेदनशील मुद्दों को अपने वर्ग, वर्ण से ऊपर उठ कर एक सनातन धर्मी हिंदु की दृष्टि से विचार करें I जो बँधु बौद्ध अनुयायी हैं उनको हम बताना चाहते हैं की श्री राम और भगवान बुद्ध दोनों को श्री विष्णु भगवान के अवतार स्वरुप में माना जाता हैI अतः अपने विचारों और भाषा में संयम रखें क्योंकि विचारों और भाषा का संयम ही सनातन धर्म तथा भगवान बुद्ध की सबसे बड़ी शिक्षा है I
श्रीमदवाल्मीकि रामायण में शम्बूक वध प्रकरण उत्तर काण्ड के त्रिसप्ततितम सर्ग: और चतु:सपतितम सर्ग: में वर्णित है I संक्षेप में कथा कुछ इस प्रकार है:
प्रभु श्री राम के राज्य में एक बूढा ब्राह्मण अपने मरे हुए बालक का शव लेकर राजद्वार पर आया और अपने तेरह वर्ष दस महीने बीस दिन के बालक की अकाल मृत्यु पर विलाप करते हुए नाना प्रकार की बातें कहना लगा:
दृशं दृष्टपूर्वे मे श्रुतं वा घोरदर्शनम् ।
मृत्युरग्रासकालानां रामस्य विषये ह्ययम् ॥ ९ ॥ ‘
श्रीरामचन्द्रजीके राज्यमें तो अकाल-मृत्युकी ऐसी भयंकर घटना न पहले कभी देखी गयी थी और न सुननेमें ही आयी थी
रामस्य दुष्कृतं किञ्चिन्महदस्ति न संशयः ।
यथा हि विपयस्थानां वालानां मृत्युरागतः ॥ १० ||
निस्संदेह श्रीरामका ही कोई महान् दुष्कर्म है, जिस इनके राक्यमें रहनेवाले बालकोंकी मृत्यु होने लगी I
नहान्यविपयस्थानां वालानां मृत्युती भयम् ।
स राजञ्जीवयस्वैनं वालं मृत्युवशं गतम् ॥ ११ ।।
राजद्वारि मरिष्यामि पत्न्या सार्धमनाथवत् ।
ब्रह्महत्यां ततो राम समुपेत्य सुखी भव ॥ ९२ | ‘
दूसरे राज्य में रहने वाले बालकों की मृत्यु से भय नहीं है अत: राजन् ! मृत्युके वशमें पड़े हुए इस बालकको जीवित् कर दो; नहीं तो मैं अपनी स्त्रीके साथ इस राजद्वारपर अनाथ की भाँति प्राण दे दूँगा। श्रीराम ! फिर ब्रह्महत्याका पाप लेक तुम सुखी होना I
वृद्ध ब्राह्मण के उक्त करुण क्रंदन सुन कर श्री राम दुःख से संतप्त हो गए तथा उन्होंने अपने मंत्रिओं, ऋषि वशिष्ट तथा आठ ब्राह्मणों – मार्कण्डेय, मौद्गल्य, वामदेव, कश्यप, कात्यायन, जाबिली, गौतम तथा नारद को अपनी सभा में आमंत्रित किया I वृद्ध ब्राह्मणो के दुःख से दुखी प्रभु श्री राम से नारद जी ने कहा:
राजन जिस कारण इस कारण इस बालक की अकाल मृत्यु हुई है वह बताता हूँ I पहले सतयुग में केवल ब्राह्मण ही तपस्वी हुआ करते थे उस समय ब्राह्मणोत्तर मनुष्य किसी भी तरह की तपस्या में प्रवृत नहीं होते थे। वह युग तपस्या के तेज से प्रकाशित होता थाI उसमे ब्राह्मणो की ही प्रधानता थी I उस समय अज्ञान का वातावरण नहीं था इसलिए उस युग के सभी मनुष्य अकाल मृत्यु से रहित तथा त्रिकाल दर्शी होते थे।
त्रेता युग वर्णाश्रम धर्म प्रधान हैI वह धर्म से प्रकाशित होता हैI वह धर्म में बाधा डालने वाले पाप से रहित है। इस युग में अधर्म ने भूतल पर एक पैर रखा हैI अधर्म से युक्त होने के कारण यहाँ लोगों का तेज धीरे धीरे घटता जायेगा। त्रेता युग के अवसान पर अधर्म अपने दुसरे चरण को पृथ्वी पर उतारता हैI द्वितीय पैर उतारने के कारण ही उस युग को द्वापर की संज्ञा दी गयी हैI
सतयुग में केवल ब्राह्मण को, त्रेता में ब्रह्मण और क्षत्रिय दोनों को और द्वापर में तीनो वर्णो – ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को तपस्या का अधिकार हैI इन तीनो ही वर्णो का आश्रय लेकर ही तपस्या रुपी धर्म प्रतिष्ठित होता है किन्तु शूद्र वर्ण को इन तीनो ही युगों में तपस्यारूपी धर्म का अधिकार नहीं होताI कलियुग आने पर शूद्र योनि में उत्पन्न मनुष्यों में तपश्चर्या की प्रवर्ति होगी तथा कलियुग में चारों वर्णो को तपस्या करने का अधिकार होगा I
महाराज, निश्चय ही आपके राज्य में कोई खोटी बुद्धि वाला महान तप का आश्रय ले रहा हैI जिससे इस बालक की अकाल मृत्यु हुई हैI जो कोई भी दुर्बुद्धि मानव जिस किसी भी राजा के राज्य में अधर्म या ना करने योग्य कार्य करता है, उसका वह कार्य राजा के अनैश्वर्य का कारण बनता हैI
नारद जी के वचन सुनकर प्रभु श्री राम ने पुष्पक विमान से पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर दिशाओं की यात्रा की परन्तु उनको कोई दुष्कर्म नहीं दिखाई दिया I उसके पश्च्यात उन्होंने दक्षिण दिशा की यात्रा की जहाँ शैवाल पर्वत पर एक तपस्वी उल्टा लटक कर अत्यंत दुष्कर तपस्या कर रहा था I उसकी उग्र तपस्या को देख कर प्रभु श्री राम ने उससे तपस्या का प्रयोजन,अभिष्ट की प्राप्ति तथा उसकी जाति के विषय में पूछा।
प्रभु श्री राम के वचन सुनकर उस तपस्वी ने कहा मैं शूद्र योनि में उत्पन्न हुआ हूँ तथा सशरीर स्वर्गलोक में जा कर देवत्व प्राप्त करना चाहता हूँ। इसलिए ऐसा श्री उग्र तप कर रहा हूँ। मैं झूठ नहीं बोलता, मैं देवलोक पर विजय पाने की इच्छा से ही तपस्या में लगा हुआ हूँ। आप मुझे शूद्र ही समझिये, मेरा नाम शम्बूक है। वह इस प्रकार कह ही रहा था की प्रभु श्री राम ने तलवार खींच ली और उससे उसका मस्तक काट दिया।
उसक वध होते ही देवताओं ने श्री राम के कृत्य का अनुमोदन किया तथा उस मृत बालक को पुनः जीवित कर दिया।”
इस प्रकार शम्बूक वध के द्वारा प्रभु श्री राम ने अधर्म का नाश कर त्रेता युग में व्याप्त धर्म का अनुमोदन किया।
अब पहला प्रश्न यह है की क्या आप त्रेता युग में व्याप्त धर्माचरण के ऊपर कलियुग में प्रश्न उठा कर प्रभु श्री राम को दोष दे सकते हैं ? क्या यह व्यावहारिक है? यदि आपका उत्तर “हाँ” है तब आपकी दृष्टि में ताटका वध, विराध वध, खर दूषण वध, श्रुपनखा प्रसंग तथा रावण कुटुम्ब वध इत्यादि भी उतना ही अनुचित होना चाहिए जितना शम्बूक वध क्योंकि दोनों धर्म की स्थापना तथा अधर्म के विनाश के लिए किये गए थे।
दूसरा यह जानना अतयन्त आवश्यक है की वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति कैसे हुई। रामायण में शम्बूक वध प्रकरण के ही अध्याय चतुः सपतितं श्लोक १० में ही कहा गया है
तस्मिन् युगे प्रज्वलिते ब्रह्मभूते त्वनावृते ॥ १० ॥
अमृत्यवस्तदा सर्वे जक्षिरे दीर्घदर्शिनः ।
अर्थात वह युग तपस्या के तेजसे प्रकाशित होता था । उसमें ब्राह्मणोंकी ही प्रधानता थी । उस समय अशान का वातावरण नहीं था । इसलिये उस युग के सभी मनुष्य अकाल-मृत्युसे रहित तथा त्रिकालदशीं होते थे।
इसी प्रकार प्रथम दृष्टि में ब्राह्मण तथा अन्य तीन वर्णो की उत्पत्ति का विवरण बृहदारण्य उपनिषद ४ ब्राह्मण में भी मिलता है :
ब्राह्ण व इदमग्र आसी देकमेव तडकन सन्न व्यभवत। तच्छ्रयोरुपमन्य सृजत क्षत्रं यन्येतानि देवत्रा क्षत्राणीन्द्रों …
अर्थात प्रथम सृष्टि के समय सब ब्राह्मण थे, अन्य वर्ण नहीं थे। इससे काम ना चला तब परमात्मा ने पालन आदि कार्य के लिए क्षत्रिय वर्ण की उत्पत्ति की। देवलोक में इंद्र,सोम, वरुण, रूद्र, पजर्न्य, यम, ईशान आदि क्षत्रिय वर्ण में हैं । इससे भी काम ना चला, क्योंकि पालन के लिए अर्थ की आवश्यकता हुई तो परमात्मा ने वैश्यवर्ण की उत्पत्ति की। देवलोक में अष्ट वसु, एकादश रूद्र, द्वादश आदित्य त्रोदश विश्वेदेवा और उनचास मरू इस श्रेणी में हैं। परन्तु जब इससे भी काम न चला तो सेवा के लिए परमात्मा ने शूद्र वर्ण की उत्पत्ति की। देवलोक में पोषणकारी पृथ्वी इस वर्ण में है।
इसी प्रकार महाभारत के शांतिपर्व में कहा गया है –
“ब्रह्माण्ड प्रकृति की गति सत्वगुण से तमोगुण की ओर होती है इसलिए प्रथम सृष्टि में सत्ययुग और उसके पश्च्यात त्रेता द्वापर और काली का क्रम रहता है। इस प्रकार सतयुग में सत्वगुण का प्राधान्य, त्रेता में रज:सत्व का प्राधान्य, द्वापर में रजस्तम का प्राधान्य तथा काली में तम का प्राधान्य रहता है।
इसी के अनुसार प्रथम सृष्टि में सनक, स्कंदन आदि भगवान् ब्रह्मा के जो मानस पुत्र हुए उनमे सत्वगन की प्रधानता से सृष्टि की इच्छा नहीं हुई। उनके बाद उत्पन्न हुए मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुल्सत्य आदि में सृष्टि करने की इच्छा हुई किन्तु मनोबल, योगबल की अधिकता के कारण उन्होंने भी मानसी सृष्टि की और यह सृष्टि केवल ब्राह्मणो की हुई क्योंकि उस समय भी ब्रह्मांड प्रकृति में सत्वगुण ही प्राधान्य था। वे सब ब्राह्मण आत्मबल से पुष्ट तथा सूर्य और अग्नि की तरह तेजस्वी थे।
उस समय वर्णों की विशेषता नहीं थी, सभी मनुष्य ब्राह्मण थे। किन्तु धीरे धीरे प्रकृति की गति नीचे की और जाने लगी जिसस्ने रजोगुण तथा तमोगुण का भी विकास हो गया और सत्वगुण प्रधान ब्राह्मण कठिन प्रवर्ती, क्रोधी, साहसी क्षत्रीय। क़ृषि, गौपालन से जीविका करने वाले वैश्य और शौच आचार से विमुख, हिंसा आदि करने वाले ब्राह्मण शूद्र हो गए।”
इस प्रकार सनातन धर्म शास्त्र स्पष्ट कहते है की वर्ण धर्म किसी मनुष्य का बनाया हुआ धर्म नहीं है , परन्तु प्रकृति के त्रिगुण स्वभाव से उत्पन्न हुआ है। जीव तमोगुण के राज्य में उत्पन्न होकर रजोगुण के भीतर से क्रमशः सत्वगुण की और चलता है और अंत में सत्वगुण की पराकाष्ठा पर पहुंच कर गुणातीत परब्रह्म में लीन हो जाता है।
यह सत्य है की समाज में होने वाली विभिन्न कार्मिक गतिविधिओं में कारण श्री मनु ने जन्म से वर्ण का निश्चय करने अनुमोदन किया। परन्तु वही मनुस्मृति, जिसको कोसने में राजनेता कोई कसर नहीं छोड़ते, ब्राह्मणो के विषय में कहती है:
“वेदअध्यन्न और उसके अर्थज्ञान से बढ़ा तेज ब्रह्मवर्चस है। उसकी इच्छा रखने वाले ब्राह्मण का पांचवे वर्ष, बलार्थी क्षत्रिय का छठे वर्ष तथा वैश्य का आठवें वर्ष तक यज्ञोपवीत संस्कार हो जाना चाहिए। सोलह वर्ष तक ब्राह्मण की सावित्री नहीं जाती। क्षत्रिय की बाइस वर्ष तथा वैश्य की चौबीस वर्ष तक नहीं जाती। अर्थात यह उपनयन समय की परमावधि है। इस काल के बाद ये तीनों सावित्री पतिति ‘व्रात्य’ (त्याज्य) हो जाते हैं और शिष्टों से निन्दित होते है। इन अशुद्ध व्रात्यों से आपत्तिकाल में भी ब्राह्मण को विद्या या विवाह का सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए।“
(मनुस्मृति, श्लोक – ३७, ३८, ३९, ४०)
“ जैसे काठ का हाथी और चमड़े का मृग वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण है। यह तीनो नाममात्र को रखते हैं परन्तु किसी काम के नहीं है। जैसे स्त्रियों में नपुंसक पुरुष निष्फल, गौ के लिए दूसरी गौ निष्फल, अज्ञानी को दान निष्फल है, वैसे बिना वेद पढ़ा ब्राह्मण निष्फल है – क्योंकि श्रौत – स्मार्त कर्मों के अयोग्य होता है”
(मनुस्मृति, श्लोक – १५७, १५८ )
इसी प्रकार के अन्य श्लोक भी मनुस्मृति में उद्धृत हैं। तो क्या उपरोक्त श्लोकों के आधार पर ब्राह्मणो को मनुस्मृति, धर्म शास्त्रों को त्याग देना चाहिए या उनकी निंदा करनी चाहिए क्योंकि उनमे कुछ ऐसी बातें लिखी हैं जो ब्राह्मण वर्ण को अच्छी नहीं लगती।
इसलिए आपसे अनुरोध है की धर्म शास्त्रों में लिखे किसी भी श्लोक या प्रसंग का शाब्दिक अर्थ ना लेकर उसमे छिपे हुए गूढ़ अर्थ को समझिये। यही उचित है और प्रसांगिग भी।
उपरोक्त से यह भी स्पष्ट है की सृष्टि के प्रारम्भ में सभी ब्राह्मण थे तथा अपने आचार एवं विचारों से क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित हो गए। इसी प्रकार शम्बूक वध प्रसंग को भगवान् राम द्वारा एक वर्ण विशेष पर किये हुए अत्याचार के रूप में ना देख कर, अधर्म का नाश तथा धर्म की रक्षा के रूप में देखिये यही निहितार्थ है।
।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय: ।।
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