श्रीमदवाल्मीकि रामायण – ज्ञान माला – अरण्यकाण्ड
१. सुलभा पुरुषा राजन सततं प्रियवादिन:।
अप्रियस्य च पथ्यसय वक्ता श्रोता च दुर्लभ: ।।
सदा प्रिय वचन बोलने वाले पुरुष सर्वत्र सुलभ होते हैं, परन्तु जो अप्रिय होने पर भी हितकर हो ऐसी बात कहने वाले और सुनने वाले दोनों ही दुर्लभ हैं।
२. अकुवृंतोऽपि पापानि शुचय: पापसंश्रयात ।
परपापैविरंशयंति मतस्या नागहृदे यथा ।।
जो लोग आचार विचार से शुद्ध हैं तथा पाप या अपराध नहीं करते हैं, वे भी यदि पापियों के संपर्क में चले जाएँ तो दूसरों के पापों से नष्ट हो जाते हैं, जैसे सांप वाले सरोवर में निवास करने वाली मछलियां उस सर्प के साथ ही मारी जाती हैं।
३. धर्मादर्थ: प्रभवति धर्मात प्रभवते सुखम ।
धर्मेण लभते सर्वं धर्मसारमिदं जगत ।।
धर्म से अर्थ प्राप्त होता है, धर्म से सुख का उदय होता है, धर्म से ही मनुष्य सब कुछ पा लेता है. इस संसार में धर्म ही सार है।
४. ममसनेहाच्च सौहार्द दिद मुक्तं त्वया वच:।
जो अपना प्रिय ना हो, उसे कोई हितकर सन्देश नहीं देता।
५. क्रूरेरनार्यै परिहास कथंचन ।
क्रूर कर्म करने वाले अनार्यों से किसी प्रकार का परिहास भी नहीं करना चाहिए।
६. अनागतविधानं तु कर्तव्यं शुभमिच ता।
आपदं शङ्कामानेन पुरुषेण विपश्चिता ।।
अपना कल्याण चाहने वाले विद्वान पुरुष को उचित है की आपत्ति की आशंका होने पर पहले से उससे बचने का उपाय कर ले।
७. लोभात पापानि कुर्वाण: कामाद वा यो न बुध्यते।
हृष्ट:पश्यति तस्य यांतं ब्राह्मणी कारकादिव ।।
जो वस्तु प्राप्त नहीं हुई है, उसकी इच्छा को ‘काम’ कहते हैं और प्राप्त हुई वस्तु को अधिक से अधिक संख्या में पाने की इच्छा ही ‘लोभ’ है। जो काम अथवा लोभ से प्रेरित होकर कर्म करता है और उसके परिणाम को नहीं समझता, उलटे उस पाप में हर्ष का अनुभव करता है, वह उसी प्रकार अपना विनाशरूप परिणाम देखता है जैसे वर्षा के साथ गिरे हुए ओले को खा कर ब्राह्मणी नामवाली कीड़ी (चींटी) अपना विनाश देखती है।
८. न चिरं पापकर्माण क्रूरा लोक जुगिप्सता।
ऐश्वर्य प्राप्य तिष्ठान्ति शीर्णमूला इव द्रुमा: ।।
अवश्यं लभते करता फलं पापस्य कर्मण:।
घोरं पर्यागते काले द्रुम: पुष्पमिवतारवं ।।
प्राप्यते लोके पापानां कर्मणा फलम ।
सविषाणा मिवन्नानां भुक्तांना क्षणदाचर।।
जिनकी जड़ खोखली हो गयी हो वह वृक्ष अधिक काल तक खड़े नहीं रह सकते, उसी प्रकार पापकर्म करने वाले लोकनिन्दित क्रूर पुरुष ऐश्वर्य को पाकर भी चिरकाल तक उसे भोग नहीं पाते (उससे भ्रष्ट हो जाते हैं) ।
जैसे समय आने पर वृक्ष में ऋतू के अनुसार फूल लगते हैं, उसी प्रकार पापकर्म करने वाले पुरुषको समयानुसार अपने पाप कर्म का भयंकर फल अवश्य प्राप्त होता है।
जैसे खाये हुआ विषमिश्रित अन्न का परिणाम तुरंत ही भोगना पड़ता है, उसी प्रकार लोक में किये गए पापकर्म का भयंकर फल शीघ्र ही प्राप्त होता है।
९. ज्येष्ठो भ्राता पिता वापि यश्च विद्यां प्रयच्छति।
त्रयस्ते पितरो ज्ञेया धर्मे च पथि वर्तिन:।।
यावियानात्मं: पुत्र: शिष्यश्चापि गुणोदित:।
पुत्रवतते त्रय श्चिंत्या धर्मश्चैवात्र कारणम ।।
बड़ा भाई,पिता तथा जो विद्या देता है वह गुरु – ये तीनो धर्ममार्ग पर स्थित रहने वाले पुरुषों के लिए पिता के तुल्य माननीय हैं, ऐसा समझना चाहिए। इसी प्रकार छोटा भाई, पुत्र और गुणवान शिष्य – ये ही पुत्र के तुल्य समझे जाने योग्य हैं। उनके प्रति ऐसा भाव रखने में धर्म ही कारण है।
१०. सूक्ष्म: परमदुर्ज्ञेय: संता धर्म:।
हृदिस्थ: सर्वभूतानात्मा वेद शुभाशुभम ।।
सज्जनो का धर्म अत्यंत सूक्षम होता है, वह परम दुर्ज्ञेय है – उसे समझना अत्यंत कठिन है। समस्त प्राणियों के अंत:करण में विराजमान जो परमात्मा है, वे ही सबके शुभ और अशुभ को जानते हैं।
११. उपकारेण वीरो हि प्रतिकारेण युजयते ।
अकृतर्ज्ञो प्रतिकृतो हन्ति सत्ववंता मन:।।
जो वीर पुरुष किसी के उपकार से उपकृत होता है, वह प्रत्युपकार करके उसका बदला अवश्य चुकाता है; किन्तु यदि कोई उपकार को न मानकर या भूलाकर प्रत्युपकार से मुंह मोड़ लेता है, वह श्रेष्ठ पुरुषों के मन को ठेस पहुंचाता है।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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