गंगा जी की की उत्पत्ति कैसे हुई? क्या दक्षिण दिशा में बहने वाली गोदावरी भी गंगा का ही एक रूप या अंश है? अंतिम संस्कार के समय मनुष्य की अस्थियों को उत्तर भारत में गंगा या दक्षिण भारत में गोदावरी में प्रवाहित करने की प्रथा क्यों है?
देवी गंगा जी की उत्पत्ति के विषय में अनेक पौराणिक कथाएं एवं किवदंतियां प्रचलित है। सर्वाधिक प्रचलित कथा श्रीमद वाल्मीकि रामायण में वर्णित है, जिसे महर्षि विश्वामित्र ने श्री राम को सुनाया था । उस कथा से प्राय: सभी परिचित हैं। श्रीमद वाल्मीकि रामायण में वर्णित कथा में गंगा जी को गिरिराज हिमालय और मैना की ज्येष्ठ पुत्री बताया गया है जिन्हे स्वर्ग लोक में विचरण के लिए देवताओं ने गिरिरज हिमालय से प्राप्त किया था और महातपस्वी भगीरथ ने ब्रह्मा जी और शिव जी की अत्यंत कठोर तपस्या कर देवी गंगा को पृथ्वी पर अवतरित किया।
पुराणों में इस कथा का वर्णन एक अन्य रूप में किया गया है। श्रीमदभागवत महापुराण में बताया गया है की जब वामनावतार भगवान् विष्णु का दूसरा चरण जब ब्रह्मलोक में पहुंचा तब ब्रह्मा जी ने भगवन विष्णु का अर्ध्य देने के लिए अपने कमंडल के पवित्र जल से भगवान विष्णु का पाद्य प्रक्षालन किया। ब्रह्मा जी के कमण्डल से निकला वही पवित्र जल देवी गंगा के रूप में स्वर्गलोक में अवतरित हुआ।
ब्रह्मा जी में कमंडल में वह पवित्र जल कहाँ से आया तथा गंगा अवतरण पृथ्वी पर कैसे हुआ, इसका वर्णन श्री पद्म पुराण और श्री ब्रह्म पुराण में इस प्रकार किया गया है – पूर्वकाल में सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा जी के मूर्तिमती प्रकृति से कहा की ‘देवी ! तुम सम्पूर्ण लोको की सृष्टि का कारण बनो। मैं तुमसे ही संसार की सृष्टि आरम्भ करूँगा’। यह सुन कर परा प्रकृति सात रूपों में अभिव्यक्त हुई : गायत्री, वाग्देवी, लक्ष्मी, उमादेवी,शक्तिबीजा, तपस्विनी और धर्मद्रवा ।
पहली प्रकृति गायत्री से सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और वेद से सम्पूर्ण जगत की स्थिति है। स्वाति, स्वाहा, स्वधा और दीक्षा भी गायत्री से ही उत्पन्न मानी गयीं हैं।
दूसरी प्रकृति वाग्देवी (सरस्वती) सब लोगों के मुख और ह्रदय में विराजमान है तथा वही समस्त शास्त्रों का धर्मोपदेश करती है।
तीसरी प्रकृति लक्ष्मी से धन और आभूषणों की राशि उत्पन्न हुई है। सुख और त्रिभुवन का राज भी उन्ही की देन है।
चौथी प्रकृति उमा के द्वारा ही संसार में भगवन शंकर के स्वरुप का ज्ञान होता है। अतः उमा को ज्ञान की जननी ब्रह्मविद्या समझना चाहिए।
पांचवी प्रकृति शक्तिबीजा उग्र और समस्त विश्व को मोह में डालने वाली है।
छठी प्रकृति तपस्विनी तपस्या की अधिश्ठात्री देवी है।
सांतवी प्रकृति धर्मद्रवा है, जो समस्त धर्मों में प्रतिष्ठित है। धर्मद्रवा को सबसे श्रेष्ठ देखकर ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल में धारण कर लिया।
जिस समय वाममानवतार में भगवन विष्णु का चरण ब्रह्मलोक में पहुंचा तब ब्रह्मा जी ने धर्मद्रवा रुपी उत्तम, अमृतरूप, पावन जल भगवान विष्णु के चरणों में अर्ध्य रूप से चढ़ा दिया। वह पूज्य तथा पवित्र अर्ध्यजल मेरु पर्वत पर गिरकर चार भागों में बँट कर पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा में पृथ्वी पर जा पहुंचा। दक्षिण में गिरा हुआ जल भगवान शंकर की जटाओं में पहुंचा, पश्चिम का जल कमण्डल में वापस चला गया, उत्तर में गिरे हुए जल को भगवान् विष्णु ने ग्रहण किया तथा पूर्व में जो जल गिरा उसे देवताओं, पितरों और लोकपालों ने ग्रहण किया।
भगवान् शकर की जटाओं में गिरा हुआ दिव्य जल दो भागों में विभक्त हुआ क्योंकि उसे पृथ्वी पर अवतरित कराने वाले दो व्यक्ति थे – गौतम मुनि तथा राजा भगीरथ।
जल के एक भाग को व्रत दान और समाधि में तत्पर रहने वाले गौतम मुनि ने भगवान् शिव की आराधना करके भूतल तक पहुँचाया। गौतम मुनि ने भगवान शिव की तपस्या करके भगवान् शिव से उस दिव्य जल रुपी देवी को ब्रह्मगिरि पर्वत पर छोड़ने का वर माँगा तथा यह भी निवेदन किया किया की समुद्र में मिलने तक यह देवी तीर्थ होकर रहें। इनमे स्नान करने मात्र से मन, वाणी और शरीर द्वारा किये हुए समस्त पाप नष्ट हो जाएँ तथा तक यह देवी जहाँ जहाँ जाएँ वहां वहां आप अवश्य रहें।
भगवान् शिव के वरदान देने पर गौतम मुनि ने उनकी आज्ञा से देवी गंगा को ब्राहगिरि पर्वत पर प्रतिश्ठित किया। गौतम मुनि द्वारा स्थापित किये जाने के कारण वह गौतमी गंगा या गोदावरी कहलायीं।
उस पवित्र जल के दूसरे भाग को बलवान क्षत्रिय राजा भगीरथ ने भगवान् शिव की उपासना करके पृथ्वी पर उतारा। ईश्ववाकु वंशज राजा सगरके उद्दंड साठ हज़ार पुत्रों को श्रीभगवान स्वरुप कपिल मुनि द्वारा भस्म कर दिए जाने के कारण उनके पौत्र अंशुमन ने भगवान् कपिल की आराधन की तथा पितरों के तर्पण के लिए भगवान् शंकर को प्रसन्न करने के लिए अत्यंत कठोर तपस्या आरम्भ की। अंशुमान के बाद उनके पुत्र दिलीप तथा दीलिप के पश्च्यात उनके पुत्र भगीरथ ने भगवान शंकर की कठिन तपस्या की। भगवान शंकर के प्रसन्न होने पर भगीरथ ने उनकी जटाओं में स्तिथ उस पवित्र जल रुपी देवी को हिमालय पर्वत पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ा। छूटते ही गंगा जी सात धाराओं में बँट गईं। गंगा जी की तीन धाराएँ ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व की ओर प्रवाहित हुईं। सुचक्षु, सीता और सिन्धु नाम की तीन धाराएँ पश्चिम की ओर बहीं और सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे पीछे चली और राजा सागर के जो पुत्र भस्म रूप में रसातल में पड़े थे उन्हें अपने जल से आप्लावित किया। उनके पवित्र जल के स्पर्श से भस्मीभूत हुये सगर के पुत्र निष्पाप होकर स्वर्ग को गये।
इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तीनो देवताओं के संयोग से पवित्रमय त्रिस्रोता, त्रिभुवन को पावन करती हैं।
हड्डियों में गंगा जी के जल का स्पर्श होने से राजा सगर के पुत्र अपने पितरों तथा वंशजों के साथ सर्वगलोक को गए इसीलिए अंतिम संस्कार के समय मनुष्य की अस्थियों को उत्तर भारत में गंगा जी या दक्षिण भारत में गोदावरी में प्रवाहित करने की प्रथा है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कवितावली मे कहा है सर्वव्यापी परमब्रह्म परमात्मा जो ब्रह्मा, शिव और मुनिजनों का स्वामी है, जो संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कारण है, वही गंगा रूप में जल रूप हो गया है-
ब्रह्म जो व्यापक वेद कहैं, गमनाहिं गिरा गुन-ग्यान-गुनी को।
जो करता, भरता, हरता, सुर साहेबु, साहेबु दीन दुखी को।
सोइ भयो द्रव रूप सही, जो है नाथ विरंचि महेस मुनी को।
मानि प्रतीति सदा तुलसी, जगु काहे न सेवत देव धुनी को।।(कवितावली-उत्तरकाण्ड 146)
इसी प्रकार श्री पद्म पुराण में कहा गया है :
गङ्गेती स्मरणादेव क्षयं यति च पातकम।
कीर्तिनादतिपापिनी दर्शनाद गुरुकलमशम।।
स्नानात पानाश्च जाह्वव्यां पितृणा तर्पणातथा।
महापातक वृन्दानी क्षयं यन्ति दिने दिने।।
अग्निना दहयाते तूलं तृण शुष्कं क्षणाद यथा।
तथा गंगा:जलस्पृश्यात पुंसां पापं दहेत क्षणात।।
अर्थात : गंगा जी के नाम का स्मरण करने मात्र से पातक, कीर्तन करने से अतिपातक तथा दर्शन करने से भारी पाप भी नष्ट हो जाते हैं। गंगाजी में स्नान, जलपान और पितरों का तर्पण करने से महापातकों की राशि का प्रतिदिन क्षय होता है। जैसे अग्नि का संसर्ग होने से रुई और सूखे तिनके क्षण भर में भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार गंगा जी अपने जल का स्पर्श होने पर मनुष्यों के सर्वस्त्र पाप क्षण भर में दग्ध कर देती है।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
सन्दर्भ :
श्रीमदभगवात महापुराण,अष्ठम स्कंध,अध्याय २१
श्री पद्म पुराण, सृष्टि खंड। अध्याय ६०
श्री ब्रह्म पुराण, अध्याय ३८, ३९
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