हिन्दू सभ्यता में ‘अतिथि देवो भव:’ की संतुती क्यों की गयी है? अतिथि को देवतुल्य क्यों माना जाता है? अतिथि की क्या परिभाषा है ?
मनुस्मृति में कहा गया है :
संपराप्ताय त्वतीथये प्र्द्द्यादासनोदके।
अन्न चैव यथाशक्ति सत्कृत्य विधिपूर्वकम।।
(आए हुए अतिथि का आसान, जल और अन्न से यथा शक्ति सत्कार करना चाहिए)
श्री विष्णुपुराण में भी कहा गया है कि गृहस्थ आश्रमि के घर यदि अतिथि आ जाए तो गृहस्थ को चाहिये की उसका स्वागत आदि से तथा आसान देकर और चरण धोकर सत्कार करे। उसके पश्चात श्रद्धा पूर्वक भोजन करवा कर मधुर वाणी से उसका सत्कार करे। अतिथि के प्रस्थान समय उसके पीछे जा कर उसको प्रसन्न चित्त के साथ विदा करे। यदि घर में अन्न ना हो तो भी तृणआसन, भूमि, जल और मधुर वाणी से अतिथि का सत्कार करे क्योंकि सतपुरुषों के यहाँ ये वस्तुएँ सदा विद्यमान रहती हैं।
जो मनुष्य एक रात्रि गृहस्थ के यहाँ निवास करता है उसे अतिथि कहते हैं। वह केवल एक रात्रि निवास करता है, नित्य नहीं रहता इसीलिए अ+तिथि कहा जाता है। जिसके कुल और नाम का ना पता हो और वो और किसी और देश या गाँव से आया हो उसी का अतिथि सत्कार करना चाहिए। अपने ही गाँव में रहने वाले का अतिथि रूप में पूजन उचित नहीं है।
जिसके पास कोई सामग्री ना हो , जिसके कोई सम्बन्ध ना हो , जिसके कुल शील का कुछ पता ना हो तथा जो भोजन करना चाहता हो ऐसे अतिथि का सत्कार किए बिना अन्न ग्रहण करने वाला मनुष्य पाप का ही भोग करता है। अतिथि के अलावा देवता, ब्राह्मण, परिव्राजक, ब्रह्मचारी तथा भिक्षुगण भी अतिथि कहलाते हैं। इन सब का पूजन करने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।
जिस घर से अतिथि निराश होकर लौट जाता है, उस घर को वह अपने पाप देकर उसके शुभकर्मों को ले जाता है।
धाता, प्रजापति, इन्द्र, अग्नि, वसुगण और अर्यमा – यह समस्त देवगण अतिथि में प्रविष्ट होकर अन्न भोजन करते हैं। इसीलिए अतिथि को देवतुल्य मान कर अतिथि की पूजा के लिये निरंतर प्रयत्न करना चाहिए।
।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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