Home 2019 February 27 हिन्दू सनातन धर्म में विवाह की क्या मान्यता है? विवाह से पूर्व कन्या पक्ष द्वारा वर का पूजन क्यो

हिन्दू सनातन धर्म में विवाह की क्या मान्यता है? विवाह से पूर्व कन्या पक्ष द्वारा वर का पूजन क्यों किया जाता है ?

हिन्दू सनातन धर्म में विवाह की क्या मान्यता है? विवाह से पूर्व कन्या पक्ष द्वारा वर का पूजन क्यों किया जाता है ?

हिन्दू सनातन धर्म में विवाह संस्कार सर्वोपरि महत्व का है। विवाह के उपरान्त ही ब्रह्मचर्य आश्रम की पूर्णता होती है तथा गृहस्थ आश्रम में प्रवेश होता है। मनुष्य की आयु का दूसरा भाग अर्थात 25-50 वर्ष की आयु गृहस्थ आश्रम में व्यतीत करना चाहिए-” द्वितित्य मयशो भागं कृतदारो गृहे वसेत” (मनु 4।1)। गृहस्थ आश्रम को समस्त आश्रमों का उपकारक बताया गया है गृहस्थ आश्रम विवाह संस्कार के अनंतर ही शक़्य है- “चत्वार आश्रम: प्रोकता: सर्वे गृहस्थ्स्यमूलक:”। यह भी कहा गया है की जिस प्रकार सभी जीव माता के आश्रय से ही जीवित रहते हैं , वैसे ही सभी आश्रम गृहस्थ आश्रम के आश्रय से ही जीवित रहते हैं –

यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवंती जन्तव:।
तथा गृहश्रम प्राप्य सर्वे जीवंती चाश्राम:।
(वसिष्ठ स्मृति 8।176)

इसी प्रकार जैसे समस्त आश्रमों का मूल गृहस्थ आश्रम है, उसी प्रकार गृहस्थ आश्रम का मूल है – स्त्री या पत्नी – “गृहवासो सुखार्थो हि पत्नीमूलं च तत्सुखम” (दक्ष स्मृति 4)। गृहिणी होने से ही गृह की गृह संज्ञा है – अर्थात घर में गृहिणी के होने से ही घर घर बनता है – “न गृहं गृहमत्याहुगृहिणी गृहमुच्यते” ।

हिन्दु सनातन धर्मानुसार विवाह वर वधू से मध्य मात्र एक अनुबंध, क़रार या समझौता ना होकर एक पवित्र आध्यात्मिक सम्बंध है, जो अग्नि एवं अन्य देवताओं से साक्ष्य में सम्पादित होता है। लौकिक दृष्टि से कि उत्सव मात्र प्रतीत होने वाला यह संस्कार जीवन में सभी प्रकार की मर्यादाओं की स्थापना करने वाला है। संतान उत्पत्ति द्वारा पित्र ऋण से मुक्ति दिलाने वाला यह संस्कार संयमित ब्रह्मचर्य , सदाचार, अतिथि सत्कार तथा प्राणियों की सेवा करते हुए स्वयं के उत्थान में सहज साधन के रूप में प्रतिष्ठित है। वेद मंत्रों से विवाह संस्कार शरीर और मन पर विशिष्ट संस्कार उत्पन्न करते हैं और पति पत्नी पूर्णता प्राप्त होते हैं। कितने ही धर्म कृत्य बिना पत्नी की उपस्थिति के सम्पन्न नही हो सकते।

एकपत्नीव्रत लिए पति तथा पतिव्रत लिए पत्नी की मान्यता केवल हिन्दू सनातन धर्म विवाह पद्धति में ही पायी जाती है । विश्व के किसी भी अन्य समुदाय या समाज में ऐसी विचारधारा नही है – विवाह या तो मात्र अनुबंध है या केवल समझौता। हिन्दू सनातन धर्म में धार्मिक संस्कार होने के कारण ही विवाह प्रक्रिया अविच्छिन्न सम्बंध प्रदान करती है। स्त्री पतिव्रता धर्म का निर्वाह करती है तथा पुरुष एक पत्नी व्रत का संकल्प लेता है। अतः यह दोनो का संस्कार है।

हिन्दु सनातन विवाह संस्कार में उपस्थित वर को भगवान विष्णु स्वरूप मान कर सर्वाधिक पूजनीय माना जाता है। इसलिए वर को पाद्य, अर्ध्य, आचमन, विष्टर, मधुपर्क तथा गोदान अर्पित कर उसका सत्कार किया जाता है। इसके पश्चात संकल्पपूर्वक कन्यादान होता है, यह महादान कहा गया है। कन्या दाता को राजा वरुण की उपाधि दी जाती है। वर साक्षात नारायण तथा वधू साक्षात लक्ष्मी। भगवान को लक्ष्मी देकर जिस पुण्य का अर्जन होता है, वही कन्यादाता को प्राप्त होता है।

विवाह में अनेक कर्म प्रचलित है, कुछ प्रधान है, कुछ अंगभूत हैं तथा कुछ कुल परम्परा के आचार से प्राप्त हैं – कन्याप्रतिग्रह, पाणिग्रहण, लजहोम, सप्तपादि तथा जयदिहोम प्रधान है। मधुपर्क, दिन में सूर्यावेक्षण, रात्रि में ध्रुवावेक्षण, अभिषेक तथा चतुर्थी कर्म – अंगभूत कर्म हैं। शाखोचार, ग्रंथिबंधन, अन्त:पटकरण, सिंदूरदान आदि आचार प्राप्त कर्म हैं ।

विवाह संस्कार में कन्या प्रतिग्रह के पश्चात वर अग्निदेव की प्रदक्षिणा करके वधू को स्वीकार करता है, वैवाहिक अग्नि की स्थापना पूर्वक होम होता है। इस होम में वैदिक मंत्रों द्वारा दाम्पत्य जीवन को सुखमय, सफल और धर्म तथा यश से सामुन्नत बनाने लिए प्रार्थनाएँ की जाती है। वर वधू के सगुंषेठ दक्षिण हस्त को ग्रहण करके गृहस्थ आश्रम को निभाने के प्रतिज्ञा तथा आजीवन साथ रहकर परस्पर सहयोग उद्घोषणा करता है । लजोहोम में वधू पतिकुल और पित्रकुल दोनो की मंगल कामना करती है और गह्रपत्य अग्नि से पति के दीर्घ जीवन की प्रार्थना करती है। अशमारोहण में पति पत्नी के अविचल सौभाग्य की प्रार्थना करता है। अग्निपरिक्रमा में अग्निदेव के शुभ आशीर्वाद की प्रार्थना की जाती है। सप्तपादि में पति पत्नी के माँगलिक दृढ़ सख्य सम्बन्धों की प्रतिष्ठा होती है। ध्रुव, अरुंधती व सप्तर्षि दर्शनों से आजीवन सम्बंध कि सुदृढ़ता तथा धर्म पालन की प्रेरणा होती है।

इस प्रकार हिन्दू सनातन धर्म में विवाह संस्कार मात्र लौकिक उत्सव ना होकर, वर वधू दोनो के जीवन को मंगलमय बनाने, धर्मचारण करने और सुयश प्राप्त करने की धार्मिक प्रक्रिया है।

 

।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।

Author: मनीष

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