हिन्दुओं द्वारा मूर्ति पूजा, ईश्वर की साकार रूप में उपासना सही है या गलत ? क्या हिंदु पत्थर या धातु की पूजा करते हैं ? क्या हिंदू बुतपरस्त हैं ?
हम इस विषय में हम अनेकों बार अपने विचार रख चुके हैं परन्तु हिंदु धर्म में साकार और निराकार उपासकों के पृथक पृथक विचारों के कारण यह प्रश्न हमेशा चर्चा का विषय रहता है। प्राय: निराकार उपासकों द्वारा यजुर्वेद,अथर्ववेद के के श्लोकों द्वारा यह प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है की मूर्ति पूजा वेद सम्मत नहीं है:
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:।
हिरण्यगर्भस इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान जात: इत्येष:।।- यजुर्वेद
(जिस परमात्मा की हिरण्यगर्भ, मा मा और यस्मान जात आदि मंत्रो से महिमा की गई है उस परमात्मा (आत्मा) का कोई प्रतिमान नहीं। अग्नि वही है, आदित्य वही है, वायु, चंद्र और शुक्र वही है, जल, प्रजापति और सर्वत्र भी वही है। वह प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता है। उसकी कोई प्रतिमा नहीं है। उसका नाम ही अत्यन्त महान है। वह सब दिशाओं को व्याप्त कर स्थित है। )
यो भूतं च भव्य च सर्व यश्चाधितिष्ठति।
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।।अथर्ववेद
(जो भूत, भविष्य और सबमें व्यापक हैं, जो दिव्यलोक का भी अधिष्ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है। वहीं हम सब के लिए प्रार्थनीय और वही हम सबके लिए पूजनीय हैं।)
परन्तु सबसे प्रिय तर्क संत कबीर दास जी का दोहा है जिसे सदैव एक शस्त्र के रूप में उद्धृत किया जाता है:
पाहन पुजे तो हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़।
ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार।
(यदि पत्थर कि मूर्ती कि पूजा करने से भगवान् मिल जाते तो मैं पहाड़ कि पूजा कर लेता हूँ। उसकी जगह कोई घर की चक्की की पूजा कोई नहीं करता,जिसमे अन्न पीस कर लोग अपना पेट भरते हैं।)
जैसा की हम पहले ही बता चुके हैं। पूर्ण ब्रह्म परमात्मा केवल एक हैं, वे ही सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी और सर्वश्रेष्ठ है और वस्तुतः प्रत्येक इष्टदेव उन्ही पूर्ण ब्रह्म परमात्मा के पूर्ण या अंश स्वरूप हैं। वह परमात्मा ही सकल जीवों के आधार हैं जो एक परम ज्योति पुञ्जय के रूप में विद्यमान हैं तथा इस चराचर जगत को नियंत्रित करते हैं। भक्तों की रक्षा करने के लिए साकार रूप में भी समय समय पर प्रकट होते हैं तथा प्रलय काल में अपने अंदर समेट लेते हैं
मनुष्य के भीतर यह योग्यता है कि सर्वशतिमान परमात्मा के साथ अपने आत्मा का सम्बन्ध जोड़ ले । इस तत्व के ठीक से समझने और कर लेने पर वह योगी मनुष्य परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तथा अपनी आत्मा में उस दिव्य शक्ति का अनुभव करता है। परन्तु साधारण मनुष्य को परमात्मा दिखाई नहीं देते, उनके पास क्षणभर में कैसे जाया जाय, उपासना किस तरह की जाये। ऐसे प्रश्नों के उत्तरमें ही श्रीभगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता के द्वादशाध्यायमे साकार निराकार उपासना का रहस्य बताया था:
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥ ॥२॥
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥॥३-४॥
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥ ॥५॥
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥ ॥६॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥ ॥७॥
मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं॥२॥
परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं॥३-४॥
उन सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है क्योंकि देहाभिमानियों द्वारा अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है॥५॥
परन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं।॥६॥
हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ॥७॥
श्रीभगवानके इन वचनो से निश्चित होता है कि जब तक इन्द्रियाँ पूरी तरह से वश में न आ जाय और देहाभिमान नष्ट होकर पूर्ण वैराग्य की प्राप्ति न हो जाये, तब तक निराकार की उपासना असम्भव है। इसी कारण मध्यम मनुष्य की सुविधा के लिये महर्षियों ने साकार मूर्तिपूजा की संतुति की है।
दुसरे शब्दों में जिस साधक ने ज्ञान और वैराग्य की साधना को पूर्ण कर लिया है वही सीधा निराकार परब्रह्म के पास पहुँच कर उनकी उपासना कर सकता है । अपितु मूर्तिरूपी केन्द्र या आश्रय के द्वारा ही परमात्मा की शक्ति को प्रकट करके उपासना करना ही युक्तिपूर्वक है। यही मध्यम अधिकारी के मनुष्य के लिये मूर्तिपूजा बताने का हेतु है।
मनुस्मृति में भी कहा गया है
अभिवादनशीलस्य नित्य वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि सम्मवर्द्धन्त आयुर्विद्यायशोवलम् ॥ (मनु. द्वि, अ १२१)
वृद्धों तथा पूज्य के चरणस्पर्श तथा नित्य प्रणाम सेवा करने वालों मे उनकी चार शक्ति -आयु, विद्या, यश, बल प्रवेश करती है ।
जब लौकिक गुरुओंकी पूजा करनेसे आयु, ज्ञान, यश, बल मिलते हैं तो जगद्गुरु परमात्मा की पूजा करनेसे ये शक्तियाँ अवश्य ही प्राप्त होंगी और भक्त भगवान की साकार रूप में पूजा करके आनन्दमय मोक्ष लाभ अनायास ही कर सकेंगे इसमें सन्देह नही है।
मूर्ति तो पत्थर, लकडी, लोहे आदि की होती है। उसकी पूजासे भगवान की पूजा कैसे होगी ?
इसका उत्तर यह है कि हम मूर्ति “की” पूजा नहीं करते है किन्तु मूर्ति “में” पूजा करते है। हम प्रतिमा के मसाले,पत्थर, लकड़ी, धातु आदि की पूजा या स्तुति नहीं करते है, किन्तु इन तत्वों से प्रतिमा बनाकर उसमे परमात्मा की शक्ति को प्रकट कर उस दिव्य शक्ति की पूजा या स्तुति करते है ।
मूर्ति पूजा की आलोचना करने वालों को यह ज्ञान होना चाहिए की जब तक किसी भी मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा नहीं हो जाती उसको भगवान् का रूप नहीं समझा जाता। किसी भी देवता या देवी की मूर्ति स्थापना के समय उन देवी या देवता के बीज मन्त्र का उच्चारण करके और षोडश उपचार के द्वारा परमात्मा की शक्ति का आह्वाहन उस मूर्ति में किया जाता है और प्राण प्रतिष्ठा के उपरांत ही उन देवता या देवी रुपी मूर्ति की पूजा याअर्चना की जाती है।
उदाहरण के लिए आप अनेकों गणेश मूर्तियों को आजकल सड़क के किनारे रखा पाएंगे परन्तु वह भगवान् नहीं है क्योंकि उनकी प्राण प्रतिष्ठा नहीं की गयी वे एक कलाकृति से अधिक कुछ नहीं हैं जब तक उनकी विधिवत प्राण प्रतिष्ठा ना की जाये।
कापिल तन्त्र में लिखा है:-
गवां सर्वाङ्गर्ज क्षीरं स्रवेत् स्तनमुखाद यथा ।
तथा सर्वाग्रतो देवः प्रतिमादिषु राजते ।
जिस प्रकार गऊ माताके समस्त शरीर से उत्पन्न हुआ दूध स्तनके द्वारा निकलता है, उसी प्रकार परमात्मा की सर्वव्यापक शक्ति प्रतिमा में अधिष्ठान करती है। यह शक्ति आती किस विधि से है इस विषयमें लिखा है:
आभिरूप्याच विम्वस्य पूजायाध विशेषतः।
साधकस्य च विश्वासाद् देवतासन्निधिर्भवेत् ॥
प्रतिमाके ध्यानानुसार सुन्दर तथा ठीक ठीक बनने से, प्राणप्रतिष्ठा और पूजा विशेषरूपसे होने से तथा भक्तों में पूर्ण श्रद्धा विश्वास होने से प्रतिमा में दिव्यशक्ति आ जाती है।
भक्त प्रह्लाद में विश्वास और भक्ति की शक्ति थी इसी से उन्होंने भगवान की दिव्य शक्ति को नृसिंहरूप से स्तभ्म के द्वारा प्रकट करा दिया था। भगीरथ में तपस्या की शक्ति थी, तभी उन्होंने स्वर्ग से गङ्गादेवी की दिव्य शक्ति को मृत्युलोक में आकर्षित किया था। इसी प्रकार पूजा की शक्ति, भक्तों के विश्वास-भक्ति रुपी शक्ति भगवान् की शक्ति को प्रतिमारूपी आधार द्वारा आकर्षित करती है। इस प्रकार ठीक ठीक आकर्षण होनेपर प्रतिमा चमकने लगती है और उसमें अनेक चमत्कार भी देखनेमें आते हैं।
सामवेद के ३६वें ब्राह्मणमें लिखा है:-
देवतायतनानि कम्पन्ते दैवतमतिमा हसन्ति रुदन्ति वृत्यन्ति स्फुटन्ति स्विद्यन्त्युन्मीलन्ति निमीलन्ति।
देवताओं के स्थान कांपते है, देव प्रतिमा हंसती है, रोती है, नाचती है, किसी अङ्गमें स्फुटित हो जाती है, पसीजती है, नेत्र खोलती हैं, बन्द करती है। और
अथर्ववेद में भी लिखा है –
एहि अश्मानमातिष्ठ अश्मा भवतु ते तनु। (२-१३-४)
हे भगवन! आओ इस पाषाणनिर्मित प्रतिमा में अधिष्ठान करो, तुम्हारा शरीर यह पायाणमयी प्रतिमा हो जाय ।
अतः यह कहना की वेद मूर्ति पूजा की संतुति नहीं करते मिथ्या है।
उपरोक्त प्रमाणों तथा विचारों से सिद्ध होता है कि हम लोग मूर्ति की पूजा नही करते है, हम ‘बुतपरस्त‘ नही हैं, किन्तु मूर्ति में भगवान की दिव्य शक्ति को प्राण प्रतिष्ठा द्वारा आकर्षित करके उस शक्ति की पूजा करते है और इस प्रकार मूर्तिरूपी आधारके द्वारा परमात्मा के समीप पहुंचनेपर हमें आयु, ज्ञान, विद्या, शक्ति तथा आनन्द प्राप्त होता है और अन्त में मोक्ष मिलता है।
अंत में संत कबीरदास जी के दोहे का आश्रय ले कर कुतर्क करने वालों से यही कहेंगे की आप कंकड़, पत्थर, पहाड़, चक्की जिस किसी की चाहे पूजा करें आपको तब तक भगवान् की प्राप्ति नहीं हो सकती जब तक आप (१) उसकी विधिपूर्वक मूर्ति बना कर उसकी प्राण प्रतिष्ठा कर उसमे भगवान् की शक्ति का आह्वाहन नहीं करते और (२) आपके मन में भगवान् के प्रति पूजा, आदर, श्रद्धा और प्रेम का भाव नहीं है। कबीरदास जी ने यह भी कहा है की :
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोए।
ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होए ।।
ईश्वर और सनातन धर्म की निंदा छोड़ कर, भगवान से प्रेम कीजिये , उनमें अपना चित्त लगाइये, आपका कल्याण अवश्य होगा।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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