Home 2019 February 27 सवाल – अधर्म और धर्म का – निर्णय आपका !!!

सवाल – अधर्म और धर्म का – निर्णय आपका !!!

सवाल – अधर्म और धर्म का – निर्णय आपका !!!

हमारे एक बंधु ने हमसे एक सवाल पूछा की क्या सुलेमान रिज़वी के द्वारा लिखे गए लेखों में जोकि truthabouthinduism पर प्रकाशित होते हैं में कुछ सच्चाई है और क्या वास्तव में वेदों में ऐसा कुछ लिखा हुआ है।

सनातन हिन्दू होने के नाते हम केवल इतना कह सकते है हमारा धर्म किसी और सम्प्रदाय के बारे में आपत्तिजनक प्रवचन करने की शिक्षा हमें नही देता ना ही हमें अपने धर्म को ऊँचा दिखाने के लिए कोई अनुचित प्रयास करने की कोई आवश्यकता है। यह तो मात्र इसी बात से स्पष्ट है की विश्व में केवल हिन्दू सनातन धर्म ही ऐसा है जिसमें प्रार्थना समाप्त होने के पश्चात हर हिन्दू द्वारा धर्म की जय, अधर्म के नाश, प्राणियों में सदभावना तथा विश्व के कल्याण की कामना का प्रण लिया जाता है।

वास्तव में उपरोक्त website का मुख्य उद्देश्य किसी तरह हिन्दू धर्म को नीचा दिखाना है और कोई भी पोस्ट इस लायक नही है जिसका उत्तर दिया जाना चाहिए। वेदिक मंत्रों का अर्थ निकालने की विधि प्रदर्शित करती है कि कोई मूढ़ व्यक्ति ही इन सब को लिख कर अपना समय गँवा रहा है। उसकी परिभाषा और श्लोक के अर्थ का वर्णन कुछ ऐसा है कि कोई मूर्ख “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” का अर्थ “राधिका द्वारा कर्मे के रास्ते मे फल बेचने का काम करना” बताए या “बहुनि मे व्यतीतानि,जन्मानि तव चार्जुन” का अर्थ “मेरी बहू के कई बच्चे पैदा हो चुके हैं,सभी का जन्म चार जून को हुआ है” बताए।

जैसा कि हमने ऊपर कहा है की कोई भी पोस्ट उत्तर देने के लायक नही है परंतु क्योंकि सवाल हमारे एक बंधु द्वारा पूछा गया है, हम इसका स्पष्टीकरण दे रहे हैं। आपसे निवेदन है की हिन्दू धर्म की गरिमा की बनाए रखिए और कॉमेंट में केवल जय श्री राम, हर हर महादेव, जय माता दी या अन्य कोई भी भगवान के नाम का स्मरण करके हमारा समर्थन करें।

सवाल है कि क्या यजुर्वेद के अध्याय २३ में अश्वमेध यज्ञ में होने वाले कुछ अश्लील संदर्भों का वर्णन किया गया है।

इस सवाल के विषय में केवल इतना कहना चाहेंगे कि, वेदों और संस्कृत के श्लोकों को केवल उनके शब्द अर्थ के आधार पर नहीं समझा जा सकता। एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं तथा हर शब्द का अलग अर्थ निकला जाता सकता है अगर उसके भावार्थ को ना समझा जाए । अधर्मियों द्वारा केवल एक श्लोक के आधार पर यह साबित करने को कोशिश की जाती है की हिन्दू धर्म सबसे पतित है और उसका कोई आधार नहीं है। सलेमान रिज़वी द्वारा लिखा गया लेख भी इसी का उदाहरण है और ज़ाकिर नाइक द्वारा यजुर्वेद के अन्य श्लोकों का उदाहरण भी।

हिन्दू शास्त्रों में लिखी गयी भाषा को सरल तो कदापि कहा ही नहीं जा सकता, उसके साथ ही उनके भावार्थ भी अत्यंत गूढ़ है और उसको समझने ने लिए ये नितांत आवश्यक है की पूरे प्रकरण पर विचार करके उसका भाव समझा जाए। ऋषि, देवता, मंत्र व छंदों के रटने या पढ़ने मात्र से ही उनका अर्थ स्पष्ट नहीं हो जाता परंतु थोड़ा विचार करने से उसका अभिप्राय स्पष्ट होता है । वेदों के पश्चात उपनिषद इसी गूढ़ अर्थ को समझने के लिए बनाए गए थे जिसमें गुरु अपने शिष्यों को वेदों का सही अर्थ समझाते थे।

किसी भी कथन का वास्तविक भाव उसके संदर्भ का ज्ञान जाने बिना अत्यंत दुष्कर कार्य है। यदि आपसे कोई कहे ‘ हम तो धन्य हो गए’ इसका अर्थ बिना संदर्भ के श्रद्धा परक, प्रसन्नता परक और व्यंग्य परक भी हो सकता है। इसी प्रकार सामान्य दृष्टि से ‘मो सो कौन कुटिल खलकामी’ कहने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से कोई अधर्मी ही जान पड़ता है किंतु यह पता लगने पर की इस वाक्य को कहने वाले संत सूरदास हैं इसी कथन को गहन आध्यात्मिक आत्मचिंतन संदर्भ में लिया जाएगा ।

यही स्तिथी मंत्रों की भी है, ऋषि के व्यक्तित्व और संदर्भ का ज्ञान लिए बिना केवल एक अधूरे मंत्र का अर्थ निकल कर उसे शास्त्र विरुद्ध शैली में प्रस्तुत कर देना कहीं से भी तर्क संगत प्रतीत नहीं होता । भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:

सर्व धर्मानपपारितज्य मामेकं शरणन व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यों मोक्ष यिश्यमी मां शुच:।। (१८.६६)

उपरोक्त श्लोक का अर्थ भी कुछ मूढ़ यह निकलते हैं की की केवल श्री कृष्ण ( ना विष्णु, ना शिव, ना राम, ना कोई और देवी देवता) ही मोक्ष दायक हैं अत: केवल उनकी शरण में ही जाना चाहिए। जबकि अभिप्राय श्री भगवान से हैं क्योंकि कृष्ण स्वयं अवतारी थे। तब विधर्मियों की बात का विश्वास करना जिन्हें अपने धर्म का ख़ुद ज्ञान नहीं है बिलकुल व्यवहारिक नहीं है।

इसलिए मंत्रार्थ के संदर्भ में भी यह जानना अत्यंत आवश्यक है की उसका अभिप्राय क्या है। यजुर्वेद से ही एक उदाहरण देखिए

माता च पिता च ते s ग्रे वृक्षस्य क्रेडित: (२३.२५)

इसका सीधा शब्द अर्थ बहुत अश्लील – तुम्हारे माता पिता वृक्षाग्र पर चढ कर क्रीड़ा कर कर रहे हैं निकलता है परंतु सम्पूर्ण मंत्र के संदर्भ में कुछ और ही है । कुछ समझदार वृक्षाग्र का अर्थ काष्ठ से बने पलंग का अग्रभाग भी निकलते हैं। क्या इस पर विश्वास कर लेना चाहिए?

अब अश्व और मेध का संदर्भ देखिए। यजुर्वेद के श्लोक २३.५४ में कहा गया है – सर्वप्रथम जानने योग्य द्यो ही है। सबसे बड़ा पक्षी अश्व ही है, सर्वाधिक शोभायमयी अवि ही है और रात्रि सभी रूपों को निगलने वाली रात्रि ही है । प्रश्न यह है की अश्व बड़ा पक्षी कैसे हो सकता है और अवि- भेड़ शोभमयी कैसे । अश्व से यहाँ संदर्भ अग्नि से है तथा बड़े पक्षी से तीव्र उड़ने वाला, अवि से रक्षा करने में समर्थ पृथ्वी। इस प्रकार यदि आप इसकी संदर्भ देखेंगे तो उचित जान पड़ेगा, अपितु इस मंत्र का कोई अर्थ नहीं निकलता।

अश्व का सम्बोधन लोकिक संदर्भ में घोड़े के लिए प्रयुक्त होता है किंतु गुण वाचक संज्ञा में इसका प्रयोग तीव्र गति वाले, शीघ्रता से सर्वत्र संचारित होने वाले में किया जाता है इस परिभाषा के अनुसार वेदों ने किरणो को, अग्नि को, सूर्य को और ईश्वर को भी अश्व की संज्ञा दी है। बृहदारणयक उपनिषद (१.१.१.) में कहा गया है उषा याग सम्बंधी अश्व का शिरोभाग है, सूर्य नेत्र हैं, वायु प्राण है, वैशनवर अग्नि उसका खुला हुआ मुख है संवत्सर यज्ञीय अश्व की माता है द्युलोक उसका पृष्ठ भाग है, अंतरिक्ष उदर है, दिशाएँ पार्श्व भाग है, अवंतर दिशाएँ पसलियाँ हैं, ऋतुएँ अंग हैं, दिन और रात्रि प्रतिष्ठा हैं, आकाश माँस है, जमभाई लेना बिजली चमकना है तथा शरीर का हिलना मेघों गरजना है। क्या इस मंत्र में अश्व नामक कोई पशु हो सकता है, निश्चित रूप से नहीं परंतु सूर्य के तेज़ या यज्ञिय ऊर्जा के लिए हो सकता है।

इसी प्रकार वेदों में मेध शब्द का प्रयोग यज्ञ के पर्यायवाची के रूप में किया गया है। यज्ञ के १४ नामों में ‘अध्वर’ और ‘मेध’ भी सम्मिलित हैं। अध्वर का शाब्दिक अर्थ ही होता है हिंसा का निषेध करने वाला कर्म। मेध शब्द का उपयोग तीन संदर्भों में किया जा सकता है १. हिंसा २. मेधा-संवर्धन ३. संगतिकरण। यदि यज्ञ अध्वर है तो मेध का अर्थ हिंसा तो हो ही नहीं सकता इसलिय मेध शब्द का अर्थ मेधा-संवर्धन या संगतिकरण के रूप में ही किया जाना चाहिए।

शतपथ ब्राह्मण(१.३.३.१.४) पहला अश्वमेध प्रयोग प्रजापति ने सृष्टि का क्रम चलाने के लिय लिया था। प्रजापति ने सर्वत्र संचारित दिव्य मेधा को देखा, उसे सृष्टि में होमा प्रविष्ट करवाया तो सृष्टि का क्रम चल पड़ा। अश्वमेध की परम्परागत प्रक्रियायों में सूचीवेध प्रक्रिया का भी अर्थ रानियों द्वारा अश्व के शरीर को बींधा जाना बताया जाता है परंतु इसका स्पष्टीकरण भी यही तर्कसंगत जान पड़ता है की – पूर्वकाल में यज्ञ कई दिनो तक और बड़े बड़े कुंडों में होते थे यज्ञ का नियम है कि समिधाएँ किनारे किनारे लगाई जाती हैं तथा आहुतियाँ बीच में समर्पित हो जाती है उन आहुतियाँ का एक बड़ा पिंड बन जाता है जिसे तोड़ा तो नहीं जा सकता परंतु अग्नि में पचाने के लिए वेधा या बींधा अवश्य जा सकता है। हवन की गयी औषधियों के पूर्ण लाभ के लिए पिंड को रानियों द्वारा वेधा जाना ही उचित जान पड़ता है।

इस बात से इंकार नही किया जा सकता की भगवान बुद्ध के अभिर्भाव तक पशु हिंसा समेत अनेक विकृतियाँ वैदिक कर्मकांडों प्रवेश कर गयी थी और उनके साथ तंत्र के प्रयोग भी जुड़ गए थे इसलिए कुछ आचार्यों को जिन्होंने इसका अनुमोदन किया है दोष नही दिया जा सकता परंतु वैदिक दृष्टि से यज्ञों में हिंसा का कोई स्थान नही है । भगवान बुद्ध ने उस समय प्रचलित यज्ञों विरोध किया था और उनके प्रभाव से वह परिपाटी लुप्त प्रायः हो गयी थी।

शुक्ल पक्ष यजुर्वेद के श्लोक २३.१५, २३.१९ तथा कृष्णपक्ष यजुर्वेद (तैतेरिय संहिता) के श्लोक ७.४.१९ का अर्थ:

वस्तुतः दोनो श्लोकों को यदि एक साथ रख कर देखा जाए तो दोनो कुछ शब्दों के हेर फेर से एक ही हैं। सभी प्रमुख मंत्र जिन के अर्थ का अनर्थ बना कर आपत्तिजनक अर्थ बताया गया है शुक्ल पक्ष यजुर्वेद के २३ अध्याय में सम्मिलित है । इसलिए दोनों अलग अलग अर्थ ना बता कर एक अर्थ ही बताया जा रहा है :

संदर्भ के लिय हम सम्पूर्ण २३ अध्याय को समझाए बिना श्लोक १७ से प्रारम्भ कर सकते हैं:

२३.१७

अ॒ग्निः प॒शुरा॑सी॒त्तेना॑यजन्त॒ स ए॒तँल्लो॒कम॑जय॒द्यस्मि॑न्न॒ग्निः स ते॑ लो॒को भ॑विष्यति॒ तं जे॑ष्यसि॒ पिबै॒ता अ॒पः ।
वा॒युः प॒शुरा॑सी॒त्तेना॑यजन्त॒ स ए॒तँल्लो॒कम॑जय॒द्यस्मि॑न्वा॒युः स ते॑ लो॒को भ॑विष्यति॒ तं जे॑ष्यसि॒ पिबै॒ता अ॒पः ।
सूर्य॑: प॒शुरा॑सी॒त्तेना॑यजन्त॒ स ए॒तँल्लो॒कम॑जय॒द्यस्मि॒न्त्सूर्य॒: स ते॑ लो॒को भ॑विष्यति॒ तं जे॑ष्यसि॒ पिबै॒ता अ॒पः

सर्व द्रष्टा अग्निरूप पशु (हवि) के द्वारा देवताओं ने यजनकिया। जिसके अग्नि तत्व प्रधान बल होता है, वह इस लोक को जीतता है। याजगण भी इस लोक को जीतने एवं उसके आश्रम पाने के निमित इस शाश्वत ज्ञान को आत्मसात करें।

सर्व द्रष्टा वायु रूप पशु ( हवि) के द्वारा देवताओं ने यजन किया। जिसमें वायु तत्व प्रधान बल होता है, वह इस लोक को जीतता है। याजगण भी इस लोक को जीतने एवं उसके आश्रम पाने के निमित इस शाश्वत ज्ञान को आत्मसात करें।

सर्व द्रष्टा सूर्य रूप पशु ( हवि) के द्वारा देवताओं ने यजन किया। जिसमें सूर्य तत्व प्रधान बल होता है, वह इस लोक को जीतता है। याजगण भी इस लोक को जीतने एवं उसके आश्रम पाने के निमित इस शाश्वत ज्ञान को आत्मसात करें।

२३.१४

अम्बे॒ अम्बि॒केऽम्बा॑लिके॒ न मा॑ नयति॒ कश्च॒न ।
सस॑स्त्यश्व॒कः सुभ॑द्रिकां काम्पीलवा॒सिनी॑म् ॥

शिथिल ( अप्रखर) अग्नि कंपील वसिनी( कंपील के वृक्ष की समिधाओं पर पड़ी हुई) सभद्रिकाओं ( श्रेष्ठ हवियों) के साथ सोती है ( अप्रवज्जलित स्तिथी में पड़ी है)। हवियाँ, तीन देवियों अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका से प्रार्थना करती है की हे अम्बे, अम्बिका और अम्बालिके हमें कोई ऐसी ( अप्रखर) अवस्था में ना ले जाएँ।

२३.१९ आहम॑जानि गर्भ॒धमा त्वम॑जासि गर्भ॒धम्

हे निधियों के बीच श्रेष्ठ निधिपती हम आपका आह्वान करते है। आप समस्त जगत को गर्भ में धारण करते है, पैदा प्रकट करते है। आपकी इस क्षमता को हम भली प्रकार जानें।

ता उ॒भौ च॒तुर॑: प॒दः सं॒प्रसा॑रयाव स्व॒र्गे लो॒के प्रोर्णु॑वाथां॒ वृषा॑ वा॒जी रे॑तो॒धा रेतो॑ दधातु ॥ २० ॥

आप दोनो- यज्ञिय ऊर्जा तथा देवशक्तियाँ स्वर्गलोक में एक दूसरे का संरक्षण करें। दोनो मिल कर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूपी चारों चरणों का विश्व में विस्तार करें। हे बलवान – वीर्य पराक्रम को धारण करने वाले आप हमें पराक्रम प्रदान करें (वीर्यवान बनाएँ)

उत्स॑क्थ्या॒ अव॑ गु॒दं धे॑हि॒ सम॒ञ्जिं चा॑रया वृषन् । य स्त्री॒णां जी॑व॒भोज॑नः ॥ २१ ॥

हे बलशाली – दुष्टों के दमन कर्ता। जो लोग अपनी स्त्रियों- बुद्धियों को क्रीड़ा एवं व्यसन में नियोजित करके अपनी जीविका चलाते हैं आप उनको प्रताड़ित करें और विद्या और न्याय में बुद्धियों के नियोजन द्वारा उत्तम सुख प्रदान करें

य॒कास॒कौ श॑कुन्ति॒काऽऽहल॒गिति॒ वञ्च॑ति । आह॑न्ति ग॒भे पसो॒ निग॑ल्गलीति॒ धार॑का ॥ २२ ॥

अधवयुर का कथन – यह जो शक्ति धारण किए प्रवाहमान जल है, शकुन्तिका (पक्षी) के समान आलहदजनित शब्द करता है । इस उत्पादक जल में यज्ञ तेज़ आता है। तेज़ धारण किया हुआ जल, गल गल शब्द करता है

य॒को॒ऽस॒कौ श॑कुन्त॒क आ॒हल॒गिति॒ वञ्च॑ति । विव॑क्षत इव ते॒ मुख॒मध्व॑र्यो॒ मा न॒स्त्वम॒भि भा॑षथाः ॥ २३ ॥

कुमारी का कथन – हे अधवयुर आपका बोलने को आतुर मुख शकुन्तक पक्षी की तरह सतत शब्द कर रहा है । आप निरर्थक बात ना करें – केवल यज्ञिय संदर्भ में अपनी वाणी का प्रयोग करें

मा॒ता च॑ ते पि॒ता च॒ तेऽग्रं॑ वृ॒क्षस्य॑ रोहतः । प्रति॑ला॒मीति॑ ते पि॒ता ग॒भे मु॒ष्टिम॑तसयत् ॥ २४ ॥

हे महिशि आपके माता और पिता ( अग्नि और हवि) वृक्ष के अग्रभाग पर ( समिधाओं के ऊपर) यज्ञिय प्रक्रिया के सहारे उधर्व गति को प्राप्त होते हैं तब प्रतीत होता है मानो वह कह रहे हों मैं प्रसन्न हूँ ।

मा॒ता च॑ ते पि॒ता च॒ तेऽग्रे॑ वृ॒क्षस्य॑ क्रीडतः । विव॑क्षत इव ते॒ मुखं॒ ब्रह्म॒न्मा त्वं व॑दो ब॒हु ॥ २५ ॥

महिशि का कथन – हे ब्रह्मा देवगण व हवि विश्व वृक्ष के उच्च भाग पर शक्ति प्रयोग रत है। आपका मुख बोलने को आतुर है। अधिक ना बोलें – केवल आवश्यक यज्ञिय उच्चारण करें

इस प्रकार संदर्भ के सहित श्लोक को समझने से कोई अश्लील अर्थ निकलना सम्भव हो ही नही सकता परंतु एक मनुष्य जिसने हिन्दू ग्रंथों का अर्थ ना समझा है, ना समझना चाहता है और जिसका अपना धर्म सबसे अधिक ग़लत व्याख्याओं से भरा हो तथा सम्पूर्ण विश्व के लिए चिंता का विषय हो, कोई भी अर्थ निकाल सकता है

इसी प्रकार हरिवंश पुराण और वाल्मीकि रामायण भी अलग ही अर्थ देते हैं। परंतु यदि मंत्र का केवल शब्दअर्थ ही निकला जाए तो वह कुछ भी अनर्थ दे सकता है।

आपसे निवेदन है की अधर्मियों की बात का विश्वास ना करें अपने धर्म में विश्वास रखें, यही शाश्वत सत्य और धर्म है ।

नारदपुराण में कहा गया है –

वेदप्राणीहितो धर्मों वेदों नारायण: पर:। तत्रश्रद्धापरा ये तु तेषं दूर तरो हरि:।।

अर्थात- धर्म का प्रतिपादन वेद में किया गया है और वेद साक्षात परम पुरुष नारायण का स्वरूप है। अतः वेदों में जो अश्रद्धा रखने वाले हैं, उनसे भगवान बहुत दूर हैं।

वेदों में आस्था रखिए, सत्य ज्ञान हम आप तक पहुँचते रहेंगे। धर्म की विजय और अधर्म का नाश केवल शाश्वत सत्य हिन्दू धर्म से ही सम्भव है।

 

।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।।

Author: मनीष

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