संतान उत्पत्ति के छठे, इक्कीसवें और अन्नप्राशन से समय पूजा क्यों की जाती है ?
संतान के जन्म के छठे, इक्कीसवें दिन तथा अन्नप्राशन के समय षष्ठी देवी की पूजा करने का विधान है। देवी षष्ठी बालकों की अधिष्ठात्री देवी हैं। मूल प्रकृति के छठे अंश के उत्पन्न होने के कारण इनको ‘षष्ठी’ देवी कहा जाता है। इन्हें ‘विष्णुमाया’ और ‘बालदा’ भी कहा जाता है। माताओं में देवसेना नाम से ये प्रसिद्ध हैं। साध्वी देवी को स्वामी कार्तिकेय की पत्नी होने का सौभाग्य प्राप्त है।
पूर्व समय में देवता और दैत्यों के युद्ध में जब देवता शीण हो गए तो इन देवी ने स्वयं सेना बनकर देवताओं का पक्ष लिया था और इनकी कृपा से देवता विजयी हो गए गय थे। इसीलिए इनका नाम देवसेना पड़ गया।
संतान को दीर्घायु बनाना तथा उनका भरण पोषण एवं रक्षा करना इनका स्वाभाविक गुण है। यह सिद्धयोगिनी देवी अपने योग के प्रभाव से सदा बालकों के पास उपस्थित रहती हैं। इनकी कृपा से सन्तान हीन व्यक्ति सुयोग्य सन्तान, प्रियाहीन जन प्रिया, दरिद्र धन, तथा कर्म शील पुरुष उत्तम फल प्राप्त कर लेते हैं।
पूजा करने वाले व्यक्ति को शालग्राम की प्रतिमा, कलश अथवा वट के मूलभाग में या दीवार पर पुत्तलिका बना कर प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न होने वाली षष्ठी देवी का ध्यान इस प्रकार करना चाहिए
“सुंदर संतान कल्याण तथा दया प्रदान करने वाली ये देवी जगत् की माता हैं। श्वेत फूल के समान इनका वर्ण है। रतन्मय भूषणों से ये अलंकृत हैं। इन परम पवित्र स्वरूपणि भगवती देवी की मैं उपासना करता हूँ।” इसके पश्चात भगवती को पुष्पांजलि अर्पित करके पुन: इनका ध्यान करे और मूल मंत्र से इन साध्वी देवी की पूजा करे। पाद्य, अर्ध्य, आचमन, गंध, धूप, दीप, विविध प्रकार के नैवेध तथा सुंदर फल द्वारा भगवती की पूजा करनी चाहिए।“
उपचार अर्पण करने के पूर्व ‘ॐ ह्रीं षष्ठीदेव्ये स्वाहा’ मंत्र का यथाशक्ति उच्चारण करना चाहिए।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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