षडलिंगस्वरूप प्रणव, सूक्ष्म रूप ॐकार और स्थूल रूप पंचाक्षर मन्त्र का माहात्म्य
प्रणव का अभिप्राय उस ॐकार रुपी सेतु से है जो मनुष्य को भवसागर से पार करता है।
प्र नाम है प्रकृति से उत्पन्न संसार रुपी महासागर का। प्रणव इसे पार करने के लिए (नाव) है इसलिए ओमकार को प्रणव की संज्ञा देते है। ओमकार अपने जप करने वालों साधकों से कहता है – प्र – प्रपंच, न – नहीं है, वः – तुमलोगों के लिए।
प्रणव का दूसरा भाव है – प्र – प्रकर्षेण, न -नयेत, वः – युष्मां मोक्षम इति व प्रणव: अर्थात यह सब उपासकों को बलपूर्वक मोक्ष तक पहुंचता है इसलिए ॐकार को प्रणव कहा जाता है। अपना जप करने वाले योगियों के तथा अपने मन्त्र की पूजा करनेवाले उपासक के समस्त कर्मों का क्षय करके यह दिव्य नूतन ज्ञान देता है इसलिए भी इसका नाम प्रणव है। प्र – कर्मक्षय पूर्वक, नव (नूतन ज्ञान देनेवाला )
श्री शिव महापुराण में भगवान् शिव ने कहा है – “मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत जिस मंत्र का उपदेश किया है वह ॐकार है। सबसे पहले मेरे मुख से ॐ कार प्रकट हुआ जो मेरे स्वरुप का बोध करने वाला है। ओमकार वाच्य है और मैं वाचक हूँ। यह मन्त्र मेरा ही स्वरूप है प्रतिदिन ओमकार का स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है। मेरे उत्तरवर्ती मुख से अकार का, पश्चिम मुख से उकार का , दक्षिण मुख से मकार का , पूर्ववर्ती मुख से बिंदु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ। इस प्रकार पांच अवयवों से युक्त ॐकार एकीभूत होकर प्रणव ‘ॐ’ नमक एक अक्षर हो गया।”
ॐ रुपी मन्त्र शिव और शक्ति दोनों का बोधक है। ‘अ’ शिव हैं ‘उ’ शक्ति है और मकर इन दोनों की एकता है। वह त्रितत्वरूप है ऐसा समझ कर प्रणव का जप करना चाहिए।
अक्षर रुपी ॐ सूक्ष्म प्रणव का बोधक है और नमः शिवाय स्थूल प्रणव है। जीवन्मुक्त पुरुष के लिए सूक्ष्म प्रणव के जप का विधान है। वही उसके लिए समस्त साधनो का आधार है। निवृत मुष्यों के लिए सहतूल प्रणव ही मुक्ति का आधार है। इसी पंचाक्षर मन्त्र से मातृका वर्ण प्रकट हुए हैं, जो पांच भेद वाले हैं। उसी से शिरोमन्त्र सहित त्रिपदा गायत्री का प्राकट्य हुआ है। उस गायत्री से सम्पूर्ण वेद प्रकट हुआ है और उन वेदों से अनादि मंत्रो की उत्पत्ति हुई है। वेदोक्त मन्त्रों से विभिन्न कार्यों की सिद्धि होती है परन्तु प्रणव एवं पंचाक्षर से सम्पूर्ण मनोरथों (भोग और मोक्ष) की सिद्धि होती है।
विश्वोद्भस्थितिल्यादिषु हेतुमेकं गौरीपतिं विदिततत्वमनन्तकीर्तिम।
मायाश्रयं विगतमायमचिन्त्यरूपं बोधस्वरूपमलं हि शिवं नमामि।।
जो विश्व की उत्पत्ति, स्तिथि और लय आदि के एकमात्र कारण है, गौरी गिरीराजकुमारी उमा के पति हैं, तत्वज्ञ हैं, जिनकी कीर्ति का कहीं अंत नहीं है जो माया के आश्रय होकर भी उससे अत्यंत दूर हैं तथा जिनका स्वरुप अचिन्त्य है, उन विमल बोधस्वरूप भगवान् शिव प्रणाम करता हूँ।
।। ॐ नम: शिवाय ।।
।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
सन्दर्भ : श्री शिव महापुराण
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