श्रीमदभागवत गीता को सम्पूर्ण ग्रन्थ क्यों कहा जाता है ?
गीता पूर्ण ज्ञानकी गङ्गा है, गीता अमृतरस की ओजस धारा है। गीता इस दुष्कर संसार सागर से पार उतरनेके लिये अमोघ तरणी है। गीता भावुक भक्तों के लिये गम्भीर तरङ्गमय भावसमुद्र है। गीता, कर्मयोग परायण मनुष्य को सत्यलोकमें ले जाने के लिये दिव्य विमान रूप है । गीता ज्ञानयोगनिष्ठ मनुष्य को जीवन्मुक्त बनानेके लिये अमृत समुद्र रूपहै, गीतासंसार मरुभूमिमें जले हुए दु:खित जीवनके लिये मधुर जलसे पूर्ण मरू उद्यान है। जितना भी कहा जाये, शब्दों में गीता की अपूर्व गाथा का वर्णन हो ही नहीं सकता है।
गीता एक पूर्ण ग्रन्थ है जिसमे सम्पूर्ण उपनिषदों का आध्यात्मिक ज्ञान सारतत्व में उदित हुआ है इसलिए गीता को गीतोउपनिषद (उपनिषद को गीत या गान के रूप में है) भी कहा गया है। कर्म, उपासना और ज्ञान तीनों के विज्ञानं का अंश और तीनों का सामजस्य गीता में प्रकट है। पूर्ण वस्तु वही है, जिसमें जीव की पूर्णता विधान करनेके लिये पूर्ण उपदेश किया गया हो। जीवकी पूर्णता त्रिभाव की पूर्णता के द्वारा ही हो सकती है। उसमे शरीर आधिभौतिक भाव है, मन अधिदैवभाव है और बुद्धि अभ्यात्मभाव है, इसलिये शरीर, मन और बुद्धि तीनों की पूर्णता से ही साधक पूर्ण ब्रह्म रूप को प्राप्त कर सकता है।
शरीर की पूर्णता कर्म से, मन की पूर्णता उपासना से और बुद्धि की पूर्णता ज्ञान से होती है। इसलिये जिस पुस्तक में कर्म, उपासना और ज्ञान, तीनों का ही पूर्णतया वर्णन किया गया है, वही पूर्ण पुस्तक है। पूर्ण होने का एक और कारण भगवान का वाक्य है, क्योकि भगवान पूर्ण है। गीता में गीतामें समाधि-भाषा पूर्ण है, जिसमें समस्त उपदेशों का ज्ञान भरा हुआ है। इस प्रकार की ज्ञानमयी भाषा को पूर्ण ज्ञानी के सिवाय और कोई नही कह सकता है, क्योंकि समाधि भाषाके कहने वाले केवल पूर्ण समाधिस्थ पुरुष ही हो सकते हैं।
वेदों में कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड का जीवों के उद्धारके लिये पूर्ण वर्णन किया गया है, इसलिये वेद भगवान का वाक्य हैं , इसी प्रकार गीता में भी अठारह अध्यायों में कर्म, उपासना और ज्ञान का वर्णन किया गया है। इसके सब अध्यायो में सब तरह की बातें होने पर भी प्रधानतः पहले छ: अध्यायोंमें कर्म का, अगले छ: अध्यायों में उपासना का और अंत के छ: अध्यायों में ज्ञान का उपदेश किया गया है, इसलिये गीता पूर्ण है।
पूर्णताका और एक लक्षण हैं साम्प्रदायिक का आभाव और निष्पक्ष उदार भाव की प्रधानता। ऋषियों की बुद्धि और साम्प्रदायिक पुरुषों की बुद्धि में इतना ही अन्तर है। ऋषियों की बुद्धि पूर्ण होने के कारण उसमें साम्प्रदायिक पक्षपात नही रहता एवं उसमें किसी एक भाव की प्रधानता मानकर दूसरे भावों की निन्दा नही की जाती। भगवान वेदव्यास ने पूर्ण ऋषि होनेसे भिन्न भिन्न पुराणोंमें सभी ज्ञानों का वर्णन किया है परन्तु किसी की भी निंदा नहीं की। साम्प्रदायिक पुरुषों बुद्धि इस प्रकारकी नहीं होती, वे एक ही भावको प्रधान मानकर औरों की निन्दा करते है। भारतवर्ष में जब से इस प्रकारके साम्प्रदायिक मतों का प्रचार हुआ है, तभी से भारतमें अशान्ति और मतद्वैधता फैल गई है, और एक दूसरे की निन्दा व ईर्षा फैला कर धर्म के नाम पर अधर्म होने लगा है। परन्तु गीता में इस प्रकार के विचार नहीं हैं, क्योंकि गीता भगवानके मुख से उच्चारित हुआ पूर्ण ग्रन्थ है, इसलिये गीता सम्पूर्ण मनुष्य जाति का सामान रूप से कल्याण करने वाली है । इसमें कर्मी के लिये निष्काम कर्म का उदारभाव, भक्तों के लिये भक्ति का मधुरभाव और ज्ञानीके लिये परम ज्ञान का गम्भीरभाव, सभी भाव सामजस्य से वर्णिंत किये गए हैं, जिससे गीता का पाठ करके सभी धर्म के लोग सन्तुष्ट होते हैं।
गीता की एक और पूर्णता यह है कि, गीता में भक्ति के छ: अध्याय कर्म और ज्ञान के बीच में रखे गये है, क्योंकि भक्ति में मध्य में होने से कर्म मिश्रित, शुद्ध और ज्ञान मिश्रित यह तीनो प्रकार की भक्ति, सभी मनुष्यों का कल्याण कर सकती है। भक्ति सभी साधनों का प्राणरूप है, चाहे कर्मी हो, चाहे ज्ञानी हो, भक्ति मध्य में न होने से दोनों में बंधन की आशङ्का रहती है। भक्तिहीन कर्म अहंकार और कर्तृत्व उत्पन्न कर सकता है, परन्तु यदि कर्मी अपने को भगवान का निमित्तमात्र मानकर, जगत सेवा को भागवत सेवा समझकर, भक्ति के साथ कर्म करे तो, उस कर्म से अहंकार या बन्धन उत्पन्न नही होगा I उसी प्रकार भक्ति विहीन ज्ञान वाले मनुष्य में तर्कबुद्धि और अभिमान उत्पन्न होकर, ज्ञानमार्गी पुरुष को बंधन में डाल सकता है, परन्तु ज्ञान के मूल में भक्ति रहने से ज्ञानी भक्त पूर्ण बन जायगा, केवल तार्किक और अभिमानी नही रहेगा, जिससे उसको पूर्णज्ञान की प्राप्ति होगी।
भगवान श्रीकृष्ण्द्र ने गीता में मध्य के अध्यायों में भक्ति को इसीलिए भी रखा है क्योंकि दो विरुद्ध पक्षों में विवाद के समय, मध्यस्थ शान्त पुरुष ही विवाद को मिटाता है और विवाद को आगे नहीं बढ़ने देता। कर्म और ज्ञान में सदा ही विवाद है । कर्म जो कुछ कहता है ज्ञान उससे उल्टा कहता है। कर्म के मत में जगत् सत्य है और ज्ञान के मतमें जगत् मिथ्या है । कर्म के मत में मनुष्य को कर्मी होना चाहिये और ज्ञान के मत में निष्कर्मी होना चाहिये । इसलिये श्रीभगवान श्रीकृष्ण ने दोनों के मध्य में भक्ति को रख कर कर्म और ज्ञान का विवाद मिटा दिया है ।
पूर्णता का और एक लक्षण यह है कि, गीता में परपस्पर दोनो विरुद्ध भावों में सामजस्य रखा गया है। पूर्ण पुरुष वही है जिनमें सुख दुःख आदि में सामान भाव रखने के शक्ति हो। उसके मन में सुख में हर्ष तथा दु:ख में विषाद का भाव नहीं उत्पन्न होता, क्योंकि वह सुख दु:ख से परे आनन्दमय साम्यदशा को प्राप्त कर लेता है । पूर्णावतार में भी यही लक्षम पाया जाता है, क्योंकि, पूर्णज्ञानी होनेके कारण उनमें सकल प्रकार के विरुद्ध भावों का सामजस्य रहता है। भगवान श्रीकृष्ण में इसी प्रकार परस्पर विरुद्ध भावों का सामजस्य था, इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि, वे भगवानके पूर्णावतार थे और उन्ही पूर्णावतार के श्रीमुख से उच्चारित गीता सम्पूर्ण ग्रन्थ है।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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