Home 2019 February 27 वेद – भाग १

वेद – भाग १

वेद – भाग १

  • वेद क्या हैं? वेदों के कर्ता कौन हैं ?
  • वेदों के प्रकार
  • वेद कब लिखे गए थे?
  • वेदों को पूर्ण क्यों माना जाता है ? 
  • वेदों में ऋषि, छंद या देवताओं का वर्णन क्यों आता है ?

 

वेद क्या हैं? वेदों के कर्ता कौन हैं ? वेद कब लिखे गए थे?

सभी सनातन धर्म शास्त्रों का मूल वेद है। ज्ञान नित्य है, इस कारण प्रलय के समय भी ज्ञानरूपी वेद ओंकार रूप से नित्य स्थित रहते हैं। श्री वेदव्यासजी कहा है :

अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा ।
श्रादौ वेदमयी विद्या यतः सर्व्वा: प्रवृत्तयः ॥

 

श्री भगवान के वाक्यरूपी वेद अनादि नाशविहीन तथा नित्य हैं। वेद ही सृष्टि की प्रथम अवस्था में प्रकाशित आदिविद्या है। इनसे ही सकल संसार का विस्तार होता है। प्रलय के समय में भी परमात्मा में सूक्ष्म रूप से वेद की स्थिति रहती है। महाप्रलय में भी वेदों का नाश नहीं होता।

 

वेदों का सूत्रधार कोई भी पुरुष या मनुष्य नहीं हैं, इस कारण वे अपौरुषेय कहलाते हैं। वेद ईश्वरकृत हैं और परब्रह्म स्वरूप हैं। वाजसनेयि ब्राह्मणोपनिषद्र् में लिखा है –

 

अस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद् य इग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथ्वङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषद इल्यादि ।

समस्त वेद विश्वास की रीति से स्वाभाविक रूप से परमात्मा के द्वारा प्रकट हुए हैं।

 

कृष्णयजुर्वेदीय श्वेताश्वतरोपनिषदमें लिखा है कि:-

 

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्व्वं
यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ।


परमात्माने पहले ब्रह्मांजीको उत्पन्न करके उनको वेद प्रदान किया ।

दिशः श्रोत्रे वागिववृतषश्व वेदाः

उस विराट् परम पुरुष की श्रवणेन्द्रिय दिशा है और वाक्य वेद रूप हैं।

 

श्रीमद्भागवत गीता में भी लिखा है :

 

कर्म ब्रहीन्द्रव विद्धि ब्रह्माक्षर समुद्रवम।

कर्म वेदसे उत्पन्न हैं और वेद अक्षर परमात्मा से उत्पन्न हैं।

 

ब्रह्मा, ऋषि, महात्मा वेद के कर्ता / रचियेता नहीं किन्तु द्रष्टा मात्र हैं। इसलिये कहा है कि:

ब्रह्माद्या ऋषिपर्यन्ता स्मारक न तु कारका:

 

ब्रह्मासे लेकर ऋषि पर्यन्त कोई भी वेद के कर्ता नहीं हैं, सब ही उनके स्मरण करने वाले हैं। प्रलय काल में अन्तर्हित वेदो को सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा जी की आज्ञा से महर्षियों ने तपस्या के बल पर प्राप्त किया था।

 

पश्चिमी विद्वानों ने वेदों का जन्मकाल निर्णय करने के लिये बहुत बुद्धि, धन व् समय खर्च किया है। किसी विद्वान ने इनकी उत्पत्ति ईसा पूर्व २००० वर्ष निर्धारित की है और किसी ने ५००० वर्ष परन्तु कोई भी विद्वान् अपनी गणना को प्रमाणित करने में विफल रहा और अन्त में सभी को यह मानना पड़ा की समस्त पृथ्वी में वेदों से प्राचीन कोई भी ग्रन्थ विद्यमान नहीं है। संसार के सभी विद्वानों ने वेदों और उनमे निहित वैदिक विज्ञान के अनादि और अति प्राचीन होने के तथ्य को एक स्वर से स्वीकार किया है ।

 

वेदों के प्रकार

 

वेदों को दो प्रकार में विभक्त किया जा सकता है:

 

(१) कंठात – जिन श्रुतियों का ऋषियों ने प्रत्यक्ष किया था उन्हें कंठात कहते हैं। कंठात श्रुति मन्त्र भेद के अनुसार त्रिविध हैं – ऋग, यजुः तथा साम। इन्हेत्रयीभी कहा जाता है। यही कंठात श्रुतियाँ अन्य प्रमाण से चार भागों में विभक्त हैं – ऋग, यजुः, साम तथा अथर्व। वर्तमान समय में जिस प्रकार भाषा – गद्य, पद्य और गीत के रूप में विभक्त हैं, इसी प्रकार का विभाग वेदों में मिलता है:

 

पद्य में प्रकाशित मन्त्र – ऋक
गद्य में प्रकाशित मन्त्र – यजुः
गेय मन्त्र – साम
अथर्ववेद में इन सभी, पद्य गद्य और गेय के मिश्रित मन्त्र हैं।

 

(२) कल्प्य – स्मृति या शिष्टाचार के द्वारा जिनका अनुमान किया जाता है उन्हें कल्प्य श्रुतियाँ कहा जाता है।

 

वेदों को पूर्ण क्यों माना जाता है ?

 

परमात्मा और आत्मा में यही अंतर है की परमात्मा पूर्ण है और आत्मा अपूर्ण। जो शास्त्र आत्मा को पूर्ण बना कर ब्रह्मरूप की ओर अग्रसर करे वही शास्त्र पूर्ण है। मनुष्यकृत शास्त्रों और भगवान् वाक्य शास्त्रों में भी यही अंतर है। जितने भी मनुष्य कृत शास्त्र हैं उनकी विवेचना करने से विचारवान् व्यक्ति को ज्ञात होगा की सभी शास्त्र प्रकृति का आंशिक वर्णन करते हैं और इस दृष्टि से अपूर्ण हैं। परन्तु अपौरुषेय वेद में यह अपूर्णता नहीं है और इसीलिए वेद भगवान् का वाक्य हैं।

 

यह बात सिद्ध है कि, पूर्ण प्रकृति ही पूर्ण ब्रह्म का प्रकट कर सकती है। अपूर्ण आत्मा की पूर्णता और ब्रह्मभाव प्राप्ति के द्वारा मुक्ति तभी होगी जब आत्मा प्रकृति पूर्णता को प्राप्त करेगी। प्रकृति अधिभूत, अधिदैव, आध्यात्म तीन कारकों से युक्त है । मनुष्य में यह तीनो कारक अधूरे हैं। अत: आधिभौतिक , आधिदैविक और आध्यात्मिक पूर्णता मनुष्यों को प्राप्त होने पर आत्मा (मनुष्य जीव ) ब्रह्मरूप बन सकता है।

 

इसलिये जिस शास्त्र में आधिभौतिक , आधिदैविक और आध्यात्मिक त्रिविध शुद्धिके लिये उपाय पूर्णतया बताये गये हैं, वही शास्त्र पूर्ण और भगवान का वाक्य होगा। मनुष्य के लिये आधिभौतिक शरीर है, आधिदैविक मन है और आध्यात्मिक बुद्धि है। शरीर की शुद्धि कर्म के द्वारा, मन की शुद्धि उपासनाके द्वारा और बुद्धि की शुद्धि ज्ञान के द्वारा होती है। अतः जिस शास्त्र में समान रूप से कर्म, उपासना और ज्ञान, तीनों के उपदेश की पूर्णता हो वही भगवान् का वाक्य होगा। श्रीमदभागवत गीता भी भगवान् वाक्य होने के कारण पूर्ण हैं और यही गुण वेदों में भी विद्यमान है। वेद अपने संहिता, ब्राह्मण और उपनिषद रुपी तीन भागों के द्वारा कर्म, उपासना और ज्ञान का पूर्ण साधन बता कर आत्मा को सच्चिदानन्द परब्रह्म परमेश्वर की प्राप्ति का पथ प्रदर्शित करते हैं। अत: अपौरूषेय या भगवान् का वाक्य है इसमें संदेह नहीं है।

 

वेदों में ऋषि, छंद या देवताओं का वर्णन क्यों आता है ?

 

वेदों में जो ऋषि, छन्द और देवताओं का वर्णन आता है उसका अर्थ यह है कि, जिन त्रिकालदर्शी महर्षिगणों के ह्रदय में विभिन्न श्रुतियों का पहली बार अवतरण हुआ था अर्थात् जिन आचार्यों के द्वारा वे मन्त्र प्रकाशित हुए थे वे ही उन मन्त्रों के ऋषि कहलाते हैं। जिस छन्द में वे श्रुतियां कही गई हैं वही वेद मन्त्रों के छन्द कहलाते हैं और जिन श्रुतियाँ के द्वारा भगवान् की शक्तियों की उपासना की जाए, वे उपास्य शक्ति उन श्रुतियों के देवता कहलाते हैं। इसी नियमके अनुसार प्रत्येक मन्त्र के साथ ऋषि, देवता और छन्द के उल्लेख करने की विधि वेदों में पाई जाती हैं। इसका आशय यह है कि छन्द के ज्ञात होने से उस मंत्र की आधिभौतिक शक्ति का ज्ञान होगा। देवता के ज्ञान से उक्त मन्त्र की अधिदैव शक्ति का ज्ञान होता है और ऋषि के ज्ञान से उस मन्त्र की आध्यात्मिक शक्तिपर लक्ष्य होता है।

 

क्रमशः भाग २ – वेदों के विभाग, वेदों की भाषा, वेदों की शाखाएं, वेदों के विषय ।

 

।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय: ।।

Author: मनीष

One Comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *