वेदांग
वेदों में वर्णित अर्थ को बिना किसी सहायता के समझना अत्यंत कठिन कार्य है। जिस प्रकार साधारण व्याकरण एवं काव्य कोष आदि का पाठ करने से ही किसी भाषा के शब्दों को समझने की बुद्धि उत्पन्न होती है, उसी प्रकार वेद पाठ द्वारा वैदिक तात्पर्य को समझने के लिए बुद्धि तभी प्राप्त हो सकती है जब वेद के छः अंगों अर्थात वेदांग का अभ्यास किया जाए। यह कुछ इसी प्रकार है है की जिस प्रकार किसी पुरुष की परीक्षा की जाती है तो पहले उसकी आकृति, चेष्टा, गुण, प्रकृति, चरित्र आदि अनेक बातों के जानने की आवश्यकता होती है, और इन बातों को जाने बिना उस व्यक्ति का पूर्ण रीति से परिचय नहीं हो सकता
वेदों के छः अंगों के नाम मांडूकोपनिषद में इस प्रकार वर्णित है –
शिक्षा कल्यो व्याकरण निरुक्त छन्दो ज्योतिषमिति।
शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुत, छन्द और ज्योतिष ।
यह भी लिखा है की:
छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते
ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते।
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम्
तस्मात्साङ्कमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते॥
इस वेदपुरुष के छन्दःशास्त्र चरण, कल्पशास्त्र हस्त, ज्योतिषशास्त्रं नयन, निरुक्तशास्त्र कान, शिक्षाशास्त्र नासिका और व्याकरण शास्त्र मुखरूप हैं।
१. शिक्षाशास्त्र
शिक्षा शास्त्र में वेदों के पाठ करने की शैली विस्तृत रूप से वर्णित है। वैदिक ज्ञानप्राप्ति के लिए अर्थ पाठ का ही प्रथम स्थान है। इसी कारण से शिक्षाशास्त्र की सर्वप्रथम आवश्यकता मानी गई है। शब्द के साथ शाब्दिक भाव का और वाचक के साथ वाच्य का सम्बन्ध है। परन्तु शब्द की शक्ति तभी पूर्णरूप से प्रकाशित हो सकती है जब शब्द अपने पूर्णरूप में उच्चारित हो । इसी प्रकार अलौकिक शक्तिपूर्ण वेद के पदसमूह द्वारा तभी पूर्णलाभ हो सकता है, कि जब वे अपनी वैज्ञानिक शक्तियुक्त यथावत् ध्वनि के साथ उच्चारित किये जाएँ।
वेदों की शिक्षा में केवल हस्वादि तीन स्वरभेदीक वर्णन, पाठ की शैली और हस्तचालन आदि बाह्यक्रिया की शैली का वर्णन किया गया है और सामवेद सम्बंधित संगीत-शिक्षा में इन तीनो स्वरभेदों से और सात स्वरों की उत्पति दिखाकर, उन्हीं की सहायता से असाधारण सूक्ष्म शक्ति की उत्पति द्वारा, शब्द विज्ञान की और ही कुछ विशेष अलौकिकता आविष्कृत की गई है। पाणिनीय शिक्षा में लिखा है :
आत्मा बुझ्यासमेत्यार्थान्मने युङ्क्तै विचदाया ।
मनः कायाग्निमंहन्ति स प्रेरयति मारुतम् ।
मारुतस्तूरसि चरन् मन्द्रं जनयति स्वरन् ।
जिस समय इस शरीर में स्वर सम्बंधित सृष्टि होती है, तेा उसी सृष्टि नियम के अनुसार प्रथम आत्मा की प्रेरणा से बुद्धि, मन, प्राण शक्ति और प्राण वायु प्रेरित हो कर तदनन्तरं शब्द आविर्भूत होते समय शरीर के विशेष स्थानों का स्पर्श करते हुए शब्द को प्रकाशित करते हैं। परिणाम स्वरुप प्रत्येक स्वर के साथ आत्मा का सम्बन्ध रहता है। परन्तु वह आत्मशक्ति तब ही पूर्णरूपसे प्रकाशित हेा सकती है कि, जब वह यथावत् शब्द के आश्रय से ध्वनित हो
इस कारण से वेदमन्त्ररूप शब्द ब्रह्म को अपने यथावत् शक्तियुक्त भाव में स्थिर रखने के अर्थ से इस शिक्षा शास्त्र का अध्यनन आवश्यक है । प्रत्येक वेद की प्रत्येक शाखा के उच्चारण के लिए इस प्रकार शिक्षा ग्रन्थ थे, जिनको ‘प्रतिशाखा’ भी कहा जाता था । इस समय शिक्षा के बहुत थोड़े ग्रन्थ विद्यमान हैं और साम शिक्षा, जिसका विस्तार अधिक था, उसके ग्रन्थ प्राय: लुप्त हो गये हैं ।
२. कल्प शास्त्र
कल्प शास्त्र मन्त्र सम्बंधित क्रिया सिद्धांश का वर्णन करते हैं जिस प्रकार बिना यथावत ध्वनि के सहित उच्चारित हुए शब्दब्रह्म रूपी वेदमन्त्र पूर्ण फल प्रदान नहीं करते, उसी नियमके अनुसार वैदिक क्रिया सिद्धांश में जब तक प्रत्येक क्रिया के वैदिक कर्म-विज्ञान के अनुसार अनुसरण नहीं किया जायगा, तब तक वे क्रिया सिद्धांश फलदायी नहीं हो सकेंगे ।
इस वेदांग में अग्निष्टोम इत्यादि यज्ञ, उपनयन आदि संस्कार और ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आश्रम सम्बंधित अनेक कर्मों की साधन विधि का वर्णन किया गया है । यह संसार कर्ममय है, इसलिए वेदों में कर्म का अधिकार सबसे अधिक होने के कारण कल्पशास्त्र भी बहुत विस्तृत है। जितनी शाखाओं में वेद विभक्त हैं। उतनी ही शाखाओं में अलग अलग कल्पशास्त्र हैं। यह शास्त्र सूत्रबद्ध होने के कारण कल्पसूत्र नाम से भी जाने जाते हैं।
आजकल क्रियाकाण्ड में जितने कल्पसूत्रों का व्यहार होता है, वह मुख्यत: तीन भागों में विभक्त हैं। इन तीन श्रेणी के सूत्रों की पुनः अनेक शाखा हैं।
श्रौतसूत्र – इनमे यज्ञ आदि की विधि बताई गयी है।
धर्मसूत्र – सामाजिक जीवन यापन करनेके लिये जितने प्रकार के नियम पालन करने होते हैं, उन सबकी व्यवस्था धर्मसूत्रों में की गई है। गृ
गृहसूत्र – गृहसूत्र में गृहधर्मकी विधि बताई गयी है अर्थात् जन्म से मृत्यु तक पिता, माता, पुत्र, पति,पत्नी आदि गृहस्थ वर्ग का एक दूसरे के प्रति क्या कर्तव्य है, इसका वर्णन उसमें है। अब भी गृह्यसूत्र के अनुसार जातकर्म, विवाह आदि नित्य-कर्म किये जाते हैं।
३. व्याकरण शास्त्र
व्याकरणशास्त्र शब्द अनुशासन का द्वार रूप है । जिस प्रकार साधना में लीन होने के लिए योगशास्त्र द्वारभूत है, और उसका भगवान पतञ्जलीजीने “अथ योगानुशासनम् ” कहकर प्रारम्भ किया है, उसी प्रकार शब्दब्रह्म रूपी साधना में युक्त पदार्थों को ग्रहण करने के लिये व्याकरण शास्त्र वेद का द्वार रूप है और इस शास्त्र का भी भगवान् पतञ्जली जी ने ‘अथ शब्दानुशासनम् ’ कह कर प्रारम्भ किया है। जिस प्रकार शब्दमय सृष्टि के होते समय भाव से वृत्ति और वृत्ति से शब्द की उत्पत्ति होती है। उसी प्रकार शाब्दिक सृष्टि उत्पन्न होते समय शब्द से अर्थ और अर्थ से भाव की उत्पत्ति होती है।
४. निरुक्त शास्त्र
व्याकरण शास्त्र द्वारा प्रथम शब्दों के अर्थ का ज्ञान होता है और उसके उपरांत निरुक्त शास्त्र द्वारा वेदों में वर्णित मन्त्रों का भावार्थ समझने में सहायता प्राप्त होती है। इस शास्त्र तो वेदों का कोष भी कह सकते हैं।
निरुक्त शास्त्र का भी निघण्टु नाम से एक अन्तर्विभाग है। निघण्टु द्वारा केवल वैदिक शब्दज्ञानमें सहायता प्राप्त होती है। वैदिक वर्णन-विचार के अनुसार वेदों में कई प्रकार की भाषाएँ हैं और सृष्टि के त्रिविध परिणाम के अनुसार वेदों में में आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक, इन त्रिविध भावों का भी वर्णन पाया जाता है। इन सबका विस्तृत ज्ञान निरुक्त शास्त्र के अध्यन्न से प्राप्त हो सकता है।
निरुक्त शास्त्र का सार यह है कि, जिस प्रकार व्याकरण शास्त्र शब्द को नित्य मानता है, उसी प्रकार निरुक्त शाखा भाव को नित्य मानता है। जिस प्रकार व्याकरण शास्त्र द्वारा ओंकार रूप से वेद की नित्यता सिद्ध है, उसी प्रकार निरुक्त के और भी उच्च विज्ञान द्वारा भावमय अध्यात्म स्वरूप की नित्यता की सिद्धि द्वारा ज्ञानमय वेदों की नित्यता प्रमाणित होती है। सृष्टि का आदि, मध्य और अंत इन तीन अवस्थाओं में एकमात्र भावमय चेतनसत्ता ही समानरूपसे स्थित रहा करती है, इस कारण भाव से ही जगत् की उत्पति सर्वथा स्वीकार्य है। फलतः भाव प्रधान होनेके कारण शब्द यथार्थ भाग का वर्णन करना ही इस शास्त्र का लक्ष्य है।
प्राचीनकाल में निरुतशाख्त्रका बहुत ही विस्तार था। पूज्यपाद महर्षिगणों द्वारा इस शास्त्र के अगणित बड़े बड़े ग्रन्थों के रचे जाने व वर्णन मिलता है, परन्तु आजकल निरुक्त शास्त्र एक छोटा सा यास्कमुनि कृत अंक निरुक्त के नाम से देखने में आता है।
५. छन्दः शास्त्र
छन्दः शास्त्र कुछ विलक्षण ही है, जिस प्रकार शिक्षा शास्त्र स्वर की सहायता से वैदिक कर्म काण्ड और उपासना काण्ड में सहायता किया करता है, उसी प्रकार यह छन्द शास्त्र भी छन्दोविज्ञान की सहायता से अलौकिक शक्तियों का आविष्कार करके वैदिक ज्ञान के विस्तार करने में और कर्म में सफलता प्राप्त कराने में बहुत ही उपकारी है। सिद्ध और साधक रूपसे जिस प्रकार ध्वनि के साथ अक्षर का सम्बन्ध होता है, उसी नियमके अनुसार शिक्षा शास्त्र का सम्बन्ध छन्दः शास्त्र से समझना चाहिये । प्रकृति का विस्तार अनन्त है, इस कारण छन्द भी अनन्त है तथा छन्दः शास्त्र के वक्ता महर्षियों ने जीवों के कल्याणार्थ प्रधान छंदों को छंद शास्त्र में नियमबद्ध किया है। वेदों में सात प्रकार के छंदों का उल्लेख मिलता है – गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुभ, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टभ तथा जगती।
६. ज्योतिष शास्त्र
सनातन धर्म में मनुष्य शरीर तो एक ब्रह्म अन्श ही माना गया है और इस प्रकार परा ब्रह्माण्ड रुपी या यह संसार और पिण्डरूपी प्रत्येक मनुष्य के शरीर में एकत्व सम्बन्धयुक्त हैं, इसी कारण आर्यशास्त्रमें वर्णित है कि, जो कुछ बाहर ब्रह्माण्ड में है, उन्हीं देवता, भूतसमूह और ग्रह नक्षत्र आदि काकेंद्र सब इस देहमें स्थित है, शिवसंहिता में लिखा है:
देहेऽस्मिन्वर्तते मेरुः सप्तद्वीपसमन्वितः
सरितः सागराः शैलाः क्षेत्राणि क्षेत्रपालकाः
ऋषयो मुनयः सर्वे नक्षत्राणि ग्रहास्तथा
पुययतीर्थानि पीठानि वर्तन्ते पीउदेवताः
मनुष्य के इस शरीर में सप्त द्वीप सहित सुमेरु है और नदी समुद्र आदि पर्वत और क्षेत्र, क्षेत्रपाल आदि सभी ऋषि मुनि सभी नक्षत्र, गृह पुण्यतीर्थ और पीठ देवता आदि सभी विद्यमान हैं। सौर जगत् के साथ इस प्रकार एकत्वसम्बन्ध रहने के कारण और जगत के अनुसार उसमें परिवर्तन होना युक्तियुक्त है। वेदाङ्गज्याेतिष सिद्धान्त ज्याेतिष है, जिसमें सूर्य तथा चन्द्र की गति का गणित है।
वेदाङ्गज्योतिष के महत्त्व के विषय में कहा गया है –
यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वद् वेदाङ्गशास्त्राणां ज्योतिषं मूर्धनि स्थितम्॥
वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः।
तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्येतिषं वेद स वेद यज्ञान् ॥
जिस प्रकार मोरों में शिखा और नागों में मणि का स्थान सबसे उपर है, उसी प्रकार सभी वेदांगशास्त्रों मे ज्याेतिष का स्थान सबसे उपर है। वेद यज्ञों के लिये प्रवृत्त हैं और यज्ञ काल के अनुसार किये जाते हैं, ज्योतिष काल-निर्णय करने वाला शास्त्र है, इसको जो ज्ञानता है चही यज्ञों को जानकर कर सकता है।
गणित ज्योतिष द्वारा बहिर्जगत संबन्धीय ग्रह,नक्षत्र समूह के परिवर्तन और काल के विभाग का निर्णय किया जाता है और फलित ज्योतिष द्वारा गृह नक्षत्र आदि की गतियों की सहायतासे इस जगत् के एवं इस जगह से सम्बंधित सृष्टि और मनुष्यों के आन्तरिक परिवर्तनों का निर्णय होता है। ज्योतिषशास्त्र के ये दोनों ही अङ्ग मानव जाति के लिये अत्यंत उपकारी हैं ।
इति श्री सनातन धर्म शास्त्र – वेदांग।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
Leave a Reply