विभिन्न पुराणों में अलग अलग देवता को सर्वोपरि बताने का क्या कारण है? क्या इसका कारण एक इष्ट देव को दूसरे से श्रेष्ठ या निम्न दिखाना है?
विभिन्न पुराणों में अलग अलग देवता को सर्वोपरि बताने का क्या कारण है? क्या इसका कारण एक इष्ट देव को दूसरे से श्रेष्ठ या निम्न दिखाना है?
इस प्रश्न का उत्तर हम पहले भी विभिन्न व्यक्तिगत प्रश्नो के उत्तर द्वारा दे चुके हैं परन्तु इस विषय में अनेकों शंकाएं होने के कारण इसका विस्तृत उत्तर इस लेख के द्वारा दे रहे हैं।
पूर्ण ब्रह्म परमात्मा केवल एक हैं, वे ही सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी और सर्वश्रेष्ठ है और वस्तुतः प्रत्येक इष्टदेव उन्ही पूर्ण ब्रह्म परमात्मा के पूर्ण या अंश स्वरूप हैं। वह परमात्मा ही सकल जीवों के आधार हैं जो एक परम ज्योति पुञ्जय के रूप में विद्यमान हैं तथा इस चराचर जगत को नियंत्रित करते हैं। भक्तों की रक्षा करने के लिए साकार रूप में भी समय समय पर प्रकट होते हैं तथा प्रलय काल में अपने अंदर समेट लेते हैं ।
एको ही रुद्रो न द्वितियाय तस्थु यर् इमाँल्लोकानीशत ईशनीभिः।
प्रत्यडजनासितष्ठति संकुचोचानतकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपा।।
जो अपनी स्वरूपभूता विविध शासन -शक्तियों द्वारा इन सब लोकों पर शासन करता है। वह रुद्र (परमात्मा) एक ही है। इसलिए ज्ञानीजनों ने दुसरे का आश्रय नहीं लिया है। वह एक ही परमात्मा समस्त जीवों के ह्रदय में स्थित है। सम्पूर्ण लोकों की रचना करके, उनकी रक्षा करने वाला परमेश्वर प्रलय काल में इन सबको अपने अंदर समेट लेता है।
निराकार परब्रह्म का साकार रूप धारण करना स्वयं उनके अधीन नहीं है। जिस अवतार में भक्त जैसी प्रभु की भक्ति होती है वैसी ही मूरत में निराकार परम ब्रह्म भक्तों के प्रेम से आह्लादित हो कर साकार रूप में उनको दर्शन करते हैं। श्रीमद भगवत गीता में अर्जुन ने पहले श्री कृष्ण से विश्वरूप दर्शन की इच्छा प्रकट की, फिर चतुर्भुज की और उसके पश्च्यात द्विभुज की, पूर्णावतार भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उसकी इच्छा अनुसार दर्शन देकर निराकार रूप की भी सम्प्रभुता स्थापित कर दी।
पद्मपुराण में नारद द्वारा भगवान् विष्णु से यह पूछे जाने पर कि – ” हे प्रभु , तुम तो सर्वत्र हो, किन्तु उनमें भी तुम्हारा सर्वाधिक प्रिय स्थान कौन सा है ?” भगवान् निजमुख से कहते हैं :
नाहं तिष्ठामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च ।
मदभक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ।।”
हे नारद, मै वैकुण्ठ में नहीं रहता, योगियों के ह्रदय में भी नहीं रहता । मेरा प्रिय स्थान वही है जहां मेरे प्रिय भक्तगण मनप्राण से मुझे स्मरण करते हैं, भजन – कीर्तन करते हैं ।
साकार रूप में किसी भी इष्टदेव- सर्वश्री राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, देवी, गणेश की पूजा की जाये वास्तव में उस निराकार परब्रह्म, परमात्मा की ही पूजा की जाती है जो रूद्र स्वरुप या ज्योति के रूप में विद्यमान हैं। भक्त चाहे जिस भी इष्ट देव के उपासना करे उसे सदैव यही समझना चाहिए की मैं जिस इष्टदेव की उपासना करता हूँ, वे ही परमेश्वर निराकार रूप से सर्वज्ञ विद्यमान हैं, सब कुछ उन्ही की कृपा दृष्टि से हो रहा है। वे सर्वव्यापी, सर्वगुण संपन्न परमात्मा भक्तों की रक्षा करने के लिए विभिन्न स्वरुप धारण करके अनेकों लीलाएं करते है।
श्रीमद्भागवत गीता (१०. ३ ) में भी भगवान् श्री कृष्ण ने यही कहा है :
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असंमूढ: स मर्त्येषु सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥
जो मुझको अजन्मा अर्थात् वास्तव में जन्मरहित, अनादि और लोकों का महान ईश्वर तत्त्व से जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान् पुरुष सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।
यही कारण है की विष्णुपुराण में भगवान् विष्णु को ही सर्वोपरि, इस संसार की उत्त्पति का कारण बताया गया है और शिव पुराण में भगवान शिव को, इसी प्रकार से देवी भागवत में देवी को, गणेश पुराण में गणेश जी को तथा सौरपुराण में श्री सूर्य को ही सर्वोपरि, सर्वाधार, सर्वशक्तिमान बताया गया है। इस प्रकार पुराणों के पढ़ने से उनमे परस्पर विरोध, एक इष्टदेव की दूसरे के प्रति श्रेष्ठ का भाव प्रतीत होता है परन्तु इसका भाव यह है की जैसी सती -पार्वती जी लिए शिवजी ही श्रेष्ठ हैं, लक्ष्मी जी के लिए भगवान् विष्णु ही श्रेष्ठ हैं, इसी प्रकार भक्त को अपने इष्टदेव की समीपता शीघ्र प्राप्त कराने के लिए पुराण रचियति महर्षि वेदव्यास ने प्रत्येक पुराण के अधिष्ठाता देवता को परमात्मा का रूप मान इनकी रचना की है।
प्रत्येक पुराण में उसके अधिष्ठाता देवता को परमात्मा का रूप बताने का प्रयोजन दुसरे की निंदा करने से नहीं है परन्तु उनकी प्रशंसा से है और उस प्रशंसा से उपासक की अपने इष्टदेव में श्रद्धा जागृत कर एकनिष्ठ भक्ति करने के उद्द्येश्य से उचित भी है। यदि आप ध्यान दें तो पाएंगे की जितने भी पुराण – उपपुराण हैं उनके अधिष्ठाता देवता का नाम और प्रकृति विभिन्न होते हुए भी उनका लक्ष्य एक पूर्ण परमात्मा की और रखा गया है और हर इष्टदेव को ब्रह्मा का रूप दिया गया है। इसीलिए प्रत्येक पुराण – उपपुराण में उसके अधिष्ठाता देवताओं की स्तुति मिलती जुलती होती है क्योंकि परमात्मा की महिमा, अतिशय, अपार और अपरिमित होने से उनकी महिमा को शब्दों में बांधना या वाणी द्वारा उच्चारण किसी भी प्रकार संभव नहीं है।
अतः आशय यह है जो भक्त जिस देवता की उपासना करता हैं, उसको अपने उपास्य देव को सर्वोपरि पूर्णब्रह्म परमात्मा मान कर करनी चाहिए। इस प्रकार की दृष्टि रखकर उपासना करने से ही सच्चिदानंद पूर्ण ब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।
जयति शिवाशिव जानकी राम। गौरी शंकर सीता राम।
जय रघुनंदन जय सियाराम। गोपी प्रिय श्री राधेश्याम।
दुर्गति नाशिनी दुर्गा जय जय, काल विनाशिनी काली जय जय।
जय विराट जय जगत्पते। गौरीपति जय रमापते।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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