ब्रह्मा जी की पूजा, व्रत, यज्ञ आदि क्यों नहीं होते ?
ब्रह्मा जी के सृष्टि की रचना के कृत्य में सबसे पहले, ब्रह्मा जी के मन से चार कुमार प्रकट हुए, जो पाँच वर्ष की अवस्था के जान पड़ते थे और ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे। प्रथम थे सनक, दूसरे सनंदन, तीसरे सनातन और चौथे सनतकुमार। इसके बाद ब्रह्मा जी के मुख से स्वर्ण के समान कांतिमय कुमार , क्षत्रियों के बीज स्वरूप स्वयंभू मनु और उनकी पत्नी शतरूपा उत्पन्न हुए।
पुत्रों की उत्पत्ति के पश्चात ब्रह्मा जी ने उनसे सृष्टि के रचना करने को कहा परंतु ब्रह्मा पुत्र अत्यंत भागवत परायण होने के कारण तपस्या करने चले गए। इससे जगतपति ब्रह्मा को बड़ा क्रोध आया और कोपसक्त ब्रह्मदेव ब्रह्मतेज में जलने लगे। इसी समय उनके मस्तक से ग्यारह रूद्र प्रकट हुए।
सृष्टि के रचना के लिए ब्रह्मा जी के दाएँ कान से पुलत्स्य, बाएँ कान से पुलह, दाहिने नेत्र से अत्रि, वाम नेत्र से कृतु, नासिका छिद्र से मकुख से अंगिरा एवं रुचि, वाम हाथ से भृगु, दाएँ हाथ से दक्ष, छाया के कर्दम, नाभि से पंचशिख , वक्षस्थल से वोढू, कंठ से नारद स्कन्द से मारिचि, गले से अपन्तरतमा, रसना से वाशिसठ, अधरोष्ठ से प्रचेता, वामकुक्षिसे हंस और दक्षिणकुक्षि से यति प्रकट हुए। ब्रह्मा ने अपने इन पुत्रों को सृष्टि की रचना करने की आज्ञा दी।
इसपर नारद जी ने कहा, जगतपते पहले आप सनक, स्कंदन, संतकुआर आदि ज्येष्ठ पुत्रों को बुला कर उनका विवाह कीजिए और उसके पश्चात हम लोगों से ऐसा करने को कहिए । जब हमारे ज्येष्ठ भ्राता तपस्या कर रहे हैं, तो आप हमको क्यों संसार के बंधन में डाल रहे हैं? आपने कुछ पुत्रों को तो अमृत से भी बढ़कर तपस्या का कार्य दिया है और हमें आप विष से भी विषम भोग दे रहे हैं। परमात्मा की भक्ति को छोड़ कर कौन मूर्ख विनाशकारी विषयों में मन लगाएगा।
नारद जी की बात सुनकर ब्रह्मा जी रोष से भर उठे । उनका मुख लाल हो गया और सारे अंग काँपने लगे । फिर अत्यंत रूष्ट हो कर ब्रह्मा जी ने नारद को श्राप दिया और बोले, हे नारद! मेरे श्राप से तुम्हारे ज्ञान का लोप हो जाएगा। तुम कामनियों के क्रीड़ा मृग बन जाओगे। शृंगार शास्त्र के ज्ञाता शृंगार रसास्वादन के अत्यंत लोलुप लोगों के गुरु हो जाओगे उस समय ‘उपबहर्ण’ नाम से तुम्हारी प्रसिद्धि होगी। उसके पश्चात पुनः जनम में दासिपुत्र हो कर वैष्णो भक्ति से भगवान की कृपा पाकर पुनः मेरे पुत्र बनोगे। उस समय मैं तुम्हें दिव्य और पुरातन ज्ञान प्रदान करूँगा। परंतु इस समय तुम मेरी आँखों से ओझल हो जाओ और मृत्यु लोक में गिरो।
नारद बोले तात! आप अपने क्रोध को रोकिए आप तपस्वियों के स्वामी हैं । जगत सृष्टा हैं। आपका यह क्रोध मुझ पर अकारण ही हुआ है। विद्वान पुरुष को चाहिए की वह अपने कुमार्गगामी पुत्र को दंड दे अथवा उसका त्याग कर दे । परंतु आप पंडित होकर अपने तपस्वी पुत्र को कैसे श्राप दे सकते हैं? जगतसृष्टा का ही पुत्र क्यों ना हो, यदि भगवान श्रीहरी के चरणो में उसकी भक्ति नहीं है तो वह भारतभूमि में अधमो से भी बढ़कर अधम है। आपने बिना किसी अपराध के ही आपने मुझे श्राप दिया है बदले में यदि मैं भी श्राप दूँ तो कदापि अनुचित नहीं होगा।
यह कह कर नारद जी बोले – मेरे श्राप से सम्पूर्ण लोकों में आपके कवच, स्त्रोत और पूजा सहित आपके सभी मन्त्रों का निश्चय ही लोप हो जाएगा। जबतक तीन कल्प ना बीत जाएँ, तब तक तीनों लोकों में आप अपूज्य बने रहें ।
इस समय आपका यज्ञ भाग बंद हो जाएगा। व्रत आदि में भी आपका पूजन नहीं होगा। आप केवल देवताओं के पूजनीय बने रहेंगे। तीन कल्प बीत जाने पर आप पूजनियों के भी पूजनीय होंगे।
इस प्रकार नारद जी के श्राप से ब्रह्मा जी के पूजा स्त्रोत का लोप हो गया तथा ब्रह्मा जी की पूजा, व्रत, यज्ञ आदि पर विराम लग गया।
।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय: ।।
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