परमपिता परमात्मा द्वारा देवताओं की उत्पत्ति
सृष्टि के आरम्भ में श्री भगवान ने देखा की सम्पूर्ण विश्व जल, वायु, तेज़ आदि तत्वों से विहीन है। जगत को इस शून्यावस्था मैं देख कर भगवान ने स्वेच्छा से ही सृष्टि की रचना आरम्भ की।
सबसे पहले परमात्मा के दाएँ हाथ से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण प्रकट हुए । उन गुणों से महत्तत्व, अहंकार, पाँच तनमत्राएँ तथा रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द यह पाँच विषय क्रमशः प्रकट हुए।
उसके पश्चात श्री भगवान से भगवान नारायण श्री हरि विष्णु भगवान प्रकट हुए, जिनकी अंगकांति श्याम थी, वे नित्य तरुण, पीताम्बरधारी तथा वनमला से सुशोभित थे । उनके मुखारविंद पर मंद मुस्कान की छटा छा रही थी। वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे, शंख चक्र और गदा धारण किए हुए थे। कौस्तुभमणि उनके वक्षस्थल की शोभा बढ़ा रही थी। श्री वत्सभूषित वर्ष में साक्षात लक्ष्मी का वास था। वे श्री निधि अपूर्व शोभा को प्रकट कर रहे थे।
तत्पश्चात परमात्मा के बाएँ हाथ से भगवान शिव प्रकट हुए। उनकी अंगकांति निर्मल व उज्जवल थी। उनके पाँच मुख थे और दिशाएँ ही उनके वस्त्र थे । उन्होंने मस्तक पर स्वर्ण के समान जटाएँ धारण कर रखी थी। उनका मुख मंद मंद मुस्कान से प्रसन्न दिखाई दिखाई देता था । उनके प्रत्येक मस्तक में तीन तीन नेत्र थे । उनके सिर पर चंद्रकार मुकुट शोभा पास रहा था। परमेश्वर शिव ने हाथों में त्रिशूल, पट्टिश और जपमला ले रखी थी।
उसके पश्चात परमात्मा के नाभिकमल से महातपस्वी श्री ब्रह्मा जी प्रकट हुए, उन्होंने उसने हाथ में कमंडल ले रखा था। उनके वस्त्र, दाँत और केश सभी सफ़ेद थे। उनके चार मुख थे।
ब्रह्मा जी के बाद परमात्मा के वक्षस्थल से एक पुरुष प्रकट हुआ जिसके मुखारविंद से मंद मुस्कान की छटा छा रही थी। उसकी अंगकांति श्वेत वर्ण की थी और उसने अपने मस्तक पर जटा धारण की हुई थी। वह सबका साक्षी, सर्वज्ञ तथा सबके कर्मों का द्रष्टा था उसके ह्रदय में सबके लिए दया भरी हुई थी और वह हिंसा और क्रोध से सर्वथा अछूता था। उसे धर्म का ज्ञान था, वह धर्मस्वरूप, धर्मिष्ट तथा धर्म प्रदान करने वाला था। वही ‘धर्म’ के नाम से विख्यात है।
तत्पश्चात परमात्मा के मुख से शुक्ल वर्ण वाली सरस्वती देवी प्रकट हुई जो वीणा और पुस्तक धारण करने वाली थी तथा मन से एक ग़ौर वर्ण लक्ष्मी देवी प्रकट हुई जो रत्नमय अलंकारों से अलंकृत थी। स्वर्गलोक में उन्ही को स्वर्गलक्ष्मी और राजाओं के यहाँ राजलक्ष्मी कहा जाता है।
तदांतर परमात्मा की बुद्धि से सबकी अधिष्ठत्री देवी मूलप्रकृति का प्रादुर्भाव हुआ । निद्रा, तृष्णा, क्षुधा, पिपासा, दया, श्रद्धा, और क्षमा आदि जो देवियाँ हैं, उन सबकी तथा सब शक्तियों की वह अधिष्ठत्री देवी हैं। उनकी सौ भुजाएँ हैं। उन्ही को दुर्गतिनाशिनि दुर्गा कहा गया है। वे परमात्मा की शक्तिरूपा तथा तीनों लोकों की परा जननी हैं।
तत्पश्चात परमात्मा की जिह्वा के अग्र भाग से उज्जवल वर्ण वाली सावित्री देवी का प्रादुर्भाव हुआ जो सफ़ेद साड़ी पहने हुई थी तथा हाथ में कमंडल लिए हुए थीं।
सावित्री के पश्चात परमात्मा के मानस से एक पुरुष प्रकट हुआ जो तपे हुए स्वर्ण के समान कांतिमान था। वह पाँच बानो द्वारा समस्त कामीयों के मन को मथ डालता है इसीलिए उसका नाम मनमथ या कामदेव पड़ा। मारण स्तंभण, जरिम्भ, शोषण और उन्माद कामदेव के पाँच बाण हैं।
कामदेव के बाण चलाने से महायोगी ब्रह्मा जी कामअग्नि में जलने लगे। उस अग्नि को बढ़ते देख परमात्मा ने जल की उत्पत्ति की । वे अपने मुख से निशवास वायु के साथ जल की एक बूँद गिरने लगे जिससे धरा पर जल उत्पन्न हुआ।
उस अग्नि से अग्निकुंड आधिदेवता अग्निदेव उत्पन्न हुए तथा जल से वरुण देवता प्रकट हुए। परमात्मा की नि:श्वास वायु से पवनदेव की उत्पत्ति हुई ।
जल उत्पन्न करते हुए परमात्मा का एक अंश जल में गिरा जो की एक हज़ार वर्ष बाद एक अंडे के रूप में प्रकट हुआ। उसी से महान विराट पुरुष की उत्पत्ति हुई जो समस्त विश्व के आधार हैं।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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