धर्म की क्या परिभाषा है? सनातन धर्म क्या है? क्या तर्कों द्वारा धर्म पर प्रश्न चिन्ह लगाना उचित है ?
इस विषय के प्रश्न के उत्तर देते समय हमें महाभारत के अनुसाशन पर्व के दानधर्म पर्व का स्मरण आता है जिसमे भीष्म पितामह ने धर्मराज युधिष्ठिर को सांत्वना देने के लिए अनेक प्रकार के धर्मों का वर्णन विभिन्न विषयों तथा कथाओं के द्वारा किया था (राजधर्म का वर्णन भीष्म पितामह शांतिपर्व में ही कर चुके थे)। दानधर्म पर्व में १६६ अध्याय और ७५५६ श्लोको के द्वारा भीष्म पितामह ने धर्मराज युधिष्ठिर को धर्म तथा दान की पहचान तथा महत्वता की व्याख्या की। जिस ‘धर्म‘ की परिभाषा को भीष्म पितामह जैसे, महापंडित, ज्ञानी, सर्वगुण संपन्न देवता भी एक पृष्ठ में ना दे पाए उस ‘धर्म‘ को परिभाषित करने का सामर्थ्य हम जैसे किसी तुच्छ मनुष्य में नहीं है। परन्तु फिर भी हम इसका प्रश्न के उत्तर देने का प्रयास इस लेख द्वारा कर रहे हैं।
सर्वप्रथम, धर्म को अंग्रेजी भाषा के शब्द Religion के साथ जोड़ कर नहीं देखना चाहिए। Religion शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द religio से हुई है जिसको re (again ) + ligare (to connect or bind) means which binds one from doing any thing wrong निकलता है जो की हिन्दू धर्म शास्त्रों में वर्णित धर्म की परिभाषा से पृथक है। Religion शब्द का अर्थ नैतिक जीवन को उत्तम बनाना भी हो सकता है। परन्तु हिन्दू धर्म शास्त्रों धर्म शब्द का अर्थ अनंत असीम है।
धर्म शब्द धृ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है – “जो शक्ति चराचर समस्त विश्व को धारण करे उसी का नाम धर्म है। धर्म उस शक्ति को भी कह सकते हैं जो जड़ अथवा चेतन समस्त विश्व की रक्षा करे।
धर्मो: विश्वस्य जगत: प्रतिष्ठा – तैतरीय आरण्यक का यह मन्त्र इसी का द्योतक है की समस्त विश्व की स्थिति धर्म के द्वारा ही होती है। सम्पूर्ण हिन्दू धर्म शास्त्रों में केवल धर्म और अधर्म की की महत्वता पर ही विचार किया गया है – यही धर्म की व्यापकता का लक्षण है परन्तु पश्चिमि शिक्षा के फलस्वरुप हम हम धर्म के व्यापक लक्षण को भूल कर उसे अतिसंकीर्ण “religion” या “मजहब” समझते हैं, यही हमारी बड़ी भूल है।
महाभारत के कर्ण पर्व में भगवन श्री कृष्ण ने कहा है:
धारणाद्धर्ममित्याहुधर्मो धारयते प्रजा:।
यत्स्याद्धारण संयुक्तं स धर्म इति निष्चय:।।
धर्म धारण करता है इसलिए धर्म को धर्म कहा जाता है, जो धारण करने की योग्यता रखता है वही धर्म है
ईश्वर की जो अलौकिक शक्ति सम्पूर्ण संसार की रक्षा करती है उसी का नाम धर्म है। जो शक्ति पृथ्वी के अंदर रहकर उसके पृथित्व को, जल में रह कर उसके जलत्व को तथा तेज में रहकर उसकी उष्णता को नियंत्रित करती है, जिस शक्ति के ना रहने से पृथ्वी के समस्त पदार्थ अपने स्वरूपों से पलट सकते हैं, जो शक्ति इस पंचयभूत को एवं मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष और गृह नक्षत्र आदि पंचयभौतिक पदार्थों को अपने स्वरुप में स्थित रखे वही धर्म है।
जिस शक्तिने जीव को जड़ से पृथक कर रखा है और जो प्रतिदिन विभिन्न जीवों की स्वतन्त्र सत्ता की रक्षा कर रही है एवं जो शक्ति वृक्ष आदि स्थावर से लेकर जीव को क्रमशः उद्दृत करती हुई अन्त में मोक्षप्रास करा देती है, उसी एकमात्र व्यापक शक्ति का नाम धर्म है । इसलिये वैशेषिक दर्शन के कर्ता महर्षि कणाद ने कहा है कि:
यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ।
जिससे ऐहिक तथा पारलौकिक अभ्युदय और मोक्ष प्राप्त हो, वही धर्म है ।
धर्म ही जगत में अभ्युदय और नि:श्रेयस देनेवाला प्रकृतिके अनुकूल धर्मका अनुशासन है । विश्वको धारण करनेवाली यह शक्ति नित्य है, इसी कारण धर्म का नाम सनातन धर्म है। यज्ञ, दान, तप, कर्म, उपासना, ज्ञान आदि इसके अनेक अंग होते है । सनातनधर्म के अंगो और उपांगो के विस्तार पर जब विज्ञानवित पुरुषगण ध्यान देते है तो उनको प्रमाणित होता है कि सनातनधर्म के किसी न किसी अङ्गोपाङ्गकी सहायता से पृथिवी भर के सभी धर्म, पन्थ और सम्प्रदायो को धर्म साधनो की सहायता प्राप्त हुई है । इसी मूल धर्म के आधार पर शाखा प्रशाखा या इसकी छायारूपसे ससार के सभी ‘Religion’ या ‘मजहब‘ बने हैं
जापानियोंकी पितृ पूजा इसी धर्म के भीतर है, प्राचीन रोमन कैथोलिक की एंजेल (Angel ) उपासना रूप से देवोपासना तथा पारसियो के जोरोस्तार (Zoroastrian) धर्मान्तर्गत समुद्र अग्नि आदि त्रिभूति उपासना रूपसे देवोपासना भी इसीके भीतर है। मुहम्मदीय और ईसामसीह भक्तिप्रधान उपासना भी इसी की छाया से बनी हुई है । बौद्धो तथा जैनो की बुद्धदेवपूजा, ऋषभदेवपूजा आदि तथा तीर्थङ्करपूजा अवतारोपासना रूप से इसी के भीतर है। शक्ति, शैव, वैष्णव आदि साम्प्रदायिक जनो की पश्चदेवोपासना तो इसके भीतर है ही, सिख पंथ की गुरु पूजा भी विभूति पूजा तथा अवतारोपासना रूपसे इसी के भीतर है और राजयोगपरायण वैराग्यवान साधक की निर्गुण निराकार अन्तिम ब्रह्मपूजा भी इसी के भीतर है।
जो धर्म अनादि काल से हिन्दुओं में से प्रवृत है और जो धर्म आगे भी अनंत काल तक रहेगा, वही सदा का धर्म सनातन धर्म है। इस पृथ्वी पर अनेक धर्माभास उत्पन्न हुए हैं और आगे भी होते रहेंगे परन्तु ‘जातस्य ही ध्रुवो मृत्य:‘ अर्थात उत्पन्न होने वाले का विनाश अवश्य है यही प्रकृति का नियम है। इस पृथ्वी पर केवल सनातन धर्म का ही कोई जन्मदाता नहीं है, सनातन धर्म का जन्म किसी तिथि में नहीं हुआ। अतः अजन्मा होने के कारण सनातन धर्म ही आदि और अनंत है – साक्षात् श्री भगवान् की शक्ति है। जब भगवान् सनातन हैं, तो उनका धर्म भी सनातन है।
यदि यह कहा जाए की धर्म तो नित्य है फिर उससे स्वर्ग आदि अनित्य लोकों की प्राप्ति कैसे संभव है तो इसका उत्तर यह है की जब धर्म का संकल्प नित्य होता है अर्थात अनित्य कामनाओं का त्याग करके निष्काम भाव से धर्म अनुष्ठान किया जाता है, उस समय किये हुए धर्म से नित्य परमात्मा की प्राप्ति होती है। सभी मनुष्यों के शरीर एक से होते हैं और सबकी आत्मा भी समान है किन्तु धर्म युक्त संकल्प और आचरण ही मनुष्य के उत्थान का कारण बनता है।
समय, काल और विचार के साथ धर्म भी बदलता रहता है और यही सनातन धर्म की विशेषता है की वह प्रत्येक धारक को अपने अनुसार धर्म को धारण करने की स्वतंत्रता देता है। सतयुग में धर्म तपस्या था, द्वापर में यज्ञ, त्रेता में उपासना और कलयुग में केवल प्रभु नाम समरण से धर्म का पालन संभव है। इसी प्रकार गृहस्थ आश्रम का धर्म अन्य तीन आश्रमों – ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ तथा सन्यास से पृथक है और विद्यार्थी का धर्म, व्यस्क से और व्यस्क का वृद्ध से अलग है।
सनातन धर्म में समस्त कर्मों के चार लक्ष्य बताये गए हैं- काम , अर्थ धर्म और मोक्ष। पृथ्वीलोक पर जन्मा मनुष्य इन्ही चार कारणों को धर्म लक्ष्य बना कर भगवान् की उपासना करता है। “यदा वै करोति सुखमेव लब्ध्वा करोति नासुखंलब्ध्वा करोति, सुखमेव लब्ध्वा करोति” अर्थात् सुख ही को लक्ष्य करके जीवकी सकल चेष्टा होती है। दु:खके लिये किसी की भी कोई चेष्टा नही होती है।
अतः धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष मे से किसी वर्ग में भी प्रवर्ति सुख के लिये ही होती है। अर्थ, काम लक्ष्य परायण मनुष्य जाति अर्थ, काम मे ही परमसुख मानकर उसी के लिये पुरुषार्थ करती है । धर्म मोक्ष लक्ष्य परायण मनुष्य जाति धर्म मोक्ष में ही आत्यन्तिक सुख जानकर उसीके लिये पुरुषार्थ मे प्रवृत्त हो जाती है। लक्ष्य सुखलाभ करना सभी का है केवल अधिकार, आचार तथा विचार का अंतर है।
सनातन धर्म में अर्थ, काम की अपेक्षा धर्म, मोक्ष को ही श्रेष्ठतर लक्ष्य माना गया है तथा अर्थ, काम के प्रति सनातन धर्मियों को उपेक्षा करने का उपदेश दिया है। केवल अर्थ, काम को ही अपना सुख मान लेने वाले जीव के चित्त मे विषयवासना उत्पन्न होती है और जीव अर्थ काम का दास होकर इन्द्रियसुखके लिये उन्मत्त हो जाता है। विषयवासनाका स्वरूप यह है कि
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवत्र्मेव भूय एवाभिवर्द्धते ॥
विषयभोगके द्वारा विषयवासना निवृत्त नही होती है, किंतु धृतपुष्ट अग्नि की तरह उत्तरोत्तर वृद्धिगत होती रहती है ।
इसलिये जिस मनुष्य जाति का अर्थ काम ही लक्ष्य है, धर्मानुकूल अर्थ, काम लक्ष्य नही है वह मनुष्य जाति वासना की दास बन कर उसी की तृप्ति के लिये संसार में किसी प्रकार के अधर्माचरणमे भी संकोच नही करती है। अर्थ मे आसक्त जीव मिथ्या, प्रतारणा, चोरी, कपट व्यवहार, दूसरे को ठगना, नरहत्या आदि सभी पाप कर्म के द्वारा अर्थसंग्रहमें रात दिन व्यग्र रहता है। काम में आसक्त जीव उससे भी अधिक पशुभावको प्रास हो जाता है। इसलिये जिस मनुष्य जाति मे धर्महीन काम ही लक्ष्य है वहां के स्री पुरुषो मे व्यभिचारका विस्तार होना स्वतः सिद्ध है। इसके कितने ही उदाहरण हम प्रत्यक्ष रूप से वर्त्तमान विश्व में देख सकते है। यही कारण है की सनातन धर्म में केवल अर्थ काम के लिए ही उपासना ना करके धर्मानुकूल अर्थ काम को ही उपासना का लक्ष्य रखने को कहा है ताकि धर्म रहित अर्थ काम का जो दुःखमय परिणाम है वह जीव को ना प्राप्त हो कर धर्मानुकूल अर्थकाम के द्वारा आनंदमय मोक्ष की प्राप्ति हो।
परमपिता परमेश्वर को समझने का प्रयास करना, उनके विभिन्न नामों का भजन – स्मरण- कीर्तन, भगवान् में निष्ठा रख कर उनका पाद्य अर्चन, मनुष्यों में प्रेम तथा समभाव, विश्व के कल्याण की भावना, अपने आश्रम में वर्णित सदाचार का पालन कर भगवत भक्ति के द्वारा अंत में मोक्ष की प्राप्ति का प्रयास ही सनातन धर्म है।
अत: सनातन धर्म को छोड़कर अन्य पंथो, सम्प्रदायों और मजहबों की अवधारणाओं में विश्वास कर सनातन धर्म की ही निन्दा करना अज्ञानमात्र है।
महाभारत में भी कहा गया है :
संशय: सुगमस्त्र दुर्गमसत्स्य निर्णय:।
दृष्टं श्रुतमनन्तं हि यत्र संशय दर्शनम।।
धार्मिक विषयों में संदेह उपस्थित करना अत्यंत सुगम है किन्तु उसका निर्णय करना बहुत कठिन होता है प्रत्यक्ष और आगम दोनों का ही कोई अंत नहीं है। दोनों में ही संदेह उत्पन्न किया जा सकता है।
प्रत्यक्षं कारणं दृष्ट्वा हैतुका: प्राज्ञमनिन:।
नास्तीत्येवं व्यवसान्ति सत्यं संशयमेव च।।
अपने को बुद्धिमान माननेवाले हेतुवादी तार्किक प्रत्यक्ष कारण की और ही दृष्टि रखकर परोक्ष वास्तु का आभाव मानते हैं। सत्य होने पर भी उसके अस्तित्व में संदेह करते हैं
तदयुक्तं व्यवस्यन्ति बाला: पंडित मानिन: ।
अथ चेन्मन्यसे चैकं कारणं किं भवेदिति ।।
शक्यन दीर्घेण कालेन युक्तेनातींद्रतेन च
प्राणयात्रामने कां च कल्पमानेन भारत ।
तत्वपरेनैव् नान्येन शक्यं ह्योतस्य दर्शनम।।
किन्तु वे बालक हैं। अहंकारवश अपने को पंडित मानते हैं। अत: वे जो पर्वोक्त निश्चय करते हैं, वह असंगत है आकाश में नीलिमा प्रत्यक्ष दिखाई देने पर भी वह मिथ्या ही है, अत: केवल प्रत्यक्ष के बल से सत्य का निर्णय नहीं किया जा सकता। धर्म इश्वर और परलोक आदि के विषय में शास्त्र प्रमाण ही श्रेष्ठ हैं; क्योंकि अन्य प्रमाणों की वहां तक पहुँच नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाये की एकमात्र ब्रह्म ही जगत का कारण कैसे हो सकता है तो इसका उत्तर यह है की मनुष्य आलस्य छोड़ कर दीर्घकाल तक योग का अभ्यास कर, तत्व का साक्षात्कार करने के लिए निरंतर प्रत्यनशील बना रहे, तभी इस तत्व का दर्शन कर सकता है।
अंत में महर्षि वेदव्यास जी की भविष्यवाणी – संघे शक्ति कलौ युगे – एकता द्वारा ही कलियुग में राजकीय शक्ति का लाभ हो सकता है याद आती है। यदि हमें कलियुग में अपना अस्तिव्त बनाये रखना है तो समस्त हिन्दू धर्माचारियों को अपने समस्त भेदभाव भुला कर एक होने के आवश्यकता है।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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