धर्म और अधर्म के क्या लक्षण हैं? अधर्म पर किस प्रकार विजय पायी जा सकती है?
शास्त्रों में धर्म के तीस लक्षण कहे गए हैं। इन लक्षणो का विचार तथा आचरण सभी मनुष्यों का परम धर्म है । इनके पालन से सर्वात्मा श्रीभगवान प्रसन्न रहते है तथा मृत्यु के उपरांत मनुष्य को यमदूतों द्वारा दी जाने वाली भीषण पीड़ा का अनुभव नहीं करना पड़ता। यह तीस लक्षण हैं – सत्य, दया, तपस्या, शौच, तीतिक्षा, उचित अनुचित का विचार, मन का संयम, इंद्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग , स्वाध्याय, सरलता,संतोष, समदर्शी महात्माओं की सेवा, सांसारिक भोगों की चेष्टा से निवर्ति, अभिमानता का त्याग, मौन, आत्म चिंतन, प्राणियों को अन्न आदि का यथयोग्य दान, मनुष्यों में आत्मा तथा इष्टदेवता का भाव, संतों के परम पद का आश्रय, भगवान के नाम -गुण लीला का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवा, पूजा और नमस्कार; भगवान के प्रति दास्य, सख्य और आत्म समर्पण।
अधर्म की पाँच शाखाएँ हैं – विधर्म, प्रधान, आभास, उपमा और छल। धर्मज्ञ पुरुष को अधर्म के समान ही इनका भी त्याग कर देना चाहिए।
जिस कार्य को धर्म बुद्धि से करने पर भी अपने धर्म में बाधा पड़े, वह ‘विधर्म’ है। किसी अन्य के द्वारा अन्य पुरुष के लिए उपदेश किया हुआ धर्म ‘परधर्म’ है । पाखंड का दम्भ का नाम ‘ उपधर्म’ अथवा ‘उपमा’ है। शास्त्रों के वचनों का दूसरे प्रकार का अर्थ कर देना ‘छल’ है। मनुष्य अपने आश्रम के विपरीत स्वेच्छा से जिसे धर्म मान लेता है वह ‘आभास’ है।
जो मनुष्य संतोषी नहीं है, इंद्रियों की लोलुप्ता के कारण उसके तेज़, विद्या, तपस्या और यश क्षीण हो जाते हैं और वह विवेक भी खो बैठता है। भूख और प्यास मिट जाने पर खाने पीने की कामना का अंत हो जाता है, क्रोध भी अपना काम पूरा करके शांत हो जाता है। परंतु यदि मनुष्य पृथ्वी की समस्त दिशाओं को जीत ले और भोग ले तब भी लोभ का अंत नहीं होता।
अनेक विषयों का ज्ञाता, शंकाओं का समाधान करके चित्त में शस्त्रोत्तक अर्थ को बैठा देने वाले और विद्वत्समाज के सभापति, बड़े बड़े विद्वान भी असंतोष या लोभ के कारण गिर जाते हैं।
धर्माचारण से अधर्म पर विजय पायी जाता सकती है। संकल्पों के परित्याग से काम को, कामनाओं के त्याग से क्रोध को, सांसारिक अर्थ तो अनर्थ समझ कर लोभ को और तत्वों के विचार से भय को जीता जाता सकता है। आत्म विद्या से शोक और मोह पर, महापुरुषों (समानचित्त, परमशान्त, क्रोधहीन, सबके हितचिन्तक और सदाचार सम्पन्न) की उपासना से दम्भ पर, मौन के द्वारा योग के विघ्नो पर और शरीर प्राण आदि को निशचेष्ट करके हिंसा पर विजय प्राप्त की जाता सकती है। आधिभौतिक दुःख को दया के द्वारा, अधिवैदिक वेदना को समाधि के द्वारा और आध्यात्मिक दुःख को योगबल द्वारा जीता जा सकता है।
शास्त्रों में जितने भी नियम सम्बंधी आदेश हैं, उनका एकमात्र तात्पर्य यही है कि मनुष्य को ऐसे कर्म करने चाहिए जिससे काम, क्रोध, लोभ, मद और मत्सर (द्वेष)- इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली जाए अथवा दस इंद्रियाँ (श्रोत, त्वचा, चक्षु, रसना, नासिका, वाक्, पाणि, पाद, उपस्थ और पायु) और मन वश में हो जाएँ।
उपनिषदों में भी कहा गया है की शरीर रथ है, इंद्रियाँ घोड़े हैं, इंद्रियों का स्वामी मन लगाम है, शब्द आदि विषय मार्ग हैं, बुद्धि सारथी है, चित्त ही भगवान के द्वारा बाँधने की विशाल रस्सी है, दस प्राण (पाँच महाप्राण – प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान और पाँच लघुप्राण – नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय) धुरी हैं, धर्म और अधर्म पहिए हैं और इनका अभिमानी जीव रथी है।
ॐकार ही उस रथी का धनुष है, शुद्ध जीवात्मा बाण और परमात्मा लक्ष्य है। प्रतिपल ॐकार के जाप के द्वारा शरीर रूपी रथ को नियंत्रित करके अंतरात्मा को परमात्मा में लीन कर देना चाहिए।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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