देवी की अन्य शक्तियों ‘काली’, ‘ब्राह्मणी’, ‘माहेश्वरी’, ‘वैष्णवी’, ‘कौमारी’, ‘वाराही’, ‘नरसिंहि’ तथा ‘ऐंद्रि’ का प्रादुर्भाव तथा धूम्रलोचन, रक्तबीज, शुम्भ निशुम्भ सहित समस्त दैत्य सेना का वध
महिषासुर तथा उसकी सेना के वध के पश्चात इंद्र आदि देवताओं ने भगवती दुर्गा का उत्तम वचनों द्वारा सत्वन किया जिससे प्रसन्न हो कर भगवती देवी ने समस्त देवताओं को वर दिया की भविष्य में जब भी कभी देवता देवी भगवती का स्मरण करेंगें देवी भगवती उनको दर्शन देकर देवताओं के महान संकट दूर करेंगी।
महिषासुर के पश्चात शुम्भ और निशुम्भ नामक असुरों ने अपने बल के घमंड में आकर शचिपति इंद्र के हाथों से तीनों लोकों का राज्य और यज्ञभाग छीन लिए और सूर्य, चंद्रमा, कुबेर, यम और वरुण के अधिकार का भी उपयोग करने लगे। उन दोनो असुरों ने समस्त देवताओं को तिरस्कृत और राज्य भ्रष्ट करके स्वर्ग से निकाल दिया।
असुरों से तिरस्कृत देवताओं ने अपराजिता देवी का स्मरण किया और भगवती देवी की स्तुति गिरिराज हिमालय में जा कर करने लगे। देवताओं की स्तुति के समय पार्वती देवी ने देवताओं से पूछा की “आप लोग यहाँ किसकी स्तुति करते हैं ?” उसी समय उनके शरीरकोश से ‘शिवादेवी’ प्रकट हुई और बोलीं “शुम्भ दैत्य से तिरस्कृत और युद्ध में निशुम्भ से पराजित हो कर यह समस्त देवता मेरी ही स्तुति कर रहे हैं”। पार्वती जी के शरीर कोश से अम्बिका का प्रादुर्भाव हुआ था, इसलिए वे समस्त लोकों में “कौशिकी” कही जाती हैं। कौशिकी के प्रकट होने बाद पार्वती देवी शरीर का वर्ण श्याम हो गया, अतः वे हिमालय पर रहने वाली कालिका देवी के नामों से विख्यात हुई।
कौशिकी देवी ने को देख कर शुम्भ के दूतों ने शुम्भ से उससे कौशिकी देवी के तेज़ और मनोहर रूप का वर्णन किया जिससे मुग्ध होकर शुम्भ ने अपने दूत को भेजकर कर देवी भगवती को अपनी या निशुम्भ की सेवा में प्रस्तुत होने का आदेश दिया। दूत की यह बातें सुन कर समस्त जगत को धारण करने वाली कल्याणकारी देवी भगवती मन ही मन गम्भीर रूप से मुस्करायी और दूत से बोलीं की तुमने जो वचन कहे हैं वो असत्य नही है परंतु मैंने पहले से ही प्रतिज्ञा कर रखी है कि जो मुझे संग्राम में जीत कर मेर अभिमान को चूर्ण देगा तथा संसार में जो मेरे समान बलवान होगा वही मेरा स्वामी होगा।
भगवती देवी का यह कथन सुन कर दूत को बड़ा अमर्ष हुआ हुआ और उसने समस्त समाचार विस्तारपूर्वक शुम्भ को सुनाया। इससे रूष्ट होकर दैत्यराज ने दैत्य सेनापति धूम्रलोचन को देवी भगवती को बलपूर्वरक हरण करने का आदेश दिया। शुम्भ के इस प्रकार आज्ञा करने पर धूम्रलोचन दैत्य साठ हज़ार असुरों को साथ ले कर देवी को परास्त करने के लिए युद्ध आरम्भ किया। देवी अम्बिका ने “हुँ” शब्द के उच्चारण मात्र से उसको भस्म कर दिया और क्रोध में आकर समस्त दैत्य सेना का संहार कर दिया।
धूम्रलोचन के संहार के पश्चात शुम्भ ने चण्ड और मुण्ड को देवी भगवती को परास्त करने की आज्ञा दी। शुम्भ की आज्ञा पाकर चण्ड और मुण्ड ने चतुरंगिणी सेना के साथ गिरिराज हिमालय के ऊँचे शिखर पर सिंहसवार माता दुर्गा को देख कर उनको पकड़ने का उद्योग किया। तब अम्बिका ने उन दैत्यों के प्रति बड़ा क्रोध किया जिससे उनका मुख काला पड़ गया, ललाट में भौहें टेढ़ी हो गयी और माता के उस विकराल स्वरूप से विकराल मुखी देवी ‘काली’ प्रकट हुईं, जो तलवार और पाश लिए हुई थी। विचित्र खड्ग धारण किए हुए, चीते के चर्म की साड़ी पहने नर मुण्डों की माला पहने हुए थीं। उनका मुख विशाल था तथा जीभ लपलपाने के कारण और भी डरावनी प्रतीत होती थीं। देवी काली अपनी भयंकर गर्जना से समस्त दिशाओं को गरजाते हुए बड़े वेग से दैत्यों की उस सेना पर टूट पड़ीं। देवी काली ने दुरात्मा दैत्यों की वह सारी सेना रौंद या खा डाली। असंख्य असुर तलवार के मौत के घाट उतारे गए, पैरों से कुचले गए और दाँतों से चबा डाले गए। यह देख कर चण्ड काली देवी की और दौड़ा और मुण्ड भी भयंकर बाणो की वर्षा से तथा हज़ारों चक्रों से देवी को आघात पहुँचाने की चेष्टा की।
तब भयंकर गर्जना करने वाली काली ने रोष में भरकर विकट अट्टहास किया और हाथ में विकराल तलवार ले कर ‘हं’ का उच्चारण करते हुए चण्ड का मस्तक काट डाला और मुण्ड का भी वध कर दिया। चण्ड और मुण्ड नामक महा दैत्यों का संहार देख कर कल्याणमयी चण्डिका ने काली से कहा “देवी! तुमने चण्ड और मुण्ड का संहार किया है इसलिए संसार में ‘चामुण्डा’ के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी।”
चण्ड और मुण्ड के मारे जाने पर दैत्यराज शुम्भ ने बड़ा क्रोध किया और उदायुध नाम के छियासि दैत्य सेनापति, कम्बु नाम वाले चौरासी सेनानायक, कोटिवीर्य कुल के पचास, धौम्र कुल के सौर सेनापतियों सहित, कालक, दौहड्र, मौर्य और कलकेय नाम के असुरों और अपनी समस्त सेना को युद्ध के लिए प्रस्थान करने का आदेश दिया।
उसकी अत्यंत भयंकर सेना को आते देखकर देवी अम्बिका ने अपने धनुष की टंकार से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गूंजा दिया, देवी के सिंह ने भी भयंकर गर्जना आरम्भ की तथा देवी ने अपने घंटे ध्वनि से समक्ष दिशाओं को गूंजा दिया। उस तुमुल नाद को सुन कर दैत्यों की सेना ने चारों और से देवी चण्डिका और काली को करोधपूर्वक घेर लिया। उसी समय असुरों के विनाश तथा देवताओं के अभ्युदय के लिए ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु तथा इंद्र आदि देवताओं शक्तियाँ, जो अत्यंत बल और पराक्रम से परिपूर्ण थी उनके शरीर निकल कर देवी चण्डिका के पास गयीं।
जिस देवता का जैसा रूप, जैसी वेश भूषा और जैसा वाहन है, ठीक वैसे ही साधनो से सम्पन्न हो कर उनकी शक्ति असुरों से युद्ध करने के लिए आयीं। सबसे पहले हंस युक्त विमान पर बैठी हुई अक्षयसूत्र और कमंडल से सुशोभित ब्रह्मा जी की शक्ति ‘ब्राह्मणी’ उपस्थित हुईं। महादेव जी की शक्ति ‘माहेश्वरी’ वृषभ पर आरूढ़ होकर हाथों में श्रेष्ठ त्रिशूल धारण किए महानाग का कंगना पहने, मस्तक में चंद्ररेखा से विभूषित हो वहाँ आ पहुँची। कार्तिकेय जी की शक्ति ‘कौमारी’ उन्ही का रूप धारण किए मयूर पर आरूढ़ कर दैत्यों से युद्ध आर्नी लिए आयीं। भगवान विष्णु की शक्ति ‘वैष्णवी’ गरुड़ पर विराजमान हो शंख, चक्र, गदा, धनुष तथा खड्ग लिए वहाँ प्रकट हुई । अनुपम यज्ञवराह का रूप धारण करने वाले श्री हरी की शक्ति ‘वाराही’ भी वराह शरीर धारण करके वहाँ आयीं। इसी प्रकार नरसिंह रूप की शक्ति ‘नरसिंहि’ भी नरसिंह रूप में वहाँ उपस्थित हुईं। देवराज इंद्र की शक्ति ‘ऐंद्रि’ भी वज्र हाथ में लिए गजराज ऐरावत पर बैठ कर वहाँ आयीं।
तत्पश्चात उन देव शक्तियों से घिरे हुई महादेव जी ने चंडिका से कहा की मेरी प्रसन्नता के लिए हम शीघ्र ही इन असुरों का संहार करो। तब देवी चंडिका के शरीर से अत्यंत भयानक और परम उग्र शक्ति उत्पन्न हुई जिन्होंने महादेव से कहा ” भगवान आप शुम्भ- निशुम्भ के पास दूत बनकर जाइए और कहिए की दैत्यों यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो तुरंत पाताल लौट जाओ और इंद्र को त्रिलोकि का राज्य दे दो परंतु यदि तुम युद्ध की अभिलाषा रखते हो तो मेरी यह शिवाएँ (योगिनियाँ) तुमने भस्म कर देंगी”। महादेव जी को दूत रूप में भेजने के कारण यह शक्ति शिवदूति के नाम से प्रसिद्ध हुईं।
महादेव जी के वचन सुन कर समस्त दैत्य क्रोध में भर गए तथा उन्होंने देवी कात्यायनी के ऊपर आक्रमण कर दिया। तब देवी ने भी अपने धनुष से बाणो की वर्षा कर दी और दैत्य सेना द्वारा चलाए हुए समस्त प्रहारों को काट डाला। देवी काली भी दैत्यों का काल बन कर रणभूमि में विचारने लगीं। ब्राह्मणी भी जिस और दौड़ती, उसी और कमंडल का जल छिड़क कर शत्रुओं के ओज और पराक्रम को नष्ट कर देतीं। माहेश्वरी ने त्रिशूल, वैष्णवी ने चक्र, कौमारी ने शक्ति से दैत्यों का संहार आरम्भ किया। ऐंद्रि ने वज्र प्रहार से तथा वाराही ने अपनी थुथन तथा दातों की मार से कितने दैत्यों की छाती छेद डाली। नरसिंहि भी असंख्य दैत्यों की छाती अपने नखों से चीर डाली और शिवदूति ने प्रचंड अट्टहास से दैत्यों को पृथ्वी पर गिरा दिया।
माताओं के प्रहार से विदीर्ण हो दैत्य सेना को भागते देख रक्तबीज नाम का राक्षस युद्ध के लिए आया। महासुर रक्तबीज हाथ में गदा लेकर ऐंद्रि के साथ युद्ध करने लगा। ऐंद्रि के वज्र के प्रहार से घायल होने पर उसके शरीर से बहुत रक्त बहने लगा और उसी के समान पराक्रम वाले योद्धा उत्पन्न होने लगे। उसके शरीर से रक्त की जितनी बूँदे गिरी उतने ही रक्तबीज उत्पन्न हो गए और सम्पूर्ण जगत में व्याप्त हो गए। यह देख कर चण्डिका ने चामुण्डा से कहा ‘महाकाली! तुम अपने मुख को फैलाओ तथा मेरे वार से घायल होने पर रक्तबीज के रक्त बिंदुओं और उनसे उत्पन्न होने वाले महादैत्यों को खा जाओ’। ऐसा करने पर दैत्य का सारा रक्त क्षीण होने पर वह स्वयं नष्ट हो जाएगा और दूसरे दैत्य उत्पन्न नहीं होंगे। इस प्रकार चण्डिका देवी ने रक्तबीज पर शूल से वार किया तथा चामुण्डा ने समक्ष रक्त अपने मुँह में ले लिया और इस प्रकार वज्र, बाण, शूल, चक्र, खड़ग आदि से आहत हुआ महादैत्य रक्तबीज रक्त हीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।
अपनी समस्त सेना को युद्ध में परास्त होते देख कर शुम्भ और निशुम्भ अपनी प्रधान सेना को लेकर युद्ध के लिए आगे बढ़े तथा समस्त देवियों और शम्भु- निशुम्भ में भयंकर युद्ध छिड़ गया। शुम्भ और निशुम्भ ने अपनी समस्त शक्तियों के साथ देवियों पर प्रहार किया परंतु महादेवी ने उस प्रहार को विफल कर अपने एक ही वार से शुम्भ -निशुम्भ को अचेत कर दिया। निशुम्भ को कुछ चेतना आने पर वह महादेवी पर वार करने के लिए दौड़ा परंतु महादेवी ने उसे अपने दिव्य शूल से उसकी छाती को बींध डाला । शूल से विदीर्ण होने पर उसकी छातीसे एक दूसरा महाबली तथा पराक्रमी पुरुष युद्ध करने के लिय निकला परंतु माहेश्वरी ने खड़ग से उसका मस्तक काट कर उसका वध कर दिया।
अपने भाई का वध हुआ देखकर निशुम्भ को बड़ा अमर्ष हुआ और वह क्रोध में भर कर देवी अम्बिका से बोला ‘दुर्गे तू झूठा का घमंड मत दिखा। तू केवल इन अन्य स्त्रियों का सहारा लेकर ही बड़ी मानिनि बनी हुई है। यह सुन कर देवी अम्बिका ने अपना दिव्य रूप धारण किया तथा शुम्भ के सामने अपनी सभी विभूतियों को अपने शरीर में सम्मिलित कर लिया। उसके पश्चात देवी अम्बिका और शुम्भ में युद्ध छिड़ गया। देवी अम्बिका ने दिव्य अस्त्रों से शुम्भ के समक्ष अस्त्रों को एक एक करके काट डाला। ऐसा होने पर शुम्भ ने बड़े वेग से देवी पर मुक्के से प्रहार किया और देवी ने हाथ से शुम्भ पर प्रहार किया। देवी के प्रहार से शुम्भ पृथ्वी परगिर पड़ा किंतु पुनः उठ कर खड़ा हो गया। फिर अम्बिका ने बहुत देर शुम्भ के साथ युद्ध करने के पश्चात उसको उठा कर पृथ्वी पर पटक दिया तथा अपने त्रिशूल से उसकी छाती को छेद कर उसे पृथ्वी पर गिरा दिया। देवी के शूल से घायल होने से उसके प्राण निकाल गए तथा वह समस्त पृथ्वी को कंपाता हुआ भूमि पर गिर पड़ा।
उस दुरात्माका वध हो जाने पर सम्पूर्ण जगत प्रसन्न और पूर्ण स्वस्थ हो गया तथा इंद्र आरती समक्ष देवताओं ने देवी भगवती का सत्वन किया।
या देवी सर्वभूतेशु विष्णुमएति शब्दिता।
नमस्तसये, नमस्तसये, नमस्तसये नमों नमः।।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
(संदर्भ : श्री मार्कण्डेय पुराण, अध्याय ५-१०)
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