जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्ति प्राप्त कर मोक्ष प्राप्ति का क्या साधन है?
मनुष्य सर्वदा शारीरिक और मानसिक आदि दुखों से आक्रांत ही रहता हैं। मरणशील तो है ही यदि उसने बड़े श्रम और कष्ट से कुछ धन और भोग प्राप्त कर भी लिया तो उससे क्या लाभ। लोभी और भोगी व्यक्ति सर्वदा दुःख ही भोगता है । भय के कारण उसे नींद नहीं आती और सब पर उसका संदेह बना रहता है । मधुमखि जैसे मधु का संचय करती है, वैसे ही लोग बड़े कष्ट से धन का संचय करते है परंतु उसका उपभोग कोई दूसरा ही करता है। तृष्णा एक ऐसी वस्तु है, जो इच्छा अनुसार भोगों के प्राप्त होने पर भी पूरी नहीं होती, इसी के कारण मनुष्य को जीवन मरण के चक्र में भटकना पड़ता है।
विषय भोग की बातें सुनने में ही अच्छी लगती हैं वास्तव में वे मृग तृष्णा के जल के समान नितांत असत्य है और यह शरीर भी जिससे विषयभोग भोगे जाते हैं। यह संसार एक ऐसा अँधेरा कुआँ है, जिसमें कालसर्प डसने के लिए सदा तैयार रहता है। विषय भोगों की इच्छा रखने वाला पुरुष उसी में गिरा हुआ है। मिथ्या विषयों और रोग युक्त शरीर, इनकी क्षण भंगुरता और असारता जान कर भी मनुष्य इससे विरक्त नहीं होता।
मनुष्य के मन की भी अत्यंत दुर्दशा है, वह पाप, वासनाओं से तो कलुषित होने के साथ साथ स्वयं भी अत्यंत दुष्ट है। वह प्रायः: ही कामनाओं के कारण दुःखी रहता है और हर्ष-शोक, भय, लोक-परलोक, धन, पत्नी, पुत्र, आदि चिंताओं से व्याकुल रहता है और प्रभु के स्वरूप का चिंतन नहीं करता। जन्म और मृत्यु के निरंतर चलने वाले चक्र से और दोनो के द्वारा उत्पन्न हुए कर्म भोग से मनुष्य अत्यंत भयभीत हो गया है। यह अपना है और यह पराया – इस प्रकार के भेदभाव से युक्त हो कर किसी से मित्रता करता है और किसी से शत्रुता।
आत्मतत्व को जानने के लिए मनुष्य को चाहिए की शरीर, मन आदि में अज्ञानता के कारण जो ‘मैं और ‘मेरे’ का झूठा भाव हो रहा है उसे छोड़ दें और स्वयं को परमात्मा में लीन करके यह समझे की आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, एक, क्षेत्रक, आश्रय, निर्विकार, स्वयं प्रकाश, सबका कारण, व्यापक, असंग तथा आवरणरहित है।
जागृत, स्वप्न, और सुशपती ये तीन बुद्धि की वृत्तियाँ हैं। इन व्रतियों का जिसके द्वारा अनुभव होता है- वही सबसे अतीत, सर्वसाक्षी परब्रह्म है। मोक्ष प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है की मनुष्य बुद्धि की कर्मजन्य अवस्थाओं के द्वारा इनमे साक्षी रूप से उपस्थित आत्मा को पहचाने। गुण और कर्मों के द्वारा होने वाला जन्म- मृत्यु का यह चक्र आत्मा को शरीर और प्रकृति से अलग ना करने के कारण ही है।
इसलिए मनुष्य को चाहिए की वह विविध नाम वाले पदार्थों और विषयों से उतना ही व्यवहार रखे जितना प्रयोजनीय हो और अपने हृदय में नित्य विराजमान, स्वत: सिद्ध, आत्मस्वरूप परम प्रियता परम सत्य जो अनंत भगवान है उन्ही का भजन करे , क्योंकि उनके भजन से जन्म मृत्यु के चक्र में डालने वाले अज्ञान का नाश होता है तथा मोक्ष की प्राप्ति होती हैं।
मोक्ष के दस साधन प्रसिद्ध हैं – मौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्र श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्मपालन, युक्तियों से शास्त्रों की व्याख्या, जप और समाधि।
मोक्ष प्राप्ति के लिए ब्राह्मण, देवता या ऋषि होना, सदाचार और विविध ज्ञानों से सम्पन्न होना, दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक शुद्धता और बड़े बड़े व्रतों का अनुषठान ही पर्याप्त नहीं है। मोक्ष प्राप्ति के लिए श्रीभगवान को प्रसन्न करना अत्यंत आवश्यक है और श्रीभगवान केवल निष्काम प्रेम भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं। श्रीभगवान की भक्ति के प्रभाव से दैत्य, यक्ष, राक्षस, पक्षी, मृग और बहुत से पापी जीव भी मोक्ष को प्राप्त हो गए हैं।
जो मनुष्य चित्त को एकाग्र करते हुए सच्चे भाव से भगवान की कथाओं का श्रवण करते हुए,प्राणियों में समभाव रखने, किसी से वैर ना रखने, आसक्ति के त्याग से, दयालु और धैर्यवान प्रवृति से और भगवान के वास्तविक स्वरूप के अनुभव से प्राप्त हुए तत्व ज्ञान के कारण, बुद्धि की अवस्थाओं से अलग हो गया है और परमात्मा के सिवा किसी और में चित्त नहीं लगाता वह आत्म दर्शी मनुष्य नेत्रों से सूर्य को देखने भाँति अपने शुद्ध अंत:करण में परमात्मा का साक्षात्कार कर उस अद्वितीय परमात्मा को प्राप्त करता है।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
Leave a Reply