क्या हिन्दू धर्म हिंसा में विश्वास रखता है?
हिन्दू धर्म में सभी प्राणियों में ईश्वर का सूक्ष्म अंश आत्मा के रूप में माना गया है जिनके जनक स्वयं श्री भगवानहैं परंतु हिन्दू धर्म पपियोंके विनाश के लिए हिंसा को धर्म की मान्यता देता है ।
श्रीमद भागवत महापुराण में एक और कहा गया है की धर्मवेत्ता पुरुष, असावधान, मतवाले, पागल सोये हुए, बालक, स्त्री, विवेकज्ञान शून्य, शरणागत, रथहीन और भयभीत शत्रु को कभी नहीं मरना चाहिए।
वही दूसरी और कहा गया है की जो दुष्ट और क्रूर पुरुष दूसरों को मार कर अपने प्राणो का पोषण करता है, उसका तो वध ही उसके लिए कल्याणकारी है क्यूँकि वैसी आदत ले कर अगर वह जीता है तो और भी पाप करता है और उन पापों के कारण नरकगामी होता है ।
निर्दोष का वध अधर्म है और आततायी* का वध धर्म।
निर्दोष प्राणियों की हत्या अधर्म है और उसका प्रायश्चित्त नहीं किया जा सकता। जैसे कीचड़ से गंगा जल साफ़ नहीं किया जाता सकता, मदिरा से मदिरा की अपवित्रतआ नहीं मिटायी जाता सकती, वैसे ही बहुत से हिंसाबाहुल यज्ञों के द्वारा ही एक ही प्राणी की हत्या का प्रायश्चित्त नहीं किया जा सकता।
।। श्रीमद् भागवत महापुराण।। प्रथमस्कंध, अध्याय 7, श्लोक 36 , 37/ अध्याय 9, श्लोक 52
*आग लगाने वाला, विष देने वाला, बुरी नियत से शस्त्र ग्रहण करने वाला, धन लूटने वाला, खेत या स्त्री का हरण करने वाला भी आततायी माना जाता है।
।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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