क्या हिन्दू धर्म में भगवान प्राप्ति का उपाय केवल प्रतिमा पूजन है? समस्त प्राणियों में कौन श्रेष्ठ है? हिंदु प्रणाम क्यों करते हैं?
परमात्मा का वास्तविक स्वरूप एकरस, शांत, अभय एवं केवल ज्ञानस्वरूप है। वह सत् और असत् दोनो से परे है। समस्त कर्मों के फल भी भगवान ही देते हैं। क्योंकि मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार जो शुभ कर्म करता है, वह सब उन्ही की प्रेरणा से होता है । इस शरीर में रहने वाले पंचभूतों के अलग अलग हो जाने पर जब यह शरीर नष्ट हो जाता है, तब भी इसमें रहने वाला अजन्मा पुरुष आकाश के समान नष्ट नहीं होता।
संसार में सभी भेदों से जितने भी जलचर, थलचर और आकाशचारी प्राणी हैं, सब के सब शुभ-अशुभ और मिश्रित कर्मों के तदनुरूप फल हैं। सत्व की प्रधानता से देवता, रजोगुण की प्रधानता से मनुष्य और तमोगुण की प्रधानता से नारकीय योनियाँ प्राप्त होती हैं ।
जो मनुष्य निष्कपट भाव से अपना सर्वत्र उनके चरण कमलों में न्योछावर कर देते हैं, उन पर वे अनन्त भगवान स्वयं ही अपनी और से दया करते है। भगवान ही सम्पूर्ण लोकों की रचना करते हैं और देवता, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि योनियों में लीलावतार ग्रहण करके सत्वगुण द्वारा जीवों का पालन पोषण करते हैं।
भागवत प्राप्ति के लिए भगवान की लीलाओं का श्रद्धा के साथ श्रवण और भजन करने पर थोड़ी ही समय में श्री भगवान प्रकट हो जाते हैं। श्री भगवान कर्ण छिद्रों के द्वारा अपने भक्तों के भावमय हृदयकमल पर जा कर बैठ जाते हैं और जैसे शरदऋतु जल का गंदलापन मिटा देती है, वैसी ही श्री भगवान भक्तों के मनोमल का नाश करते हैं।
भगवान को प्राप्त करने का उपाय भागवत भजन, प्राणियों में सद्भावना रखना है या केवल प्रतिमा पूजन इसका उत्तर कपिलावतार में स्वयं श्री भगवान ने इस प्रकार दिया है:
“मैं आत्मा रूप से सभी जीवों में स्थित हूँ, इसीलिए जो लोग मुझे सर्वभूत स्थित परमात्मा का अनादर करके केवल प्रतिमा में मेरा पूजन करते हैं, उनकी पूजा स्वाँग मात्र है । मैं सबका आत्मा, परमेश्वर, सभी भूतों में स्थित हूँ; ऐसी दशा में जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा के पूजन में ही लगा रहता है, वह मानो भस्म में ही हवन करता है।“
जो भेद दर्शी और अभिमानी पुरुष दूसरे जीवों के साथ वैर बाँधता है और इस प्रकार उनके शरीर में विद्यमान मुझ आत्मा से ही द्वेष करता है, उनके मन को कभी शांति नहीं मिल सकती। जो दूसरे जीवों का अपमान करता है, वह बहुत सी घटिया – बढ़िया सामग्रियों से अनेक प्रकार के विधि विधान के साथ मेरी मूर्ति का पूजन भी करे तो भी मैं उससे प्रसन्न नहीं हो सकता।
मनुष्य को चाहिए की वह अपने धर्म का अनुशठान करता हुआ तब तक मुझ ईश्वर की निर्गुण या प्रतिमा आदि में पूजा करता रहे जब तक उसे अपने हृदय में और सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित परमात्मा का अनुभव ना हो जाए । जो व्यक्ति आत्मा और परमात्मा में ज़रा भी भेद करता है उस भेद दर्शी मनुष्य को मैं मृत्यु रूप से महान भय उत्पन्न करता हूँ। अत: सब प्राणियों के भीतर घर बना कर उन प्राणियों के ही रूप में स्थित मुझ परमात्मा का यथायोग्य दान, मान, मित्रता के व्यवहार तथा समदृष्टि के द्वारा पूजन करना चाहिए।
इस सृष्टि में पाषाण आदि अवचेतनों की अपेक्षा वृक्ष आदि श्रेष्ठ हैं, उनसे साँस लेने वाले प्राणी, उनसे भी मन वाले प्राणी और उनसे इंद्रियों की वृत्ति से युक्त प्राणी श्रेष्ठ हैं। इन्द्रिय वाले प्राणियों में भी स्पर्श का अनुभव करने वाले और उनकी अपेक्षा रस ग्रहण करने वाले तथा रस वेत्ताओं की अपेक्षा गंध का अनुभव करने वाले और गंध ग्रहण करने वालों से शब्द ग्रहण करने वाले श्रेष्ठ हैं। उनसे भी रूप का अनुभव करने वाले उत्तम हैं और उनकी अपेक्षा जिनके ऊपर नीचे दोनो और दाँत होते हैं, वे जीव श्रेष्ठ हैं। बिना पैर वालों से बहुत से चरणों वाले और बहुत से चरणो वालों से दो चरण वाले मनुष्य श्रेष्ठ हैं।
मनुष्यों में चारों वर्ण श्रेष्ठ हैं और वर्णों में मोक्ष दिलाने वाले ब्राह्मण, ब्राह्मणों में वेद को जानने वाले उत्तम हैं और वेदग्यों में वेद का तात्पर्य जानने वाले श्रेष्ठ हैं, तात्पर्य जानने वालों से संशय का निवारण करने वाले और उनसे भी अपने वर्ण धर्म का पालन करने वाले श्रेष्ठ हैं।
उपरोक्त वर्णित सभी प्राणियों की अपेक्षा जो लोग अपने सम्पूर्ण कर्म, उनके फल तथा शरीर को भी मुझे अर्पण करके , भेदभाव छोड़ कर मेरी उपासना करते हैं वे सर्वश्रेष्ठ हैं। इस प्रकार मुझमें ही चित्त और कर्म का समर्पण करने वाले अकर्ता और समदर्शी पुरुष से बढ़कर मुझे कोई अन्य प्राणी नहीं दीखता।
अत: यह मान कर की जीवरूप अपने अंश से साक्षात भगवान ही सबमे अनुगत हैं, संसार के समस्त प्राणियों को बड़े आदर के साथ मन से प्रणाम करना चाहिए।
।।ॐ नमो भगवते वसुदेवाय:।।
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