क्या हिन्दुओं को सांप्रदायिक कहना उचित है? क्या हिन्दू धर्म साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देता है?
अत्यंत दुःख का विषय है की आजकल शास्त्र विहीन देश के नेता कहलाने वाले कुछ लोग केवल अपनी संकीर्ण मानसिकता और स्वार्थ सिद्धि के कारण हिन्दुओं पर सांप्रदायिक होने या हिन्दू सनातन धर्म पर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने का मिथ्या आरोप लगाते हैं और देश की उन्नति में देशसेवा तथा देशोन्नति कार्यों में सनातन धर्मियों को बाधक समझते है। वास्तव में यह उनकी मूर्खता और सम्पूर्ण भूल है। यदि उन्होंने सनातन धर्म शास्त्रों का अध्ययन किया होता तो वह ऐसा कहने या सोचने की भी चेष्टा नही करते ।
यदि वर्त्तमान समय के सभी प्रकरणों पर विचार किया जाये तो पता चलेगा की पिछले ४०० सालों में हिन्दू समाज पर हुए इतने अत्याचारों के बाद भी सनातन धर्मिओं ने स्वदेश और स्वदेश वासियों के प्रति कभी अनुचित सोचा भी नहीं है अत्याचार तो बहुत दूर की बात है। इसका प्रथम कारण यह है सनातन धर्म में देशसेवा और विश्व कल्याण की भावना कूट कूट कर भरी है सनातन धर्मी केवल अपने धर्म या देश का नहीं समस्त विश्व के कल्याण का सोचता है और भगवत प्राप्ति के लिए कर्म करता है । गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है:
कर्मणये वाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन ।
मां कर्मफलहेतुर्भू: मांते संङगोस्त्वकर्मणि ।। २-४७।।
योगस्थ: कुरु कर्मोणि सङ्ग त्यक्त्वा धनञ्जय !
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। २-४८।।
कर्म मे ही अधिकार है, फल मे अधिकार नही है । फलाकांक्षा से कभी कर्म नही करना चाहिये और फल नही मिलेगा इस विचार से कर्मका त्याग भी नही करना चाहिये। आसक्तिशून्य तथा सिद्धि असिद्धि मे समभावापन्न होकर कर्म करना चाहिये, इस प्रकार समभाव ही योग कहलाता है।
सनातन धर्म के आदर्श लक्षणों में परधर्मी विद्वेष या परजाति विद्वेष है ही नही। इन दोनों को सनातन धर्म निन्दनीय तथा जातीय कलङ्करूप समझता है। जिस जातिके धर्ममें यह उदार सिद्धान्त है कि:-
‘धर्म यो वाधते धर्मो न स धर्मः कुधर्म तत्?
अर्थात् जो धर्म अन्य धर्म को दबा दे वह कुधर्म है उस जाति मे परधर्मी विद्वेष हो नही सकता। और जिस जाति के उदार लक्ष्य मे ‘उदारचरितानान्तु वसुधैव कुटुम्बकम। ऐसी आशा है, उस जातिके आदर्शचरित्र पर सम्प्रदियकता या परजाति विद्वेष का कलङ्क किसी भी प्रकार से लगा ही नहीं सकते । सनातन धर्म में कहीं कहीं जो अन्य देश मे जाने अथवा वहाँ वास करने आदि के विरुद्ध वचन पाये जाते हैं अथवा समुद्रयात्रा या विदेशयात्रा आदि की निन्दा पायी जाती है, उसका कारण परधर्मी विद्वेष या परजाति विद्वेष नही है, किन्तु उसका कारण सनातन धर्म के आध्यात्मिक भाव का संरक्षण ही है।
सनातन धर्म जीवन आध्यात्म लक्ष्य प्रधान है इसलिये सनातन धर्म में स्वदेश प्रेम ही प्रधान रहता है। सनातन धर्मी भगवत्पूजा रूप से स्वदेश तथा स्वदेश धर्मियों की सेवा करती है। सनातन धर्म के सिद्धान्तानुसार समस्त संसार श्री भगवान का विराट रूप तथा स्वदेश उस विराट् पुरुष का हृदय है । इसलिये सनातन धर्मी की स्वदेश सेवा विराट् भगवान् की पूजा है । मोक्षप्रिय सनातन धर्मी निष्कामभाव से ही इस विराट पुरुषकी पूजा करते हैं और सफलता या विफलता को पूजा फल रूप से श्रीभगवान में ही समर्पण करते हैं। इसलिये स्वदेशसेवा मे उसको मोह, आसक्ति, अभिमान, अहंकार आदि क्लिष्ट वृत्तियों के द्वारा आक्रान्त होने का कोई भी अवसर नही रहता है। वह स्वदेशसेवा द्वारा विराट भगवान की ओर ही अग्रसर होती है।
अन्य पंथों, सम्प्रदायों के लोग मोहादि वृत्तियो के वशीभूत होकर स्वदेशवासियो को भ्राता कहकर उनके सुख के लिये आत्म सुख त्याग करनेमे पुरुषार्थ करते हैं। किन्तु सनतान धर्मी को इस प्रकार कृति के वशीभूत होने का प्रयोजन नही रहता है। उसका धर्ममय, अध्यात्म लक्ष्यमय जीवन ही जीव मात्रके प्रति, विशेषतः स्वदेशवासियों के प्रति भ्रातृभाव उत्पन्न करता है। वास्तव में देखा जाये तो अपने देशवासियो को ‘भाई’ कहने का अधिकार केवल सनातन धर्मी को ही है क्योंकि सनातन धर्म के शास्त्र कहते हैं –
‘ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानीति”
“ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:”
प्रत्येक जीव मे जीवात्मा रूप से अद्वितीय परमात्माका ही अंश ही विद्यमान है, अतः परमात्मा के अंश होने से सभी आत्मा भ्रातृभाव से युक्त हैं। समस्त जीवों में विशेषतः स्वदेशवासियो मे यह भ्रातृभाव स्वाभाविक तथा अध्यात्म कारण जन्य है । इन्ही सिद्धान्तो के अनुसार सनातन धर्मी स्वदेश सेवा मे ही विराट भगवान् की पूजा और नरपूजा मे नारायण की पूजा करती है।
ऊपर वर्णित कारणों से स्पष्ट है की सनातन धर्मी अन्य धर्मों की निंदा तथा देश में विभाजन जैसे शास्त्रविरुद्ध उपायों को अपनाने का अनुमोदन न तो कर सकता है तथा न करनेकी आवश्यकता ही समझता है क्योंकि उनको गीता में व्यक्त श्रीभगवान के भावों पर सम्पूर्ण विश्वास है:
य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥ १६-२३ ॥
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥१६-२४॥
अर्थात जो मनुष्य शास्त्रों में बताये हुए उपायों को छोड़ कर मनमाना काम करता है, उसकी कार्यमें न सिद्धि ही मिलती है, न सुख मिलता है और न उत्तम गति मिलती है। इसलिये कर्तव्य अकर्तव्यका निर्णय करते समय शास्त्र में क्या लिखा है जान कर उसके अनुसार कर्तव्य ठीक करना चाहिये। तभी सच्ची सफलता मिलती है। और ऐसा करनेसे कभी धोखा नही होता है।
दूसरा वर्त्तमान समय में केवल हिन्दू सनातन धर्म ही सम्पूर्ण धर्म की परिभाषा को पूरा करता है क्योंकि सनातन धर्म ना तो किसी व्यक्ति विशेष द्वारा चलाया गया है ना ही सनातन धर्म की उत्पत्ति की कोई तिथि या स्थान ही निश्श्चित है। अत: जब हिन्दू सनातन धर्मी केवल मोक्ष प्राप्ति को ही अपने जीवन का लक्ष्य मानता है तो वह एक पंथ या संप्रदाय का अनुमोदन कर ही कैसे सकता है।
सांप्रदायिक होने का भाव के तात्पर्य अपने संप्रदाय को श्रेष्ठ मानते हुए दूसरे संप्रदाय को गलत ठहराना या द्वेष रखना और अपने संप्रदाय के हित और अन्य संप्रदाय के अहित में संलग्न होने का भाव रखने को कहा जाता है। इस परिभाषा के आधार पर भी सनातन हिन्दू धर्म को सांप्रदायिक या साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाला कहा ही नहीं जा सकता क्योंकि ‘धर्म‘ और ‘संप्रदाय‘ में अंतर है। हिन्दू धर्म ‘धर्म‘ है किसी व्यक्ति विशेष द्वारा चलाया गया ‘संप्रदाय‘ नहीं।
अन्य सम्प्रदायों की अपेक्षा, सनातन धर्मियों को बालयकाल से ही शिक्षा दी जाती है:
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो , दशकं धर्म लक्षणम् ॥
धैर्य , क्षमा , दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना) , अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरङ्ग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग) , विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा) , सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना) ; ये दस धर्म के लक्षण हैं।)
जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ न करना चाहिये – यह धर्म की कसौटी है।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि , परेषां न समाचरेत् ॥
धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो ! अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये ।
परन्तु अपने देश की, अपने धर्म की, अपने संस्कारों की और अपने भाइयों की रक्षा करना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और उसके लिए हम अनेकों बलिदान देने के लिए भी तैयार हैं। यही हिन्दू शास्त्रों में भी कहा गया है
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यः मानो धर्मो हतोवाधीत् ॥
धर्म उसका नाश करता है जो धर्म का नाश करता है | धर्म उसका रक्षण करता है जो उसके रक्षणार्थ प्रयास करता है। अतः धर्मका नाश नहीं करना चाहिए | ध्यान रहे धर्मका नाश करनेवालेका नाश, अवश्यंभावी है।
।।ॐ नमो भगवाते वासुदेवाय:।।
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