कीलक स्तोत्र का महत्त्व । क्या कीलक स्तोत्र का पाठ हानिकारक हो सकता है ?
श्री दुर्गा सप्तशती के पाठ में अर्गला स्तोत्र के उपरान्त ‘कीलक”स्तोत्र का पाठ किया जाता है। कीलक स्त्रोत्र के विषय में अनेको भ्रांतियां समाज में उपस्थित हैं। प्राय: यह कह कर कीलक स्त्रोत्र के पाठ या स्तवन को हतोत्साहित किया जाता है की यदि कीलक का पाठ सही विधि या उसका अभिप्राय उपयुक्त प्रकार से समझे बिना किया जाये तो वह फलदायी नहीं होता अपितु हानि पहुंचता है।
मार्कण्डेय ऋषि जी ने यह स्थापित किया की अन्य मंत्रों का जप न करके केवल दुर्गा सप्तशती का पाठ करके देवी की स्तुति करते हैं, उन्हें स्तुति मात्र से ही सत्, चित और आनन्द की प्राप्ति होती है। ऐसे भक्तों को अपने कार्य की सिद्धि के लिये मंत्र, औषधि तथा अन्य किसी साधन के उपयोग की जरूरत नहीं रह जाती है।
मनुष्यों के मन में शंका आयी की (१) जब केवल दुर्गा सप्तशती का जाप करके सिद्धि पायी जा सकती है तो अन्य किसी मन्त्र का जाप क्यों करें उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। (२) जब अन्य मंत्रों की उपासना से भी समान रूप से कार्य सिद्ध होते हैं, तब इनमें से कौन सा साधन श्रेष्ठ है। मनुष्यों की इसी शंका का भगवान् शंकर ने स्वयं निवारण किया। इसीलिए कीलक मंत्रों के ऋषि भगवान शंकर बताये गये हैं। कीलक का अर्थ होता है किसी के प्रभाव को नष्ट कर देने वाला मंत्र। भगवान् शंकर ने लोगों को समझाया:
समग्राण्यपि सिद्धयन्ति लोकशंकामिमां हरः।
कृत्वा निमन्त्रया मास सर्वमेकमिदं शुभम्।।
अर्थात् यह सप्तशती नामक सम्पूर्ण स्तोत्र ही सर्वश्रेष्ठ एवं कल्याणमय है।
कीलक स्तोत्र में विद्यमान अन्य मन्त्रों
ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति।
इत्थं रूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम् ।।
ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत न कुर्वाणो विनश्यति।
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः।।
पर भी विद्वानों ने बहुत विचार किया है और सभी ने अपन अपने मत रखे हैं किन्तु इसका यही अर्थ सभी प्रकार के मनुष्यों के लिए ठीक है – न्यायोपार्जित द्रव्य समर्पित करके उन्हीं भगवती का समझ कर प्रार्थना करें – हे माँ ! यह सारा धन आपको समर्पण कर रहा हूँ, इसमें मेरा कुछ नहीं है । ऐसे कृतज्ञ हृदय के गद्गद् भाव से माँ के चरणों में निवेदन करे । पुनः ऐसी भावना करे कि माँ कह रही है-”मैंने स्वीकार किया’–अब तू इसे प्रसाद रूप समझ कर संसार यात्रा के निर्वाह में सदूपयोग कर। इस प्रकार माँ की आज्ञा लेकर, प्रसाद समझ कर धर्म – शास्त्रों के अनुसार उसका सदुपयोग करते हुए जीवन यापन करे। सम्पूर्ण समर्पण की भावना के आभव में भगवती रुष्ट हो जाएँगी तथा भगवती के रुष्ट हो जाने पर विनाश अवश्यम्भावी है।
कीलक स्तोत्र पाठ में समर्पण ही विशेष भाव है जिसको महादेवजी ने कीलित किया है। केवल कीलन और निष्कीलन के ज्ञान की अनिवार्यता बताने के लिये ही विनाश होना कहा गया है। सम्पूर्ण समर्पण के महत्त्व को जीवन में पहचानते हुए ही विद्वान् पुरुष को इस निर्दोष स्तोत्र का पाठ आरम्भ करना चाहिए।
समर्पण के विषय में श्रीमद भागवत महापुराण में भी कहा गया है :-
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा, बुद्धयाऽत्मना बानुसृतस्वभावात्।
करोति यत् यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयेत्तत् ॥
(श्रीमदभगवत महापुराण ११।३।३६)
शरीर, वाणी, मन, इन्द्रियाँ, बुद्धि, आत्मा या अपने जाने अनजाने में मनुष्य जो-जो कार्य करे, उसे वह परब्रह्म नारायण को अर्पण कर देने चाहिए।
अतः सभी साधकों को सदैव अपने इष्ट के समक्ष नत मस्तक होकर समर्पण करना चाहिए। कोई अन्य विकार हमारे अंदर न उत्पन्न होकर हमें अपने पथ से विचलित न करे यही कीलक स्त्रोत्र का अभिप्राय तथा महत्त्व है।
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श्री दुर्गा सप्तशती में वर्णित कीलक स्तोत्र इस प्रकार है –
अथ कीलकम्।
ॐ अस्य श्रीकीलकमन्त्रस्य, शिव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहासरस्वती देवता, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थं सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।
ॐ नमश्चण्डिकायै
मार्कण्डेय उवाच-
ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे।
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे।।१।।
महर्षि श्री मार्कडेयजी बोले – निर्मल ज्ञानरूपी शरीर धारण करने वाले, देवत्रयी रूप दिव्य तीन नेत्र वाले, जो कल्याण प्राप्ति के हेतु है तथा अपने मस्तक पर अर्द्धचन्द्र धारण करने वाले हैं उन भगवान शंकर को नमस्कार है ॥१॥
सर्वमेतद्विजानीयान्मंत्राणामभिकीलकम्।
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जप्यतत्परः।।२।।
मन्त्रों की सिद्धि में विघ्न उपस्थित करने वाले शाप रूपी कीलक का जो निवारण करनेवाला है, उस सप्तशतीस्तोत्र को सम्पूर्ण रूप से जानना चाहिये (और जानकर उसकी उपासना करनी चाहिये), यद्यपि सप्तशतीके अतिरिक्त अन्य मन्त्रोंके जपमें भी जो निरन्तर लगा रहता है, वह भी कल्याणका भागी होता है॥ २॥
सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि सकलान्यपि।
एतेन स्तुवतां देवीं स्तोत्रमात्रेण सिद्धयति।।३।।
मन्त्रों का जो अभिकीलक है अर्थात् उसके भी उच्चाटन आदि कर्म सिद्ध होते हैं तथा उसे भी समस्त दुर्लभ वस्तुओंकी प्राप्ति हो जाती है; तथापि जो अन्य मन्त्रोंका जप न करके केवल इस सप्तशती नामक स्तोत्र से ही देवीकी स्तुति करते हैं, उन्हें स्तुतिमात्र से ही सच्चिदानन्दस्वरूपिणी देवी सिद्ध हो जाती हैं ॥३॥
न मंत्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते।
विना जाप्येन सिद्ध्येत सर्वमुच्चाटनादिकम्।।४।।
उन्हें अपने कार्य की सिद्धि के लिये मन्त्र, ओषधि तथा अन्य किसी साधन के उपयोग की आवश्यकता नहीं रहती। बिना जप के ही उनके उच्चाटन आदि समस्त आभिचारिक कर्म सिद्ध हो जाते हैं ॥ ४॥
समग्राण्यपि सिद्धयन्ति लोकशङ्कामिमां हरः।
कृत्वा निमंत्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम्।।५।।
इतना ही नहीं, उनकी सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ भी सिद्ध होती हैं। लोगों के मन में यह शंका थी कि ‘जब केवल सप्तशती की उपासना से अथवा सप्तशती को छोड़कर अन्य मन्त्रोंकी उपासना से भी समानरूप से सब कार्य सिद्ध होते हैं, तब इनमें श्रेष्ठ कौन-सा साधन है?’ लोगोंकी इस शंका को सामने रखकर भगवान् शंकरने अपने पास आये हुए जिज्ञासुओं को समझाया कि यह सप्तशती नामक सम्पूर्ण स्तोत्र ही सर्वश्रेष्ठ एवं कल्याणमय है॥५॥
स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुप्तं चकार सः।
समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां यथावन्निमंत्रणाम्।।६।।
तदनन्तर भगवती चण्डिका के सप्तशती नामक स्तोत्र को महादेवजीने गुप्त कर दिया। सप्तशती के पाठ से जो पुण्य प्राप्त होता है, उसकी कभी समाप्ति नहीं होती; किंतु अन्य मन्त्रों के जपजन्य पुण्य की समाप्ति हो जाती है। अत: भगवान् शिव ने अन्य मन्त्रों की अपेक्षा जो सप्तशती की ही श्रेष्ठता का निर्णय किया, उसे यथार्थ ही जानना चाहिये ॥ ६॥
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेव न संशयः।
कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः।।७।।
ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति।
इत्थं रूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम्।।८।।
अन्य मन्त्रों का जप करने वाला पुरुष भी यदि सप्तशती के स्तोत्र और जप का अनुष्ठान कर ले तो वह भी पूर्णरूप से ही कल्याण का भागी होता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो साधक कृष्णपक्ष की चतुर्दशी अथवा अष्टमी को एकाग्रचित्त होकर भगवती की सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है और फिर उसे प्रसादरूप से ग्रहण करता है, उसी पर भगवती प्रसन्न होती हैं; अन्यथा उनकी प्रसन्नता नहीं प्राप्त होती। इस प्रकार सिद्धि के प्रतिबन्धक रूप कील के द्वारा महादेवजी ने इस स्तोत्र को कीलित कर रखा है॥ ७-८॥
यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति संस्फुटम्।
स सिद्धः स गणः सोऽपि गन्धर्वो जायते नरः।।९।।
जो पूर्वोक्त रीति से निष्कीलन करके इस सप्तशती स्तोत्र का प्रतिदिन स्पष्ट उच्चारणपूर्वक पाठ करता है, वह मनुष्य सिद्ध हो जाता है, वही देवी का पार्षद होता है और वही गन्धर्व भी होता है॥९॥
न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापीह जायते।
नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात्।।१०।।
सर्वत्र विचरते रहनेपर भी इस संसारमें उसे कहीं भी भय नहीं होता। वह अपमृत्युके वशमें नहीं पड़ता तथा देह त्यागने के अनन्तर मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥ १०॥
ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत न कुर्वाणो विनश्यति।
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः।।११।।
अतः कीलन को जानकर उसका परिहार करके ही सप्तशती का पाठ आरम्भ करे। जो ऐसा नहीं करता, उसका नाश हो जाता है। इसलिये कीलक और निष्कीलन का ज्ञान प्राप्त करने पर ही यह स्तोत्र निर्दोष होता है और विद्वान् पुरुष इस निर्दोष स्तोत्र का ही पाठ आरम्भ करते हैं ॥ ११ ॥
सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद् दृश्यते ललनाजने।
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जप्यमिदम् शुभम्।।१२।।
स्त्रियों में जो कुछ भी सौभाग्य आदि दृष्टिगोचर होता है, वह सब देवी के प्रसादका ही फल है। अतः इस कल्याणमय स्तोत्र का सदा जप करना चाहिये ॥ १२॥
शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः।
भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत्।।१३।।
इस स्तोत्र का मन्दस्वर से पाठ करने पर स्वल्प फल की प्राप्ति होती है और उच्च स्वर से पाठ करने पर पूर्ण फल की सिद्धि होती है। अतः उच्च स्वर से ही इसका पाठ आरम्भ करना चाहिये ॥ १३॥
ऐश्वर्यं तत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यसम्पदः।
शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः।।१४।।
जिनके प्रसाद से ऐश्वर्य, सौभाग्य, आरोग्य, सम्पत्ति, शत्रुनाश तथा परम मोक्ष की भी सिद्धि होती है, उन कल्याणमयी जगदम्बा की स्तुति मनुष्य क्यों नहीं करते? ॥ १४॥
।।इति श्रीभगवत्याः कीलकस्तोत्रं समाप्तम्।।
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