उपवेद
जिस प्रकार लौकिक पुरुषार्थयुक्त योग, साधनयुक्त उपासना और वैदिक कर्म परम्परा रूप से मुक्तिपद की प्राप्ति में सहायक होते हैं, जिस प्रकार धर्म, अर्थ और काम ये तीन परम्परा रूप से अन्तिम फल, मोक्ष की प्राप्ति में सहायक होते हैं, और जिस प्रकार किसी जीव की लौकिक उन्नति उसकी आध्यात्मिक उन्नति का उपाय होता है, उसी प्रकार उपवेद समूह मनुष्य की क्रमोन्नति के सहायक हैं, और क्रमोन्नति में सहायक होने के कारण ये पौरुषेय होने पर भी उपवेद कहलाते हैं।
आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धव्वश्चेति ते त्रयः ।
स्थापत्यवेदमपरमुपवेदश्चतुर्विधः ॥
आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और स्थापत्यवेद – यह चार उपवेद हैं ।
१. आयुर्वेद
किसी भी साधना को पूर्ण करने के लिए शरीर मुख्य कारण है । शरीर यदि स्वस्थ और सबल न हो, तो मनुष्य न तो इस लोक में उन्नति कर सकता है, और न ही साधना को पूर्ण कर परलोक में । इस कारण शारीकि मंगल का सहायक चिकित्सा-शास्त्र-रूपी आयुर्वेद सबसे प्रथम माना गया है। आयुर्वेद में सृष्टिविज्ञान, शारीरिक विज्ञान, धातु विज्ञान, रोगोत्पति विज्ञान, रोगपरीक्षा विज्ञान, शल्य चिकित्सा विज्ञान, रसायन चिकित्सा विज्ञान, आदि अनेक वैज्ञानिक रहस्यों का वर्णन है।
आजकल की पश्चिमीय उन्नत मेडिकल विज्ञान का सिद्धांत क्रमशः परीक्षा द्वारा पारंगत होने के सिद्धांत पर नियत है अर्थात् साधारण मनुष्य-बुद्धिके प्रयोग द्वारा क्रमशः परीक्षा करते हुए यह विद्याएँ प्रकट हुई हैं। परन्तु प्राचीन काल में पदार्थ विद्या के सम्बन्ध में जो कुछ उन्नति हुई थी, उसके प्रकाशक योगिराज महर्षिगण थे। इस कारण उस समय की आवश्यकता के लिये उन्होंने जो कुछ अपनी योगयुक्त बुद्धि से देखा था, वह सब बिना किसी भ्रम ही देखा था ।
उस समय की पदार्थ विद्या दार्शनिक सिद्धान्तो से भी सिद्ध थी। उहाहरण के रूप में समझ सकते हैं कि, जिस प्रकार सृष्टिके स्वाभाविक सप्त भेद दर्शनसिद्ध हैं; यथा- सप्त उच्चलोक, सप्त अधोलोक, सप्त व्याहृति, सप्त रङ्ग, सप्त स्वर, सप्त ज्ञानभूमि इत्यादि; उसी प्रकार आयुर्वेदके अनुसार शरीर में भी सात प्रकार के धातु माने गये हैं। दूसरा जिस प्रकार सृष्टि त्रिगुणात्मक होनेके कारण सृष्टि के सब विभाग त्रिगुणात्मक हैं, यथा-त्रिविध ज्ञान, त्रिविध कर्म, त्रिविध भाव, त्रिविध अधिकार इत्यादि, उसी प्रकार आयुर्वेद शास्त्र ने वात, पित्त, कफ, इन तीनों पर शारीरिक विज्ञान स्थित किया है।
२. धनुर्वेद
धनुर्वेद के ग्रंथों में मनोविज्ञान, शरीर विज्ञान, मन्त्र विज्ञान, लक्ष्य सिद्धि, अस्त्र शस्त्र विज्ञान आदि अनेक विषयों का वर्णन था। जिस प्रकार आयुर्वेद शास्त्र शारीरिक स्वास्थ्य और बलदायक है और शरीर स्वस्थ होने से मोक्ष प्राप्ति में सहायक होता है, उस्सी प्रकार धनुर्वेद शास्त्र स्वधर्म रक्षा, जातिगत जीवन रक्षा, शान्ति रक्षा, स्वदेश रक्षा आदि का प्रधान सहायक है और आधिभौतिक मुक्ति अर्थात् जातिगत स्वाधीनतारूपी मुक्ति प्राप्त करनेका तो यह शास्त्र एकमात्र अवलम्बन है।
मनुष्य के लिये महार्षोयों ने केवल दो प्रकार की विहित मृत्यु लिखी है, यथा
द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनौ ।
परिव्राड योगयुक्तश्च रणे चाऽभिमुखे हतः ॥
योग द्वारा उत्तम मृत्यु और धर्मयुद्ध में कीर्तिकर मृत्यु, दोनों मृत्यु की मुक्ति दायक है। युद्धविद्या भी केवल धर्मयुद्ध का ही अनुमोदन करती है, अधर्मयुद्ध निंदनीय और अहितकर समझा गया है। वर्त्तमान समय में शास्त्र विज्ञान ने अत्यधिक प्रगति की है परन्तु जितने दिव्य अस्त्र शस्त्र प्राचीनकाल में प्रचलित थे, जिस प्रकार विमान निर्माण करने की शैली प्रकट थी, जिस प्रकार व्यूहरचना प्रणाली प्राचीन सनातन धर्मियों को विदित थी, वैसी विचित्रता अभी तक प्रकट नहीं हुई हैं।
सनातन धर्मियों में युद्धविद्या की कुछ विलक्षणता थी। धीरता की पराकाष्ठा, सरल नीति की पूजा और सब दशा में धर्म का प्राधान्य, सनातन युद्ध विद्या द्वारा अनुमोदित था । रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थो में ऐसे अनेकों उदाहरण मिलते हैं, जब योद्धा दिनमें धर्मयद्ध करते थे और रात्रि में युद्ध विराम होने पर होने पर सेवा और चिकित्सा एक दूसरे के शिविर में जाकर करते थे। यह सब धनुर्विद्या की शिक्षा का ही परिणाम था।
३. गंधर्ववेद
जैसे आयुर्वेद से शरीर का सम्बन्ध है उसी प्रकार गंधर्ववेद का सम्बन्ध मन के साथ है। संगीत की सहायतासे मन स्वस्थ और बलशाली होता इस विषय में प्रामणिकता की कोई आवश्यकता नहीं है। श्रीभगवान कृष्ण ने श्री मदभागवत गीता में कहा है कि:-
वेदानां सामवेदोऽस्मि |
मैं वेदोंमें सामवेद हूं। ऐसा कहकर जो सामवेदकी प्रधानता कही है वह गान्धर्ववेद की सहायता के कारण ही है। सामवेद की तरह लोकमोहन और वेद नहीं है । इसी कारण इसका अन्य वेदों से सहस्र गुणा विस्तार हुआ था ।
पूजाकोटिगुणं स्तोत्रं स्तोत्रात्कोटिगुणो जपः ।
जपात्कोटिगुण गानं गानात परतरं न हि ॥
उपासना सम्बन्धी शास्त्रों ने सर्वोपरि संगीत की महिमा का कीर्तन किया है। प्राचीनकाल में गान्धर्वेद मुख्यतः दो भागों में विभक्त था:
१. देशीविद्या और
२. मार्गीविद्या ।
देशी विद्या लोक मनोरंजन में और मार्गीविद्या वेदगान में उपयोगी है। इनमें से मार्गीविद्या लुप्त हो गयी है तथा देशी विद्या भी अपभ्रंश रूप में ही विद्यमान है। प्राचीनकाल में सोलह सहस्र राग-रागिणी और ३३६ ताल व्यवहृत होते थे। प्राचीन काल में लोक मनोरजनकारी देशी विद्या त्रयी विद्या भी कहाती थी, क्योंकि देशी विद्याके तीन विभाग हैं – गीत, वाद्य और नृत्य। प्राचीन नृत्य विद्या का शुष्क कङ्काल को आजकल का कत्थक नृत्य कह सकते हैं।
प्रणव (ॐ) के साथ ईश्वरका साक्षात् सम्बन्ध है, इस कारण संगीत की सहायता से अन्त:करण की उन्नति और ईश्वर का साक्षात्कार होना गान्धर्ववेद- विज्ञान सिद्ध करता है। इस समय जो कुछ अलप रूप से यह शास्त्र उपलब्ध होता हैं उसकी विशेष उन्नति होने से मनुष्य जाति की मानसिक उन्नति में विशेष सहायता होगी, इसमें सन्देह नहीं है।
४. स्थापत्यवेद
स्थापत्यवेद में अनेकों प्रकार के शिल्प, कला, और विज्ञान का वर्णन था । शास्त्रों में ऐसा वर्णन है कि यह वेद बहुत बड़ा था और चौसठ विभाग में विभक्त था । जिस प्रकारअंतर्जगत सम्बंधित उन्नति का लक्षण दार्शनिक उन्नति से परिमाणित होता है, उसी प्रकार लौकिक बुद्धि अर्थात मनुष्य की बाहरी उन्नति, उस मनुष्यजाति के शिल्प, कला और विज्ञान संबन्धीय उन्नति से समझी जाती है।
प्राचीन काल में सनातन धर्मियों के द्वारा अट्टालिकानिर्माण, सेतु निर्माणु,मन्दिरादि निर्माण,आदि की कितनी उन्नति हुई थी वह प्रमाण आजकल के ध्वंसावशेषों मिलता है, अभी भी बहुत से ऐसे चिह्न विद्यमान हैं (जैसे रामसेतु, मोहनजोदड़ो अवशेष इत्यादि) जिनको देखकर पाश्चात्य प्रसिद्ध शिल्पीगण चकित होकर उनका होना असम्भव समझते हैं।
प्राचीन काल में पशुविद्या, प्रस्तरविद्या, लौहादिक कठिन धातु और सुवर्णदि कोमल धातुकी उपयोगी विद्याएँ, वनस्पतिविज्ञान, अनेकों प्रकार के याननिर्माण की विद्या, भूमि के अंतर्गत पदार्थ और जलनिराकरण की विद्या, कृषिविद्या, अनेक वस्त्र आभूषण तथा रत्नों के सम्बन्ध की शिल्पविद्या, आकाश तत्व विद्या, वायुतत्व विद्या, अग्नितत्व विद्या ग्रादि अनेक लोकोपकारी शिल्प तथा पदार्थ विद्याओं का विकास भली भाँति हुआ धा, इसके प्रमाण अभी भी विद्यमान है।
इति उपवेद।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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