अहिंसा परमो धर्म: का सिद्धांत क्या हिन्दुओं को अहिंसक बनने और किसी भी परिस्थिति में हथियार उठाने को प्रतिबंधित करता है ? क्या हिन्दू धर्म ग्रन्थ यह अनुमोदन करते हैं की युद्ध की अवस्था में भी अहिंसा को ही अपना परम धर्म मानना चाहिए ?
महाभारत में अनेकों जगह अहिंसा परमो धर्म: या हिंसा ना करने का उपदेश दिया गया है। परन्तु यह अनुमोदन कदापि नहीं किया गया की हिन्दुओं को हथियार उठाना ही नहीं चाहिए या पूर्णतः अहिंसक बन कर अपनी और अपने देश की सम्पदा की रक्षा नहीं करनी चाहिए।
हमने हर बार कहा है की हिन्दू धर्म शास्त्रों में वर्णित केवल एक श्लोक के अर्थ का अनर्थ कर कुछ भी प्रमाणित नहीं किया जा सकता – यह जानना अत्यंत आवश्यक है की वह श्लोक या उपदेश किस सन्दर्भ में दिया गया है। महाभारत के अनुशासनपर्ववर्णि दान धर्म पर्व के अध्याय ११३ , ११४ और ११५ में अहिंसा एवं धर्म की महिमा का अनुमोदन किया गया है परन्तु यह अनुमोदन केवल मांस भक्षण के विरुद्ध और निर्दोष प्राणियों की हत्या न करने के सन्दर्भ में किया गया है
अध्याय ११४ में बृहस्पति जी ने युधिष्ठिर को धर्म की महिमा बताई है |
युधिष्ठिर का प्रश्न था –
अहिंसा वैदिकं कर्म ध्यान मिनिन्द्र संयम:।
तपोऽथ गुरुश्रुशुसा किं श्रेयः पुरुषं प्रति।।
अहिंसा, वेदोक्त कर्म, ध्यान, इन्द्रिय संयम, तपस्या और गुरु शुश्रुसा इनमे से कौन सा कर्म मनुष्यों के लिए विशेष कल्याणकार होता है।
इसके उत्तर में बृहस्पति जी ने कहा :
हन्त निःश्रेयसं जन्तॊर अहं वक्ष्याम्य अनुत्तमम।
अहिंसापाश्रयं धर्मं यः साधयति वै नरः।३।
त्रीन दॊषान सर्वभूतेषु निधाय पुरुषः सदा।
कामक्रॊधौ च संयम्य ततः सिद्धिम अवाप्नुते।४।
अब मैं मुनष्य के लिए कल्याण के सर्वश्रेष्ठ उपाय का वर्णन करता हूँ। जो मनुष्य अहिंसयुक्त धर्म का पालन करता है, वह मोह, मद और मत्सरता रूप तीनो दोषों को अन्य समस्त प्राणियों में स्थापित करके एवं सदा काम क्रोध का संयम करके सिद्धि को प्राप्त हो जाता है
अहिंसकानि भूतानि दण्डेन विनिहन्ति यः।
आत्मनः सुखम अन्विच्छन न स परेत्य सुभी भवेत।५।
जो मनुष्य अपने सुख के लिए अन्य प्राणियों को डंडे से मारता है वह परलोक में सुखी नहीं रहता।
न तत्परस्य संदद्यात परतिकूलं यद आत्मनः।
एष संक्षेपतॊ धर्मः कामाद अन्यः परवर्तते ।८।
जो बात अपने को अच्छी न लगे वह दूसरों के प्रति भी करनी चाहिए। यही धर्म का संक्षिप्त लक्षण है। इससे भिन्न जो बर्ताव होता है वह कामनापूरक होता है
यह उपदेश सुन कर युधिष्ठिर में मन में संदेह उत्पन्न हो गया और उन्होंने अध्याय ११५ में पुनः भीष्म पितामह से पूछा:
ऋषयॊ बराह्मणा देवाः परशंसन्ति महामते।
अहिंसा लक्षणं धर्मं वेद परामाण्य दर्शनात।२।
कर्मणा मनुजः कुर्वन हिंसां पार्थिव सत्तम ।
वाचा च मनसा चैव कथं दुःखात परमुच्यते।३।
महात्मे ! देवता, ऋषि और ब्राह्मण वैदिक प्रमाण के अनुसार सदा अहिंसा- धर्म की प्रशंसा किया करते हैं। अतः नृपश्रेष्ठ ! बताइये की मन वाणी और क्रिया से भी हिंसा का ही आचरण करने वाला मनुष्य किस प्रकार उसके दुःख से छुटकारा पा सकता है ?
इसका उत्तर भीष्म पितामह ने इस प्रकार दिया
चतुर्विधेयं निर्दिष्टा अहिंसा बरह्मवादिभिः
एषैकतॊ ऽपि विभ्रष्टा न भवत्य अरिसूदन
शत्रुसूदन! ब्रह्मवादी पुरुषों ने मन से, वाणी से तथा कर्म से हिंसा न करने एवं मांस भक्षण न करना से अहिंसा धर्म का पालन करना बताया है। इनमे से किसी भी एक अंश की कमी रह जाए तो अहिंसा धर्म का पूर्ण पालन नहीं होता
त्रिकारणं तु निर्दिष्टं श्रूयते बरह्मवादिभिः
मनॊ वाचि तथास्वादे दॊषा हय एषु परतिष्ठिताः
ब्रह्म वादी महात्माओं ने हिंसा के दोषों के प्रधान तीन कारण बताये है – मन (मांस खाने की इच्छा) , वाणी ( मांस खाने का उपदेश) और आस्वादन (मांस का स्वाद लेना), यह तीनो ही हिंसा दोष के कारण हैं।
पुत्रमांसॊपमं जानन खादते यॊ विचेतनः
माता पितृसमायॊगे पुत्रत्वं जायते यथा
जो मनुष्य यह जानते हुए की पुत्र के मांस और दुसरे साधारण मांस में कोई अंतर नहीं है, मोहवश मांस खाता है, वह नराधम है।
एवमेषा महाराज चतुर्भिः कारणैर वृता
अहिंसा तव निर्दिष्टा सर्वधर्मार्थसंहिता
महाराज! इस प्रकार चारों उपायों से जिसका पालन होता है, उस अहिंसा धर्म का तुम्हारे लिए प्रतिपादन किया गया है, यह सम्पूर्ण धर्मों से ओत प्रोत है।
यह उपदेश सुन कर युधिष्ठिर ने मांस भक्षण के परित्याग से सम्बंधित अपने संदेह को भीष्म पितामह से पूछा:
अहिंसा परमॊ धर्म इत्य उक्तं बहुशस तवया।
शराद्धेषु च भवान आह पितॄन आमिष काङ्क्षिणः १।
मांसैर बहुविधैः परॊक्तस तवया शराद्धविधिः पुरा।
अहत्वा च कुतॊ मांसम एवम एतद विरुध्यते।२।
जातॊ नः संशयॊ धर्मे मांसस्य परिवर्जने।
दॊषॊ भक्षयतः कः सयात कश चाभक्षयतॊ गुणः।३।
पितामह ! आपने बहुत बार यह बात कही है की अहिंसा ही परम धर्म है, श्राद्ध में पितरों को मांस अर्पण करना चाहिए ? क्या विविध प्रकार के मांस का उपयोग श्राद्धविधि में किया जाना चाहिए क्योंकि पशु हत्या के बिना तो मांस पाना संभव ही नहीं है, अत: मांस के परित्यागरूप धर्म के विषय में मुझे संदेह हो गया है। इसलिए मैं यह जानना चाहता हूँ की मांस खाने वाले की क्या हानि होती है और जो मांस नहीं खाता उसे कौन सा लाभ मिलता है।
इस विषय पर उत्तर देते हुए तथा मांस भक्षण का सर्वथा विरोध करते हुए भीष्म पितामह ने कहा:
न भक्षयति यॊ मांसं न हन्यान न च घातयेत
तं मित्रं सर्वभूतानां मनुः सवायम्भुवॊ ऽबरवीत
स्वाम्भुव मनु का कथन है की जो मनुष्य न मांस खाता है और न पशु हिंसा करता है न दुसरे से हिंसा कराता है, वह सम्पूर्ण प्राणियों का मित्र है।
अधृष्यः सर्वभूतानां विश्वास्यः सर्वजन्तुषु
साधूनां संमतॊ नित्यं भवेन मांसस्य वर्जनात
जो मनुष्य मांस का परित्याग कर देता है, उसका कोई भी प्राणी तिरस्कार नहीं करता है, वह सब प्राणियों का विश्वासपात्र हो जाता है तथा श्रेष्ठ पुरुष उसका सदा सम्मान करते हैं।
सवमांसं परमांसेन यॊ वर्धयितुम इच्छति
नारदः पराह धर्मात्मा नियतं सॊ ऽवसीदति
धर्मात्मा नारद जी कहते हैं जो दूसरे के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है वह निश्चय ही दुःख उठता है।
ददाति यजते चापि तपस्वी च भवत्य अपि
मधु मांसनिवृत्त्येति पराहैवं स बृहस्पतिः
बृहस्पति ही का कथन है – जो मद्य और मांस त्याग देता है, उसे यज्ञ, दान और तपस्या के सामान ही फल प्राप्त होता है।
इसी विषय में श्लोक २५ में भीष्म पितामह ने कहा :
अहिंसा परमॊ धर्म स्त्थहिंसा परं तपः।
अहिंसा परमं सत्यं यतॊ धर्मः परवर्तते।।
अहिंसा परमो यज्ञस्त्थहिंसा परं फलम।
अहिंसा परम मित्रमहिंसा परमं सुखम ।।
अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है और अहिंसा परम सत्य है; क्योंकि उसी से धर्म की प्रवर्ति होती है। अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा परम फल है, अहिंसा परम मित्र है और अहिंसा परम सुख है।
उपरोक्त से स्पष्ट है ही अहिंसा का अनुमोदन या उपदेश केवल पशु हिंसावृत्ति तथा मांस भक्षण के त्याग के विषय में कहा गया है। महाभारत में या अन्य किसी भी धर्म ग्रन्थ में यह उपदेश कहीं नहीं है की आततायी आपको मारे तो मर जाओ। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अधर्म रुपी अपने ही सगे सम्बन्धियों के विरुद्ध लड़ने का उपदेश भगवत गीता के १८ अध्यायों में दिया था।
अधर्म का विरोध हिंसा नहीं है। श्रीमदभगावत महापुराण में स्पष्ट कहा गया है :
मत्तं प्रमत्तमुन्मत्तं सुप्तं बालं स्त्रीयं जडम।
प्रपन्नं विरथं भीतं न रिपुं हन्ति धर्मवित ।।
धर्मवेत्ता पुरुष, असावधान, मतवाले, पागल सोयेहुए, बालक, स्त्री, विवेकज्ञान शून्य, शरणागत, रथहीन और भयभीत शत्रु को कभी नहीं मरना चाहिए।
स्वप्राणान य:परप्राणे: प्रपूषणात्य घृण: खल: ।
त्वदवधस्तस्य ही श्रेयोयेद्योषाद्यात्यध: पुमान ।।
जो दुष्ट और क्रूर पुरुष दूसरों को मार कर अपने प्राणो का पोषण करता है, उसका तो वध ही उसके लिए कल्याणकारी है क्यूँकि वैसी आदत ले कर अगर वह जीता है तो और भी पाप करता है और उन पापों के कारण नरकगामी होता है ।
(श्रीमद् भागवत महापुराण।। प्रथनस्कंध, अध्याय 7, श्लोक 36 , 37)
युद्ध या संग्राम में अधर्मियों की हत्या या असत्य और अधर्म की राह पर चलने वाले आतातियों की हत्या को धर्म ही समझा गया है। महाभारत के राजधर्मनुशासन पर्व के अध्याय ५५ में भीष्म पितामह ने कहा है :
पितॄन पिता महान पुत्रान गुरून संबन्धिबान्धवान ।
मिथ्या परवृत्तान यः संख्ये निहन्याद धर्म एव सः।।
जो असत्य के मार्ग पर चलने वाले पिता, दादा, भाई, गुरुजन, बंधू बांधवों को भी संग्राम में मार देता है, उसका वह कार्य धर्म ही है।
समयत्यागिनॊ लुब्धान गुरून अपि च केशव ।
निहन्ति समरे पापान कषत्रियॊ यः स धर्मवित ।।
केशव ! जो क्षत्रिय, लोभवश धर्म मर्यादा का उल्लंघन करने वाले पापाचारी गुरुजनो का भी संग्राम में वध कर डालता है, वह अवश्य ही धर्म का ज्ञाता है।
आहूतेन रणे नित्यं यॊद्धव्यं कषत्रबन्धुना ।
धर्म्यं सवर्ग्यं च लॊक्यं च युद्धं हि मनुर अब्रवीत।।
संग्राम में शत्रु के ललकारने पर क्षत्रिय बंधू को सदा युद्ध के लिए उद्द्यत रहना चाहिए। मनु जी ने कहा है की युद्ध क्षत्रिय के लिए धर्म का पोषक, स्वर्ग की प्राप्ती करने वाला और लोक में यश फ़ैलाने वाला है।
अत: यह मिथ्या प्रचार करना की सनातन धर्म हर अवस्था में अहिंसा परमो धर्म: का उपदेश करता है सर्वथा गलत है, तथा सदा सनातन धर्मियों को भ्रमित करने के लिए किया गया है।
अहिंसा परम धर्म है केवल पशु और अन्य प्राणियों की रक्षा के लिए, आतातियों और धर्म को नुकसान पहुंचने वाले अधर्मियों का वध चाहे वे अपने सगे संबंधी ही क्यों न हों धर्म है
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।
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